अक्षय्य तृतीया के दिन तिलतर्पण का महत्त्व क्या है ?

तिल-तर्पण का अर्थ है, देवताओं एवं पूर्वजों को तिल एवं जल अर्पण करना । तर्पण का अर्थ है, देवता एवं पूर्वजों को जलांजलि; अर्थात अंजुली से जल देकर उन्हें तृप्त करना । पितरों के लिए दिया हुआ जल ही पितृतर्पण कहलाता है । पूर्वजों को अपने वंशजों से पिंड एवं ब्राह्मणभोजन की अपेक्षा रहती है, उसी प्रकार उन्हें जल की भी अपेक्षा रहती है । तर्पण करने से पितर संतुष्ट होते हैं । तिल सात्त्विकता का, तो जल शुद्ध भाव का प्रतीक है । देवताओं को श्‍वेत एवं पूर्वजों को काले तिल अर्पण करते हैं । काले तिल द्वारा प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगों की सहायता से पृथ्वी पर अतृप्त लिंगदेह उनके लिए की जा रही विधि के स्थान पर सहज ही आ सकती हैं एवं विधि में से सहजता से अपना अंश ग्रहण कर वे तृप्त होती हैं ।

१. देवता को तिल-तर्पण करने की पद्धति क्या है ?


१. प्रथम ताम्रपात्र हाथ में लें ।

२. ब्रह्माजी अथवा श्रीविष्णु तथा उनके एकत्रित रूप का अर्थात श्री दत्तात्रेय भगवान का स्मरण कर उन्हें ताम्रपात्र में आने का आवाहन करें ।

३. ताम्रपात्र में ‘देवता सूक्ष्म से आए हैं’, ऐसा भाव रखें ।

४. श्‍वेत तिल हाथ में लें और साक्षात देवता के प्रति तिल अर्पण करने का भाव रखते हुए तिल जल के साथ देवतीर्थ से अर्थात हाथ सीधा कर उंगलियों के ऊपर से ताम्रपात्र में अर्पण करें ।

५. देवता को नमस्कार करें ।

अभी हमने देवता को तिल तर्पण करने की विधि देखी । इस प्रकार देवता के प्रति भावपूर्ण रीति से तिल एवं जल अर्पण करने से अर्पणकर्ता देवता की सात्विकता अधिकमात्रा में ग्रहण कर पाता है ।

अब तक हमने अक्षय तृतीया का महत्त्व, इस दिन देवताओं को तिल-तर्पण करने का महत्त्व समझा । अब पितरों को तिल-तर्पण करने का शास्त्राधार समझते हैं, इस प्रकार तिल-तर्पण करने से क्या परिणाम होता है, इसे हम समझते हैं ।

अक्षय तृतीया के दिन उच्च लोक से पृथ्वी पर अधिक मात्रा में सात्त्विकता प्रक्षेपित होती है । अन्य दिनों की तुलना में इसकी मात्रा ६० से ७० प्रतिशत होती है । इस सात्त्विकता को ग्रहण करने हेतु भुवलोक के अनेक जीव इस दिन पृथ्वी के निकट आते हैं । इनके कारण मनुष्य के लिए कष्ट की आशंका रहती है । अतृप्त पूर्वजों के कारण कष्ट की मात्रा ३० से ४० प्रतिशत होती है । पूर्वज पृथ्वी के निकट आने के कारण उनके लिए किए गए तिल तर्पण से ऊर्जा प्राप्त होकर, उन्हें गति भी प्राप्त होती है ।

पितरों को तिल प्रिय होते हैं, तथा तिल का उपयोग करने से पितरों के लिए की जा रही विधि में असुर विघ्न नहीं डालते । इसके साथ ही तिल में सात्त्विकता ग्रहण करने की एवं रज-तम नष्ट करने की क्षमता अधिक मात्रा में होती है । तिल-तर्पण करते समय, ताम्रपात्र में पूर्वजों को आवाहन करने के उपरांत यजमान के भाव के अनुसार, उनकी लिंगदेह ताम्रपात्र में आती हैं । इन लिंगदेहों के चारों ओर काला आवरण बना रहता है । तिल तर्पण करने के उपरांत इन लिंगदेहों को सात्त्विकता प्राप्त होती है । इन लिंगदेहों में से जो तृप्त होता है, उसके चारों ओर बना काला आवरण कम होने लगता है, तथा चैतन्य का कवच निर्माण होने लगता है। साथ ही उसे आगे के लोक में जाने हेतु उर्जा एवं प्राणशक्ति प्राप्त होती है । इसके कारण यह लिंगदेह जडत्व त्यागकर हलकी होती है एवं उसे गति प्राप्त होती है । तिल तर्पण के कृत्य से पूर्वजदोष या पितृदोष 5 से १० प्रतिशत अल्प होता है । अक्षय तृतीया के दिन देवता एवं पूर्वजों के लिए किए गए तिल-तर्पण से यजमान का देवऋण और पितरऋण कुछ मात्रा में कम होने में सहायता मिलती है ।

 

२. पूर्वजों को गति मिलने हेतु तिल-तर्पण करने की पद्धति क्या है ?

१. एक ताम्रपात्र में अपने पूर्वजों का आवाहन करें ।

२. ‘पूर्वज सूक्ष्म से आए हैं ऐसा भाव रखें ।

३. हाथ में काले तिल लें ।

४. तिल में श्रीविष्णु एवं ब्रह्माजी के तत्त्वों को आने हेतु प्रार्थना करें ।

५. इसके उपरांत देवतातत्त्व से संचारित तिल जल के साथ पितृतीर्थ से अर्थात अंगूठा एवं तर्जनी के मध्य से ताम्रपात्र में अर्पण करें । हम ‘पूर्वजों के प्रति तिल एवं जल अर्पण कर रहें है’ ऐसा भाव रखें ।

६. इस समय पूर्वजों को गति देने हेतु श्री दत्तात्रेय भगवान, ब्रह्माजी अथवा श्रीविष्णु को प्रार्थना करें ।

 

३. क्या आत्महत्या करनेवालों का वार्षिक श्राद्ध नहीं होता ?
क्या उनकी मुक्ति के लिए कोई शास्त्रीय उपाय है ?

किसी की मृत्यु के उपरांत भी उस लिंगदेह की मृत्योत्तर यात्रा सुखमय और क्लेश रहित हो, मृतात्मा को अगले लोकों में जाने हेतु सद्गति मिले; इसके लिए हिन्दू धर्मशास्त्र में श्राद्धविधि करने के लिए कहा गया है ।

प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा की ओर से एक निश्‍चित आयु मिली हुई है । उक्त आयु के पूर्व ही यदि व्यक्ति हत्या, आत्महत्या, दुर्घटना या रोग के कारण मर जाता है, तो उसे अकाल मौत कहते हैं । इसमें से आत्महत्या सबसे बडा कारण होता है । धर्मशास्त्र में आत्महत्या करना अपराध माना गया है । आत्महत्या करना निश्‍चित ही ईश्‍वर का अपमान है । ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति आत्महत्या करता है उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती है ।

आत्महत्या करनेवाला एक प्रकार से ईश्‍वर की ओर से निर्धारित किया जीवन तथा प्रारब्ध मध्य भाग में ही छोडकर ईश्‍वर के निर्णय का अपमान करता है, इस कारण धर्मशास्त्र में दंड के रूप में उसके लिए श्राद्धविधि नहीं बताई गई है । पर अभी आत्महत्या करनेवालों के लिए भी श्राद्ध करने का प्रचलन आरंभ हुआ है/ (परंपरा चालू हुई है) । जिसमें यदि आत्महत्या करनेवाला विवाहित है, और उसका श्राद्धकर्म आगे चालू रखने के लिए वंशज है, तो उसके लिए पितृपक्ष की चतुर्दशी अर्थात घात-चतुर्दशी के दिन श्राद्ध कर सकते हैं । इस चतुर्दशी की तिथि को दुर्घटना में मृत, शस्त्र से मारे गए, अकाल मृत्यु होनेवाले, तथा आत्महत्या करनेवाले इन सभी का श्राद्ध किया जाता है । यदि आत्महत्या करनेवाला अविवाहित है, तथा भविष्य में उसका श्राद्धकर्म चालू रखनेवाला कोई नहीं है, तो ऐसी लिंगदेहों को प्रेतयोनि से मुक्त कराने के लिए नारायणबलि की विधि करनी पडती है । यह विधि एक बार ही की जाती है । उसके लिए वार्षिक श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती । नारायणबलि के संदर्भ में अधिक जानकारी नारायणबलि, नागबलि एवं त्रिपिंडी श्राद्ध यहा पर पढें ।

 

४. श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें ।

अब लोग अंतिम अनुष्ठान के लिए ज्ञान प्रबोधिनी नामक एक संगठन के पास जाते हैं । वहां पर धर्मशास्त्र के अनुसार पूर्ण विधिसम्मत श्राद्ध नहीं होता है, अपितु मृत व्यक्ति के लिए यह लाभदायी हो सकता है ?

मृत व्यक्ति की लिंगदेह तथा पितरों के मुक्ति के लिए धर्मशास्त्र में जो श्राद्धादि विधियां बताई गई हैं, उन्हें श्रद्धापूर्वक करना ही श्राद्ध है । आजकल कुछ व्यक्ति अपनी आधुनिक सोच से नई नई रीतियां प्रारंभ कर रहे हैं, जैसे कि श्राद्ध करने की अपेक्षा गरीबों को खाना खिलाओ, दान करो इत्यादि । परंतु यह सब तो पितरों के लिए श्राद्ध करके भी कर सकते हैं । शास्त्र के अनुसार पितरों की सूक्ष्म लिंगदेह को मुक्ति तथा आगे के लोक में प्रवास करने के लिए सहायता हो इस कारण ज्ञानी ऋषि-मुनियों ने श्राद्ध की विधि का निर्माण किया है । अन्य किसी संगठन तथा मनुष्य की अपेक्षा हमें अपने ऋषि-मुनि के वचन पर श्रद्धा रखनी चाहिए ।

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