आयुर्वेद के अनुसार महामारी के कारण एवं उपाययोजना !

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वैद्य रूपेश साळंखे

 

१. वायु, जल, देश एवं काल में विकृति निर्माण होने पर महामारी फैलती है !

महामारी अर्थात अनेक लोगों को तथा जनसमुदाय को मरणोन्मुख करने हेतु गंभीर स्वरूप धारण किया हुआ रोग अथवा व्याधि । गावों में, जिलों में, राज्यों में, देश अथवा भूखंड में रहनेवाले सभी लोगों को ऐसी व्याधियों का सामना करना पडता है । किसी भी बीमारी अथवा व्याधि के कारणों का विभाजन सामान्य तथा असामान्य, इन दो वर्गाें में किया जाता है । जनसमुदाय के लिए सर्वसामान्यरूप से साधारण कारण लागू होते हैं । व्यक्ति विशिष्ट दोषों का प्रकोप करनेवाली एवं दोषों को बिगाडनेवाली, इन कारणों का समावेश असामान्य कारणों में होता है । ये कारण उस विशिष्ट व्यक्ति तक मर्यादित होते हैं । मनुष्य सहित अन्य प्राणिमात्रों के लिए उपयोगी वायु (आसपास के वातावरण की हवा), जल (उपयोग में लाया जानेवाला पानी), देश (जनसमुदाय रहता है वह भूखंड) एवं काल (उस स्थान पर चल रहा ऋतु-काल अथवा ज्योतिषशास्त्र के अनुसार विकृत ग्रहों के कारण उत्पन्न हुई अनिष्ट अवधि) ऐसी सभी बातों में जब विकृति उत्पन्न होती है, तब आयुर्वेदानुसार महामारी फैलती है ।

(प्रतिकात्मक छायाचित्र)

 

२. ‘काल’ दूषित होने से सभी को उसका परिणाम भोगना पडता है !

हवा दूषित होने से परिवर्तन के रूप में आप अन्य स्थानों पर रहने के लिए जा सकते हैं । पानी में दोष उत्पन्न होने पर, पानी को शुद्ध कर, उसे उबालकर, इसके साथ ही औषधि द्रव्यों से उसे तैयार कर उपयोग में ला सकते हैं । भूखंड में अवगुण उत्पन्न होने पर अपना देश छोडकर जाना यद्यपि कठिन हो, तब भी अन्यत्र जाकर रह सकते हैं; परंतु ‘काल’ विकृत होने पर, हम भले ही कहीं भी चले जाएं, तब भी उसे टाल नहीं सकते । उसका परिणाम सभी को भोगना ही पडता है ।

आसपास की हवा, पानी, भूमि विकृत गुणों से प्रभारित हो जाती है । इसका अर्थ यह है कि इन घटकों में हम सभी के स्वास्थ्य के लिए निरोगी शरीर के लिए आवश्यक गुण न्यून हो गए होते हैं । इसके साथ ही विषाणुओं के लिए पोषक वातावरण तैयार हो चुका होता है । परिणामस्वरूप ये विषाणु स्वरूप के राक्षस जो अपने आसपास के वातावरण में होते हैं, वे सहजता से अपने शरीर पर आक्रमण कर सकते हैं । परिणामस्वरूप प्राकृतिक प्रकोप के कारण ऐसी महामारी का स्वरूप गंभीर रूप धारण कर सकता है ।

 

३. ऋतुओं में परिवर्तन होने से महामारी उद्भव होना

अपनी प्रतिकारक्षमता भले ही कितनी भी अच्छी हो, तब भी आसपास के वातावरण में विद्यमान विषाणुओं की राक्षसी प्रवृत्ति बढ गई होती है । ऋतुओं में परिवर्तन महामारियों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । गर्मियों में एकाएक मूसलाधार वर्षा होना अथवा सर्दियों में वर्षा होना, यह ऋतुचक्र की विषमता दर्शाते हैं । इसका ही उदाहरण है ‘सार्स’ विषाणु, ‘मर्स’के आक्रमण, स्वाईन फ्ल्यू की साथ एवं आजकल कोरोना का उपद्रव । ऐसे विषाणुओं का संसर्ग वायु, जल, देश एवं काल की विषमताओं के कारण होता है । सभी प्राणिमात्र को व्यापनेवाले घटक एकाएक क्यों बिगडते हैं ? इसका मार्मिक उत्तर केवल आयुर्वेद के पास है ।

 

४. धर्मपालन से ही महामारी से रक्षा हो सकती है !

वास्तव में भारतीय भूखंड धर्म एवं संस्कृति के लिए पहचाना जाता है । अनुशासित रुढी अथवा परंपराओं का पालन न कर पाने से शारीरिक तथा मानसिक व्याधि को आमंत्रण मिलता है । आयुर्वेद में महामारी का प्रमुख कारण ‘अधर्मरूपी व्यवहार’ ही बताया है । इस व्यवहार का कारण है बुद्धिभेद ! अर्थात् प्रज्ञापराध, अर्थात बुद्धि द्वारा होनेवाली चूकें । अच्छे एवं बुरे परिणामों का सारासार विचार कर, बुद्धि हमें योग्य अथवा अयोग्य बातों का मार्गदर्शन करती है; परंतु शहरीकरण के नाम पर ऋतुचर्या अथवा दिनचर्या-रात्रिचर्या के अनुसार शरीरधर्म पाला नहीं जाता, इसके साथ ही खाने-पीने का तालमेल बिगडने पर, मानसिक कामक्रोधादि शत्रु बढते जाते हैं । इसका ही परिणाम हमारे आसपास के वातावरण पर भी होता है । आसपास का प्रदूषण बढते जाने और राक्षसस्वरूपी विषाणु महामारी के स्वरूप में संपूर्ण देश को खाने के लिए सज्ज हो जाता है । शारीरिक विकास अथवा नैतिक विकास, ये वास्तव में किसी भी धर्म का मूलभूत आधार है । सत्य, दया, दान, देवतार्चन, सद्व्रत पालन, इंद्रियदमन ऐसी बातों का प्रयत्नपूर्वक पालन करने से सकारात्मक ऊर्जा बढने लगती है । परिणामस्वरूप ऐसे विषाणुओं का हम पर कोई भी परिणाम नहीं होता और महामारियों से हमारी रक्षा होती है ।

 

५. प्राणियों का भक्षण करने से मनुष्य को उनसे
मिलनेवाला अभिशाप, यह भी महामारी का एक कारण !

अधर्म अर्थात शरीर, विशिष्ट जाति-धर्म, जनसमुदाय एवं देश के लिए बना दायरा लांघ कर, आचरण करने की प्रवृत्ति ! कोरोना विषाणुओं का संसर्ग न हो, इस उद्देश्य से जागतिक आरोग्य संगठन ने नियम बताए हैं । ये नियम केवल हस्त-प्रक्षालन, पाद-प्रक्षालन अथवा गूद-प्रक्षालन तक सीमित न रखते हुए, अपने आचरण को भी पवित्रता तक लाना अपेक्षित है । मनुष्य प्राणिमात्रों पर दया करे, यह भारतीय संस्कृति है । ऐसे प्राणिमात्रों पर दया करने के स्थान पर यदि उनका ही भक्षण कर लें, तो उन प्राणियों के शरीर पर रहनेवाले जीवाणु अथवा विषाणु हम पर आक्रमण तो करेंगे ही न !

नागपंचमी को नाग की, बैलपोला पर बैलों की एवं दीवाली पर गाय की पूजा करते हैं । ऐसी अनेक बातें हमारी संस्कृति में पूज्य हैं । . प्राणियों को यदि अकारण कष्ट दिए, उनका भक्षण करने पर उनका शाप मिलता है, जिसे आयुर्वेद में ‘अभिशाप’ कहते हैं । अभिशाप ये ऐसी (कोरोनासमान) महामारियों का एक कारण है । बंदर, कबूतर, मोर की हम पूजा करते हैं; परंतु मनुष्य का संस्कृतिबाह्य आचरण होगा, तो ऐसे प्राणिमात्रों पर विद्यमान विषाणु अवश्य ही कष्ट देंगे ।

 

६. विषाणुओं से बचने के लिए परिसर स्वच्छ रखना चाहिए !

रक्षोगणादिभिः वा विविधैः भूतसङ्घैः तम् अधर्मम् अन्यद् वा अपि अपचारान्तरम् उपलभ्य अभिहन्यन्ते ।
– चरकसंहिता, विमानस्थान, अध्याय ३, श्लोक २२

अर्थ : अधर्म अथवा गलत काम करने से लोग विविध प्राणियों द्वारा मारे जाते हैं ।

इस श्लोक से अनजाने में मनुष्य की अति अधार्मिक प्रवृत्ति के कारण ऐसे विषाणुओं से बने घातक अस्त्र जनसमुदाय के लिए अवश्य ही मारक हो सकते हैं’, यह ध्यान में आता है । ऐसे विषाणुओं से अपना बचाव करने के लिए केवल हाथ-पैर अथवा मुंह धोकर बैठने की अपेक्षा अपना परिसर स्वच्छ रखना, घर के सामने रंगोली लगाना इत्यादि प्रयत्न की करने चाहिए । घर के आसपास तुलसी, निर्गुंडी, आम, अडुलसा, नीम जैसे वृक्ष लगाने का प्रयत्न होना चाहिए । अमावास्या अथवा पूर्णिमा के दिन दुपहिया अथवा चौपहिया वाहनों की पूजा करनी चाहिए; कारण ऐसे समय पर विषाणुओं का प्रभाव अधिक होता है । इस संदर्भ में लोगों को बताने पर हमें ही मूर्ख ठहराते हैं !

– वैद्य रूपेश साळंखे, एम.डी. आयुर्वेद, कायचिकित्सा प्रोफेसर, एस.जी.वी. आयुर्वेदीक मेडिकल कॉलेज एवं शोध केंद्र, बैलहोंगल, जिला बेळगाव.

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