काल के अनुसार ‘उत्तम कर्म’ ही ‘उत्तम ध्यान’

आज के समय में ‘काल के अनुसार ‘उत्तम कर्म’ करना ‘उत्तम ध्यान’ है । केवल ध्यान से प्रगति नहीं होती; क्योंकि हममें ध्यान लगने योग्य सात्त्विकता नहीं होती । उसे उत्तम कर्म कर प्राप्त करना पडता है । उत्तम आचरण, उत्तम विचार तथा भगवान के उत्तम सान्निध्य के कारण देह सात्त्विक होने लगती है । … Read more

स्वयं को अज्ञानी माननेवाले ज्ञानवंत को ज्ञान कैसे प्राप्त होता हैं ?

स्वयं को अज्ञानी माननेवाले ज्ञानवंत को ही भगवान की कृपा से ज्ञान का कृपा प्रसाद मिलता है ! – श्रीचित्‌शक्‍ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२८.४.२०२०)

साधना के संदर्भ में भारत का महत्त्व समझ लें !

‘ईश्वरप्राप्ति हेतु साधना करनी हो, तो भारत को छोडकर संसार के किसी भी देश में मत रहो; क्योंकि भारतीयों की स्थिति भले ही बुरी हो, तब भी भारत जैसा सात्त्विक देश संसार में कहीं नहीं है । अन्य सभी देशों में रज-तम की मात्रा अत्यधिक है; तथापि ५० प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त व्यक्ति … Read more

बच्चों को साधना न सिखाने का परिणाम !

‘बुढापे में बच्चे ध्यान नहीं देते’, ऐसा कहनेवाले वृद्धजनों, आपने बच्चों पर साधना के संस्कार नहीं किए, इसका यह फल है । इसके लिए बच्चों के साथ आप भी उत्तरदायी हैं ! – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

हिन्दुओं, काल के अनुरूप साधना परिवर्तित होती है, यह समझ लो !

‘शांतिकाल में, अर्थात पूर्व के युगों में ‘गोदान करना’, साधना थी । अभी आपातकाल में गायों के अस्तित्व का प्रश्न निर्माण हो गया है । ऐसे में ‘गोदान करना’ नहीं; अपितु ‘गोरक्षा करना’ महत्त्वपूर्ण है ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

तृतीय विश्वयुद्ध के काल में स्वयं को बचाने के लिए अभी से साधना करें !

‘कोई भी राजनीतिक दल तृतीय विश्वयुद्ध के समय हिन्दुओं की रक्षा नहीं कर पाएगा; क्योंकि उनके पास आध्यात्मिक बल नहीं है । उस काल में स्वयं को बचाने के लिए अभी से साधना करें !’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

संतों का महत्त्व !

‘कहां पूर्णतः अपनी देख-रेख में रहनेवाले अपने एक या दो बच्चों पर भी सुसंस्कार करने में असक्षम आजकल के अभिभावक और कहां अपने सहस्रों भक्तों पर साधना का संस्कार करनेवाले संत एवं गुरु !’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

स्वभावदोष एवं अहं

अ. (बुरी) आदतों को छोडने के लिए ईश्वर के सामने ध्येय रखकर कृति करने का प्रयत्न करना । आ. अपना निरीक्षण जागृत रहना चाहिए, तभ ही स्वयं में अहं के पहलू एवं त्रुटियां ध्यान में आती हैं । इ. जो अपनी चूकें बताता है एवं मान्य करता है, वही ईश्वर को प्रिय है एवं ईश्वर … Read more

मनमुक्तता का महत्त्व

अ. जब (खेत में) नदी का पानी आता है, तब उसे पाट बनाकर दिशा देनी पडती है; अन्यथा वह समस्त (खेत) नष्ट कर देता है । उसीप्रकार मन में आ रहे विचारों को दिशा देनी पडती है । आ. ‘मन खोलना’, अर्थात ईश्वर द्वारा सुझाया गया बोलना एवं बताना । मन खाली करने के उपरांत … Read more