केवल गुरुकृपा से आत्मा का शोध लेना साध्य होगा !-संत ज्ञानेश्वर

संत ज्ञानेश्वर

आध्यात्मिक उन्नति गुरू बिना नहीं होती । कोई भी ज्ञान गुरू के बिना नहीं मिलता । संत ज्ञानेश्वर, संत मुक्ताबाई के भाई थे । तब भी वे उनके गुरु थे । संत ज्ञानेश्वर एवं संत मुक्ताबाई में हुए आगे दिए संवाद के समय इन दोनों की आयु अत्यंत अल्प थी । जिस आयु में छोटे बच्चे गुड्डे-गुडियों का खेल खेलते हैं, उस आयु में भी उन्नत संतद्वयी उच्च आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे । यह देख उनकी उच्च अवस्था का भान होता है । इससे यह भी ध्यान में आता है कि गुरु अपने शिष्य को सिखाते समय सर्वसाधारण बातों से कितनी उच्च कोटि का ज्ञान देते हैं । गणपति सगुण ब्रह्मा के विषय का ज्ञान एवं गुरुकृपा बिना ईश्वरप्राप्ति नहीं हो सकती, इस विषय का यह संवाद है ।

प.पू. परशराम पांडे

१. निर्गुण अर्थात क्षय न होनेवाले रेणूरूपी सूक्ष्म अक्षर
होने से निर्गुण का अत्यंत ही सूक्ष्म अस्तित्व सगुण ब्रह्म स्वरूप में
(गणपति के स्वरूप में) कार्य करना एवं दृश्य सगुण स्वरूप का सार निर्गुण ही होना

संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं,

ज्ञानेश्वर म्हणे ।ऐक मुक्ताबाई ।
सांगेल तू पाही । गुरुमुखें ॥ १ ॥

निर्गुणाचा बुंद। सगुणी उतरला ।
कर्दम (चिखल) तो झाला । एका एकीं ॥ २ ॥

स्थापिलासे गोळा । सगुणाचा सार ।
तयाचा आधार । एक आहे ॥ ३ ॥

मूळद्वारी मुळीं। स्थापिला गणपति ।
तया पाशी वस्ती । निर्गुणाची ॥ ४ ॥

निर्गुण म्हणजे काय। रेणूं ते अक्षर ।
म्हणे ज्ञानेश्वर । मुक्ताबाई ॥ ५ ॥

अर्थ : ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, हे मुक्ताबाई, सुनो । तुम्हें मैं अब गुरुमुख से गणपति इस सगुण ब्रह्माविषय का ज्ञान देता हूं । निर्गुण का सूक्ष्म रूप, सगुण से कार्य कर रहा है; कारण ये निर्गुण सर्व महाकाश में व्याप्त है । उस अनुरूप जो दृश्य विश्व है, वह अत्यंत अल्प है । तब उसे गतिमान करने के लिए इस निर्गुण का अत्यंत ही सूक्ष्म अस्तित्व इस सगुण स्वरूप में कार्य कर रहा है । इस निर्गुण के कारण उस सगुण में कर्दम (कीचड) हुआ है । सगुण एवं निर्गुण एकरूप हो गए । अब उसमें सगुण कौनसा और निर्गुण कौनसा ?, यह तुम नहीं बता पाओगी । वास्तव में वह सर्व निर्गुण ही है । उसका आधार निर्गुण ही है, ऐसा दिखाई देगा । जो सगुण दिखाई देते है, उसका सारत्व निर्गुण ही है । सगुण स्वरूप के मूल स्वरूप में, मूलाधार तत्त्व में गणपति की स्थापना हुई है; परंतु उनके साथ कौन रहता है ?, ऐसा पूछोगी, तो उनके पास निर्गुण के बिना कुछ भी नहीं । अरे, निर्गुण का अर्थ क्या है ? तो वह क्षय न होनेवाले रेणू (रज, कण) रूपी सूक्ष्म अक्षर ही हैं ।

विवेचन : संत ज्ञानेश्वर एवं संत मुक्ताबाई यद्यपि भाई-बहन थे, तब भी संत ज्ञानेश्वर आध्यात्मिक स्तर पर ब्रह्मासंबंधी ज्ञान का संत मुक्ताबाई को प्रबोधन करते हुए कहते हैं, तुम अब गुरुमुख से सुनो । ऐसा कहना विशेष है ।

सर्वत्र ब्रह्मांड की रिक्ती में चैतन्य के बिना (निर्गुण तत्त्व के बिना) कुछ भी नहीं । जो सगुण स्वरूप में दिखाई देता है, वह भी उस निर्गुण का ही सूक्ष्म रूप होने से उसका सारत्व ही है, इसके साथ ही उस सगुण के मूलाधार तत्त्व में गणपति तत्त्व स्थित होने से वह भी निर्गुण ही है । वह सत्य, शाश्वत एवं चैतन्यमय है ।

 

२. माया की उत्पत्ति कैसे हुई ? एवं माया का व्याप जानने के लिए कौनसा आधार है ?

मुक्ताबाई कहती हैं,

मूळद्वारी दादा । स्थापिला गणपति ।
माया ही उत्पत्ति । कैशी झाली ॥ १ ॥

मायेचा बंबाळ । जाये एकसरा ।
इच्याही आधारा । सांगा दादा ॥ २ ॥

ब्रह्मांड व्यापिले । आकाश कवळिलें ।
सर्व काही व्यापिले । मायेचें ॥ ३ ॥

माया कैशी दादा । सांगता निर्गुण ।
मुक्ताबाई म्हणे । भिन्न पडे ॥ ४ ॥

अर्थ : इसपर मुक्ताबाई कहती हैं, अरे दादा, तुम कहते हो कि मूल द्वार पर (मूलाधारचक्र के स्थान) गणपति की स्थापना हो गई, फिर माया की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह सर्व माया का व्याप जानने के लिए इसे क्या आधार है ?, यह बताओ । ऐसा दिखाई देता है कि इस माया ने सर्व ब्रह्मांड व्याप लिया है । तब भी इस माया एवं निर्गुण में भिन्नता स्पष्ट करो ।

विवेचन : संत ज्ञानेश्वर पहली कडी (पंक्ति) में कहते हैं, सर्वत्र चैतन्य है और सगुण के मूल स्वरूप में गणपति है, जो निर्गुण ही है । ऐसा होते हुए भी माया एवं निर्गुण में भेद न समझ आने से संत मुक्ताबाई उस विषय का स्पष्टीकरण पूछती हैं ।

 

३. रेणूरूपी अव्यक्त एवं नित्य स्वरूप में प्रतीत होनेवाले अणुस्वरूप,
यह माया के रूप में प्रतिभासित होना एवं उस माया से ही देह भी निर्माण होना

रेणू ते निरंजन । अणू तोचि माया ।
माया वचनीं । देह निपजला ॥ १ ॥

नाही अक्षराचा । आधार मेरुशी ।
हे तो नाभिपाशी । स्थापियेलें ॥ २ ॥

दोहों मधोनिया । निघाले वचन ।
वेदांचे जन्मस्थान । तेंच बाई ॥ ३ ॥

दहा पवनाचा । एक झाला मेळा ।
रेणूचा जिव्हाळा । सर्वांशी हा ॥ ४ ॥

सर्र्वांहूनि वेगळा । रेणू तो अचल ।
म्हणे ज्ञानेश्वर । मुक्ताबाई ॥ ५ ॥

अर्थ : संत ज्ञानेश्वर महाराज मुक्ताबाई से कहते हैं, रेणूरूपी अव्यक्त, नित्य स्वरूप में भासणारे/प्रतीत होनेवाले अणुस्वरूप माया के रूप में प्रतिभासित होते हैं । देह भी उस माया से ही निर्माण हुई है । अरे, इस अक्षर का आधार सुषुम्ना नाडीरूपी मेरू से नहीं, अपितु नाभि के समीप परा स्वरूप से उसकी उत्पत्ति हुई है । यह परा वाचा नाभी से मेरुदंड द्वारा निकलकर मुख द्वारा वैखरी के रूप में दिखाई देती है; इसलिए वेदों का जन्मस्थान भी परावाणी नाभिस्थल है, यह तुम समझ लो । दशप्राणों की एकत्रता इन सभी को रेणूरूपी निर्गुण का ही आधार है, निर्गुणसे ही लगाव है ; परंतु रेणु यह सभी से अलग और अचल है ।

विवेचन : रेणु स्वरूप में विद्यमान निर्गुण चैतन्य से ही अणुस्वरूप माया बढते-बढते दृष्टिपथ पर आती है । अपनी देह भी इस माया से ही निर्माण हुई है । इस देह में ये चार वाणियां (परावाणि, पश्यंतीवाणि, मध्यमावाणि एवं वैखरीवाणि) हैं । उनमें से परावाणी वैखरी में वेदों द्वारा प्रगट होती है । इसके साथ ही प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान, ये पंचप्राण एवं उनके उपप्राण, ऐसे दस प्राण भी निर्गुणरूपी चैतन्य द्वारा ही कार्य करते हैं; परंतु इन सभी का रेणुरूपी मूल जो निर्गुण, वह मात्र अचल एवं उससे भिन्न है ।

 

४. अधोमुखी कुंडलिनी को योग द्वारा
जागृत कर अपने अपने नियंत्रण में लेनेवाली योगियों को
उस रेणु के (आत्मर के) दर्शन होते हैं या नहीं ? यह समझ लेने से
मानवी लोगों को जन्म-मृत्यु के चौरासी योनियों में होनेवाला आवागमन बंद हो जाएगा !

सर्वांहूनी वेगळा । हाती कैसा येई ।
म्हणे मुक्ताबाई । सांग दादा ॥ १ ॥

दहा पवनांचा खेळ । योगी खेळती ।
ओढोनियां नेती । ब्रह्मांडात ॥ २ ॥

कुंडलिनी निवटोनि । करिती आकर्षण ।
रेणूचे दर्शन । झाले की नाहीं ॥ ३ ॥

म्हणे मुक्ताबाई । सांग ज्ञानेश्वरा ।
चुके येरझारा । चौरांशिंचीं ॥ ४ ॥

अर्थ : संत मुक्ताबाई कहती हैं, अरे दादा, तुम कहते हो कि वह (रेणु) इससे भिन्न है, अचल है, फिर हमारे हाथ में वह कैसे आएगा ? योगी लोग अपनी यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर में ये दस पवन रोककर अपने प्राण ब्रह्मांड में ले जाकर बिठाते हैं । कुंडलिनी, जो अधोमुखी है, उसे जागृत कर अपने नियंत्रण में लेते हैं । ऐसे योगियों को भी क्या उस रेणु के (आत्मा के) दर्शन हुए हैं या नहीं ? यह तुम बताओगे तो मनुष्य का जन्म-मृत्यु के चौरासी योनियों में से आवागमन बंद हो जाएगा ।

विवेचन : इन सर्व माया का रेणुरूपी निर्गुण मूलतत्त्व ढूंढने के लिए योगीजन यौगिक प्रक्रिया कर पंचप्राणों द्वारा मूलाधार में अधोमुखी स्थित कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर उसे ऊर्ध्वमुखी करते हैं और उसे नियंत्रण में लेकर उसे सहस्रार चक्र में स्थित करते हैं । ऐसे योगियों को भी ऐसी क्रिया द्वारा आत्मदर्शन होता होगा, तब मनुष्य को ऐसी क्रिया द्वारा आत्मदर्शन होकर वह जन्म-मृत्यु के फेरे से छूट सकेगा ?, ऐसा प्रश्न संत मुक्ताबाईं ने संत ज्ञानेश्वर से पूछा है ।

 

५. आत्मा की खोज के लिए, उनके दर्शन के लिए किसी भी
योगक्रिया की आवश्यकता न होकर वायु की गति गति बंदिस्त कर और कुंडलिनी
जागृत करने की भी आवश्यकता न होना, अपितु ये केवल गुरुकृपा से ही साध्य होना

कुंडलिनी निवटोनी । कोंडीती पवन । त्या रेणूचे दर्शन । घडले नाही ॥ १ ॥

न लगे आसन । कोेंडीती पवन । करावें साधन । गुरुकृपें ॥ २ ॥

गुरुकृपेविण । न ये तो हातासी । पाहतां रेणूशी । अंत नाही ॥ ३ ॥

ब्रह्मांडी रेणू । नांदे सदोदीत । सोहं त्याचा आंत । जात असे ॥ ४ ॥

दहा पवनी वेगळा । सोहं तो अचळ । रेणु त्याचा खेळ । सदोदित ॥ ५ ॥

ज्ञानदेव म्हणे । ऐक मुक्ताबाई । गुरुकृपेें सोई । कळो येई ॥ ६ ॥

अर्थ : संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, योगी कुंडलिनी जागृत करने के लिए इस पवन को रोकते हैं । प्राण ऊपर से नाभि तक लाते हैं एवं गुदद्वार से अपान वायु को नाभि तक लाकर उसके प्रभाव से अपनी कुंडलिनी जागृत करते हैं । इससे कुंडलिनी अधोमुख से ऊर्ध्वमुख होती है । वह सर्प जैसे तेजीसे (सुषुम्ना नाडीद्वारा) ब्रह्मांड में जाती है और आनंद देती है; परंतु इतना होने पर भी उन्हें उस आत्मा के दर्शन नहीं होते ।

वास्तविक आत्मा को ढूंढने के लिए, उसके दर्शन के लिए किसी भी योगक्रिया की आवश्यकता नहीं । वायु की गति बंदिस्त करना एवं कुंडलिनी जागृत करने की भी आवश्यकता नहीं । इसके विपरीत यह केवल गुरुकृपा से ही साध्य होता है । गुरुकृपा बिना आत्मा मिलना संभव नहीं । वैसे देखा जाए, तो ‘आत्मा अणोरणीयान् महतो महीयान् । अर्थात वह अणु से भी छोटी एवं महान से भी महान है । वह सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म एवं महान से भी महान है । उसका अंत नहीं । वह इस संपूर्ण ब्रह्मांड में रेणुद्वारा सदैव विद्यमान है । वही शरीर में सोहंद्वारा कार्य करती है । दस पवनों के अर्थात प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान, यह पंच प्राण एवं उनके पाच उपप्राण की अपेक्षा भिन्न ऐसी वह (आत्मा) अचल है । उसके अस्तित्व से ही यह सर्व खेल, जो दिख रहा है, वह शुरू है । अंत में ज्ञानेश्वर महाराज मुक्ताबाई से कहते हैं, हे मुक्ताबाई, यह सब तुम्हें गुरुकृपा से ही समझ में आएगा ।

विवेचन : योगीजन योगक्रिया द्वारा मूलाधारचक्र के स्थान पर अधोमुखी कुंडलिनी को प्राण एवं अपानद्वारा जागृत कर सुषुम्ना नाडीद्वारा सहस्रार में स्थित करते हैं । केवल इस क्रिया से आत्मा के दर्शन नहीं होते । गुरुकृपा बिना वह संभव भी नहीं । उसके लिए भाव चाहिए । इसके विपरीत योगक्रिया द्वारा मिली हुई ऋद्धिसिद्धि भी उपाधि ही होती है । (सिद्धियोंसे अहंकार बढता है ।) उसके लिए गुरुकृपा आवश्यक है । भाव जागृत रखकर अपने मन को भगवान के अनुसंधान में रखने से गुरुकृपा द्वारा सत्य समझ में आने से आत्मदर्शन होते हैं । इससे गुरुकृपा की महिमा ध्यान में आती है ।

– (संदर्भ : श्री गणेश अध्यात्म दर्शन, पृ. क्र. २०१ से २०३)

संत ज्ञानेश्वर महाराजजी ने स्वयं योगी होते हुए भी अपने बडे भाई निवृत्तीनाथ को अपना गुरु किया था । उन्होंने पंढरपुर के विठ्ठल को महत्त्व दिया । गुरू की सेवा में रहकर उन्होंने गुरू का महत्त्व विशद किया । संत मुक्ताबाई भी उच्च अवस्था को पहुंची होने से कथित संवाद से हमारे समान सामान्य लोगों को भगवान द्वारा निर्माण किए हुए जगत की वास्तविक स्थिति समझ में आई । इसके साथ ही गुरुमहात्म्य ज्ञात होने से प्रत्येक मानव को ईश्वरप्राप्ति हो सकती है, यह समझ में आया ।

इसके साथ ही संत ज्ञानेश्वर ने पसायदान में उनकी इच्छा आगे दिएनुसार व्यक्त की है । दुष्ट लोगों की प्रवृत्ति बदलकर वह सत्प्रवृत्त हो एवं संतों की बडी मात्रा में निर्मिति होकर सर्वत्र चैतन्य का निर्माण होकर सभी को आनंद मिले; सभी भगवान का नामस्मरण करते रहें । आज सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवले (प्रत्यक्ष विष्णु का अवतार) के रूप में संत ज्ञानेश्वर की इच्छा पूर्णत्व को आते हुए दिखाई दे रही है ।

हे ईश्वर, हे करुणाकर, हम प्राणीमात्र जीवों के उद्धार के लिए इस भूतल पर आप अवतरित हुए हैं । हम आपकी चरणों में शरण आए हैं । करोडों वर्षाें से चली आ रही यह गुरुशिष्य परंपरा आगे भी ऐसी ही अखंड चलती रहे एवं सभी को उसका लाभ हो, ऐसी आपके सुकोमल चरणों में प्रार्थना है !

– प.पू. परशराम पांडे, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (२७.७.२०१५)

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