संस्कृत भाषा धर्म जितनी ही समृद्ध है !

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संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित करने के लिए केंद्रीय शासन ने ख्रिस्ताब्द १९५० में संस्कृत आयोग स्थपित किया था । इस आयोग की अनुशंसाओं को तत्कालीन कांग्रेस शासन ने कार्यान्वित किया होता, तो आज संस्कृत की स्थिति अलग ही होती । वह भारत की एक प्रमुख, तथा अपने धर्म जैसी ही समृद्ध भाषा बनी होती । श्री. राजेश सिंह ने ‘द पायोनियर’ समाचार-पत्र के कुछ मास पूर्व प्रकाशित एक लेख में संस्कृत भाषा की पहले से हो रही अनदेखी उल्लेखित की है । हमारे पाठकों के लिए उसे यहां दे रहे हैं ।

 

१. संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों की आलोचना करनेवाले संस्कृतद्वेषी !

जब संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित करने का प्रयास होता है, तब उसे राजकीय रंग दिया जाता है । ऐसे प्रयासों को भगवाकरण करना, देश पर हिन्दुत्व थोपना, जातिवाद फैलाना आदि कहा जाता है । इसके अतिरिक्त शेल्डन पोलॉक जैसे हिन्दूद्वेषी इतिहास विशेषज्ञ (!) संस्कृत को पुनर्जीवित करना समय और धन का अपव्यय मानते हैं ।

संस्कृत सामाजिक एकाधिकार, ब्राह्मणवाद और रूढि-परंपराओं के बोझ से दबी एक मृत भाषा है, इन महानुभावों का ऐसा मत है । सामान्य जनता के नित्य व्यवहार में उसका प्रयोग नहीं होता था और वह केवल राजसभा और उच्चवर्ण ब्राह्मणों तक सीमित है, संस्कृतद्वेषी इस प्रकार का विष वमन करते रहते हैं । हिन्दी और अन्य प्रादेशिक भाषाओं ने नित्य व्यवहार में संस्कृत का स्थान लिया है, एक अर्थ से सत्य होने पर भी कुछ स्थानों में संस्कृत के प्रति विद्यमान जिज्ञासा ध्यान में ली, तो उसे मृत भाषा कहना युक्तिसंगत नहीं होगा ।

 

२. संस्कृत भाषा की अधोगति के लिए मुगल और ब्रिटिश के
उत्तरदायी होते हुए भी उस विषय में कुछ न बोलनेवाले तथाकथित साम्यवादी !

कहते हैं कि शेल्डन पोलॉक ने संस्कृत और संस्कृति के गहन अध्ययन में अपना जीवन व्यतीत किया है । तो भी उनका उपर्युक्त कथन उनकी साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप ही था । इस कारण हिन्दुओं के लिए उनके मत अति वेदनादायी सिद्ध हुए । उन्होंने वेद और रामायण जैसे ग्रंथों पर टिप्पणी करते हुए हिन्दू समाज में जिनका अस्तित्त्व है, उन जातिवाद और लिंगभेद की दृष्टि पर आधारित लेखन किया है ।

इसीलिए पोलॉक संस्कृत भाषा को श्रद्धांजलि अर्पित करने को अधीर हैं । इस दूषित दृष्टिकोण के कारण ही शेल्डन पोलॉक संस्कृत भाषा की अधोगति के लिए मुगल और ब्रिटिशों को, विशेषकर मेकॉले जैसों को उत्तरदायी नहीं मानते । वैसा किया होता, तो उससे प्रत्येक बात में हिन्दुओं को उत्तरदायी ठहराने के पोलॉक जैसे साम्यवादी विचारों में दरार पड गई होती !

 

३. तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों के हाथ में शिक्षा की डोर होना घातक !

विगत ६९ वर्षाें में इस दृष्टिकोण से संपूर्ण अथवा संतोषजनक प्रगति भी नहीं हुई, इसका दोष तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों पर ही आता है; क्योंकि उन्होंने आज तक केंद्र और राज्य स्तर पर शिक्षा क्षेत्र पर कडी पकड अपने हाथों में रखी है । भले ही वे सत्ता में हों अथवा न हों । साथ ही विख्यात शिक्षासंस्थाएं भी उन्हीं के हाथों में हैं ।

 

४. कांग्रेस शासन के अकर्तृत्व के कारण संस्कृत आयोग की अनुशंसाएं उपेक्षित !

भारतीय संस्कृति से अटूट संबंध होते हुए भी संस्कृत भाषा यद्यपि नित्य प्रयोग में नहीं है, तो क्या वह लैटिन अथवा ग्रीक जैसी मृत भाषा है, यह विषय सैद्धांतिक चर्चा का हो सकता है । तथापि अभी भी संस्कृत की जडें बहुत गहरी हैं, इसे मानना ही होगा । स्वातंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी संस्कृत ओजस्वी थी और ख्रिस्ताब्द १९५० में स्थापित संस्कृत आयोग का वृत्तांत पढें, तो संस्कृत जीवंत है, यह स्पष्ट होगा; किंतु तत्पश्‍चात कांग्रेस शासन की निष्क्रियता और धर्मनिरपेक्षतावादियों के निरंतर विरोध के कारण आयोग की अनुशंसाएं उपेक्षित रहीं ।

५. संस्कृत भाषा : प्रादेशिक भाषाओं के वाद पर अचूक उपाय !

तदनंतर ख्रिस्ताब्द १९५६-५७ में तत्कालीन शिक्षा और संस्कृति मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने एक और संस्कृत आयोग नियुक्त किया । उसका वृत्तांत पढकर मंत्रीजी को भी आश्‍चर्य हुआ कि अभी भी संस्कृत के अनुयायी और उसे पुनर्जीवित करने के लिए उत्सुकों की संख्या कई गुना थी ।

आयोग के एक विभाग की अध्यक्षा श्रीमती सुनीति कुमार चटर्जी ने आयोग के अध्यक्ष मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को पत्र लिखकर सूचित किया कि भाषाशास्त्र और समाजशास्त्र के विषयों में तज्ञ के रूप में मेरे ४० वर्ष के अनुभव के आधार पर मैं यह व्यक्त करना चाहती हूं कि संस्कृत भाषा भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता की नींव है । शिक्षा, जनसंपर्क तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में संस्कृत को पुनर्जीवित किया, तो केवल देश की एकता और अखंडता ही अबाधित रहेगी, ऐसा नहीं; अपितु उससे प्रादेशिक भाषाओं की अलगाववादी प्रवृत्तियों पर रोक लगेगी । संस्कृत के प्रति शेल्डन पोलॉक जैसी प्रवृत्तिवालों का विरोध ही स्पष्ट करता है कि यह विरोध केवल संस्कृत भाषा तक मर्यादित नहीं है, अपितु भारत की एकता और अखंडता के प्रति भी है ।

प्रादेशिक भाषा की अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढावा देने के प्रयासों का यह एक भाग है । उनके मत में संस्कृत भाषा भेदभाव और सामाजिक फूट डालती है । मोदी शासन ने संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, तो वह देश पर भगवाकरण थोपने का प्रयास होगा, धर्मनिरपेक्षतावादी ऐसा प्रचार कर रहे हैं ।

 

६. संस्कृत के बल पर विद्यार्थी चरित्रवान बनेंगे !

संस्कृत आयोग ने पाठशालाओं के स्तर पर संस्कृत भाषा के अध्ययन पर बल दिया है । इस प्रयास में केंद्रीय पाठशालाओं में जर्मन भाषा के स्थान पर संस्कृत पढाने का निर्णय लेने पर धर्मनिरपेक्षतावादियों ने जो चिल्ल-पों मचाई उसका स्मरण होता है । आयोग ने शासन को प्रस्तुत वृत्तांत में कहा है कि सामान्य शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान प्रदान करना है । इसलिए माध्यमिक पाठशालाओं के स्तर पर संस्कृत की शिक्षा विशेष विषय के रूप में स्वीकारना अनिवार्य है । इससे विद्यार्थियों में देश की प्राचीन संस्कृति तथा अपने पूर्वजों के साहित्य के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी । उनके मन और चरित्र पर सकारात्मक परिणाम होकर उनके शुद्ध ज्ञान में बढोतरी होगी । उन्हें पंडित बनाने का उद्देश्य न होने पर भी भावी पीढी सुसंस्कृत होगी । संस्कृत भाषा अनिवार्य करने से वह अप्रिय होगी, यह नासमझी है ।

कुछ बातों को अनिवार्य करना आवश्यक होता है । विद्यार्थियों की अपरिपक्व निर्णयक्षमता पर विषय का चयन नहीं हो सकता । भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् कहते थे कि विद्यार्थी जो चाहे वह पढे, यह शिक्षा का उद्देश्य नहीं हो सकता, अपितु उन्हें जो पढाया जा रहा है उनके लिए वही आवश्यक है, उनकी ऐसी मनोवृत्ति बनाना ही मुख्य उद्देश्य है ।

 

संस्कृत के शुद्ध उच्चारण से देवतातत्त्व जागृत करनेवाले श्‍लोक और मंत्र
तथा मानसिक स्तर पर उन्हें धुन देकर चैतन्यशून्य करनेवाले आजकल के गायक !

१. संस्कृत देवभाषा होने का कारण है उस भाषा में ब्रह्मांड के देवतातत्त्व जागृत करने की क्षमता !

महर्षि के बताए अनुसार श्रीविष्णुसहस्रनाम का पठन करते समय ध्यान में आया कि वेदपाठशाला के विद्यार्थी सम्बद्ध मंत्रों का पठन करते समय उस मंत्र के शब्दों पर योग्य बल देकर ही स्वर का उच्चारण करते हैं और मंत्र के स्वरों पर योग्य बल देने से देवता जागृत होते हैं । संस्कृत भाषा के शब्दों के योग्य तथा भावपूर्ण उच्चारण से ब्रह्मांड के देवताओं का तत्त्व जागृत होता है । संस्कृत भाषा में देवता तत्त्व जागृत करने का सामर्थ्य होने से उसे ‘देवभाषा’ कहते हैं; इसलिए सभी वेद संस्कृत में ही हैं ।

२. मानसिक स्तर की धुन पर मंत्रपठन से आध्यात्मिक स्तर पर लाभ न होने का कारण

आजकल कई गायक अपने स्वर में ऐसे संस्कृत स्तोत्रों का पठन कर अपनी ही बनाई धुन में उसकी श्रव्यचक्रिकाएं बनाते हैं; किंतु उनमें उतना चैतन्य नहीं रहता; क्योंकि उसमें योग्य उच्चारण और बल को महत्त्व नहीं दिया जाता । इसके अतिरिक्त ये मंत्र ऋषि-मुनियों ने जिस सुर में गढे, वैसे भी उच्चारित नहीं रहते । इस कारण मनोरंजन के लिए गाए इन स्तोत्रों से मानव को लाभ नहीं होता । मंत्र योग्य उच्चारण सहित ही बोलने चाहिए । इसके लिए भी जनजागृति करनी होगी !’

– (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ, तिरुवण्णामलई, तमिलनाडु.

 

देववाणी संस्कृत का अलौकिक सौंदर्य

संस्कृत भाषा के प्रत्येक शब्द का गर्भितार्थ रहता है । उस अर्थ को समझ लें, तो व्यवहार में उस जैसे अन्य शब्दों का वैसा ही प्रयोग क्यों किया जाता है, यह हमारी समझ में आ जाएगा । उदाहरण के लिए आगे के २ शब्द देखते हैं ।

 

१. दक्षिण

दक्षिण : सामान्यतः इस शब्द का अर्थ दक्षिण दिशा अथवा दाहिना ऐसा लिया जाता है । दक्षिण शब्द दक्ष धातु से (क्रियापद के मूल रूप से) बना है । दक्ष अर्थात बढना अथवा वृद्धि होना ।

‘दक्ष’ मूल शब्द से बननेवाले अन्य शब्द और उनके अर्थ

१ अ. दक्ष : प्रजापति – सृष्टि की वृद्धि करनेवाला ।

१ आ. दक्षिण : दाहिना – सामान्यतः सभी काम दाहिने हाथ से किए जाते हैं । इससे वृद्धि होती है ।

१ इ. दक्षिण : दिशा – दाहिनी दिशा । यहां वृद्धि शब्द का प्रत्यक्ष संबंध नहीं है, तो भी सूर्य की ओर मुख करके खडा रहने पर दाहिनी बाजु, इस अर्थ से दक्षिण दिशा शब्द बना है ।

१ ई. दक्षिणा : दान – देने से बढता है, इसलिए दक्षिणा ।

१ उ. प्रदक्षिणा : ईश्‍वर दाहिनी ओर रहें इस प्रकार चलना अथवा दाहिनी ओर गोल चक्कर लगाना

 

२. वाम

वाम : सामान्यतः बायां अथवा न्यून स्तर का, इसका ऐसा अर्थ लिया जाता है । इसमें मूल धातु है वा । वा अर्थात गति (जाना) अथवा गंध प्रदान करना अथवा प्रेरित करना । वा इस मूल शब्द से बननेवाले अन्य शब्द और उनके अर्थ

२ अ. वाम : बाईं ओर – दाहिनी ओर से कार्य होता है, तथा बायां भाग प्रेरणा देता है । सूर्य नाडी कार्य करानेवाली है, तथा चंद्र नाडी कार्य को प्रेरणा देनेवाली है । विश्‍व में अधिकतर मनुष्य दाहिने हाथ से कार्य करते हैं । मस्तिष्क का बायां भाग उन्हें प्रेरणा देता है । यह भाग प्रेरक होने से बाईं ओर को वाम कहते हैं ।

२ आ. वाम : उत्तर दिशा – दक्षिण दिशा की तुलना में उसके विरुद्ध दूसरी दिशा । दक्षिण के विरुद्ध दिशा में जाना, अर्थात उत्तर दिशा में जाना ।

२ इ. वामा : स्त्री – पुरुष के बाएं रहनेवाली । चंद्र नाडी के समान शांत रहनेवाली ।

२ ई. वायु अथवा वात : पवन – गति देनेवाला अथवा सर्वत्र गंध फैलानेवाला ।

– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२०.६.२०१७)

 

संस्कृत भाषा का तिरस्कार करनेवाले हिन्दुओं का घोर अधःपतन !

भारतीयों का प्राचीन वाङ्मय, अर्थात वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण; कालिदास और भवभूति आदि के संस्कृत नाटक, काव्य, रामायण, महाभारत आदि वाङ्मय और कला, जर्मनी को इनका ध्यास है; किंतु भारत के नेता, समाजकल्याणकर्ता, सुधारक ऐसे किसी को भी संस्कृत की गंध नहीं आती । Sanskrit is dead language अर्थात संस्कृत मृत भाषा है, ऐसा कहकर वे संस्कृत भाषा का तिरस्कार करते हैं, कितना घोर पतन !

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
संदर्भ : मासिक घनगर्जित, मार्च २०१३

 

अमृतवाणी संस्कृत का महत्त्व जानकर हिन्दू उससे लाभ लें, यह बतानेवाला सनातन का ग्रंथ !

देववाणी संस्कृत की विशेषताएं और संस्कृत को बचाने के उपाय

  • संस्कृत को हो रहा विरोध और उस के कारण
  • संस्कृत भाषा से होनेवाले विविध लाभ
  • विश्‍व की सभी भाषाओं को लजानेवाला संस्कृत का सौंदर्य
  • संस्कृत को सीमापार करनेवाले देशी राजकर्ता
  • संस्कृत की उपासना के मार्ग
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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