स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रमणिका

१. नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) की गुरुकृपायोगानुसार साधना के प्रयास

२. नरेंद्र की गुरुसेवा

३. ‘गुरु के लिए मठ बनवाना’, अर्थात व्यष्टि ध्येय से समष्टि ध्येय की ओर जाना

४. व्यष्टि ध्येय से समष्टि ध्येय की ओर जाना

५. गुरुकृपा से समष्टि और व्यष्टि ध्येय पूरा होना

६. स्वामी विवेकानंद का व्यष्टि साधना के ध्येयपूर्ति समारोह में व्यक्त मनोगत !

 

१. ‘गुरुकृपायोग’ आचरण में लाने हेतु स्वामी विवेकानंद के प्रयास

१ अ. नरेंद्र के घर की संपन्नता शीघ्रता से घटना, तो भी
सद्गुरु का कर्करोग बढने पर, चाकरी छोडकर पूरा समय उनके साथ रहना

स्वामी विवेकानंद का संन्यासी बनने से पहले का नाम ‘नरेंद्र’ था । जब नरेंद्र की गुरुप्राप्ति की लगन तीव्र हुई, तब उनके घर में बहुत कंगाली थी । युवावस्था में ही पिता का निधन होने से उनपर पूरे परिवार को पालने का दायित्व आया । पिता के निधन के उपरांत घर की संपन्नता शीघ्रता से घटने लगी । परिवार की दशा सुधारने के लिए नरेंद्र के पास चाकरी करने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था । अनेक प्रयास करने पर भी नरेंद्र को चाकरी नहीं मिल रही थी । परिवार में खानेवाले ६ लोग और घर में अन्न का एक दाना तक नहीं ! आगे जब दुकान से उधार मिलना भी कठिन हो गया, तब नरेंद्र सद्गुरु श्रीरामकृष्ण की शरण में गए । सद्गुरु की कृपा से उन्हें विद्यालय में अल्प वेतन की मुख्याध्यापकी की चाकरी मिली । नरेंद्र वह चाकरी जैसे-तैसे ४ महीने कर सके । पश्‍चात, जब सद्गुरु के गले का कर्करोग बहुत बढ गया, तब नरेंद्र को ‘घर-द्वार-परिवार’ की चिंता छोडकर सतत सद्गुरु के पास रहना पडा । इस प्रसंग में नरेंद्र माया के सारे बंधन तोडकर केवल गुरु की सेवा में उनके पास रहने लगे ।

स्वामी विवेकानंद के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस

१ आ. जिज्ञासु वृत्ति, सेवाभाव और सद्गुरु में दृढ निष्ठा के
कारण गुरुकृपा होना और उससे नरेंद्र का ‘सत्शिष्य’ पद पर शीघ्र आरूढ होना

इस अवधि में सद्गुरु ने उन्हें ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों और धर्मतत्त्व को मानवकल्याण के लिए घरेलू उदाहरणों के माध्यम से सुगम शब्दों में समझाया । नरेंद्र की जिज्ञासु वृत्ति, दृढता, समर्पितभाव से सेवा करने की वृत्ति और सद्गुरु में दृढ निष्ठा, इन गुणों के कारण श्रीरामकृष्ण परमहंस की उनपर कृपा हुई और वे ‘सत्शिष्य’ पद पर अति शीघ्र आरूढ हुए ।

गुरुकृपा से नरेंद्र का ‘सत्शिष्य’ पद पर अति शीघ्र आरूढ होना !

 

२. नरेंद्र की गुरुसेवा

२ अ. समर्पितभाव से गुरुसेवा का उत्तम उदाहरण

गुरुसेवा का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए ‘सत्शिष्य’ नरेंद्र ने सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस की उनके अंतिम जीवनकाल में अत्यंत समर्पितभाव से सेवा की । उनकी यह सेवा, पंद्रह गुरुबंधुओं के सामने गुरुसेवा का उत्तम उदाहरण थी ।

२ आ. सद्गुरु की रुग्णतावस्था में सहायता न कर पाने पर खेद होना

श्रीरामकृष्ण परमहंस गले के कर्करोग के कारण मरणासन्न अवस्था में थे । उस अवस्था में उन्हें निवास के लिए कहीं भी स्थान उपलब्ध न हो सका । अंतिम समय में उनका निवास काशीपुर उद्यान में खुले में था । उनसे अन्न का एक दाना भी निगला नहीं जा रहा था । उनका शरीर बहुत कृश हो गया था । ऐसी स्थिति में श्रीरामकृष्ण परमहंस ने एक दिन नरेंद्र से कहा, ‘तू मुझे कंधे पर बैठाकर अपनी इच्छानुसार कहीं भी ले जा । वह स्थान पत्तों की झोंपडी हो अथवा पेड के नीचे, मैं वहां रहूंगा ।’ सद्गुरु की इस अवस्था को देखकर नरेंद्र को बहुत दुःख हो रहा था और आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे । उन्हें खेद हो रहा था कि मैं अपने सद्गुरु के लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूं ।’

२ इ. ऐसा हुआ सद्गुरु श्रीरामकृष्ण का महानिर्वाण !

सद्गुरु श्रीरामकृष्ण के महानिर्वाण का दिन आया । १५ अगस्त १८८६ की उत्तररात्रि में १.०२ मिनट पर सद्गुरु ने देहत्याग किया । उस समय उनकी दृष्टि नासिका पर थी और मुख पर बालसुलभ मुस्कान । १६ अगस्त १८८६ को सायं ६ बजे जब श्रीरामकृष्ण का पार्थिव शरीर अग्निको समर्पित किया गया, उस समय वहां उपस्थित शिष्यगण दुःख न व्यक्त कर, भजन गा रहे थे । ‘श्रीरामकृष्ण की जय’ यह घोष करते हुए गंगातट पर स्थित वराहनगर/कोसीपोर श्मशान घाट पर श्रीरामकृष्ण परमहंस का अंतिम संस्कार किया गया ।

ऐसा हुआ सद्गुरु श्रीरामकृष्ण का महानिर्वाण !

 

३. ‘गुरु के लिए मठ बनाना’ इस व्यष्टि ध्येय की ओर गमन

३ अ. ‘गुरु-शिष्य’ परंपरा की रक्षा और सद्गुरु से प्राप्त ज्ञान का प्रसार
करने हेतु मठ की स्थापना हो, इस उद्देश्य से नरेंद्र का खुले मैदान की ओर एकटक देखना

विचारमग्न नरेंद्र, नदी के पार स्थित विस्तृत पडती भूखंड को देखते हुए खडे थे । ‘अपने सद्गुरु को उनके अंतिम समय में निवासस्थान उपलब्ध न करा सका’, यह बात उन्हें निरंतर चुभ रही थी । ‘गुरु-शिष्य परंपरा की रक्षा हेतु और सद्गुरु से मिले ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए तथा सद्गुरु के लिए स्थायी निवास बने’, इस उद्देश्य से नरेंद्र मठ बनवाना चाहते थे । इसी दृष्टि से वे उस विस्तृत पडती भूमि की ओर एकटक देख रहे थे ।

३ आ. सद्गुरु के लिए मठ बन जाने तक उनका अस्थिविसर्जन न
करने की प्रतिज्ञा कर, गुरु की अस्थियां एक भक्त के जीर्ण घर में सुरक्षित रखना

मठ की स्थापना करने का उद्देश्य पूरा होने के लिए उन्होंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की, ‘जबतक गुरु के लिए मठ नहीं बनता, तबतक मैं उनका अस्थिविसर्जन नहीं करूंगा ।’ तदनुसार उन्होंने सद्गुरु के पार्थिव शरीर की दहनक्रिया के उपरांत उनका अस्थिकलश वराहनगरस्थित श्रीरामकृष्ण के एक भक्त के टूटे-फूटे घर (वर्तमान में वराहनगर स्थित मठ) में रखा । नरेंद्र के जीवन में सुनिश्‍चित अनेक व्यष्टि ध्येयों में यह पहला और प्रमुख था ।

३ इ. सर्वस्व त्याग के लिए तत्पर अनेक यूरोपीय अनुयायी मिलने पर स्वामी
विवेकानंद का ‘गुरु के लिए मठ बनवाना’ इस व्यष्टि ध्येय की दिशा में अग्रसर होना

‘सत्शिष्य’ के नाते जब ‘स्वामी विवेकानंद’ ने सद्गुरु से प्राप्त ज्ञानरूपी धरोहर के माध्यम से ‘सनातन हिन्दू धर्म’ का तेज संपूर्ण विश्‍व में फैलाया, तब स्वाभाविक ही उन्हें अनेक यूरोपीय अनुयायी सर्वस्व त्याग कर गुरुकार्य से जुडने के लिए शिष्यरूप में मिले । इससे, ‘गुरु के लिए मठ बनवाना’ इस व्यष्टि ध्येय का ‘एक महत्त्वपूर्ण चरण पूरा होगा’, यह विवेकानंद के दृष्टिपथ में आया ।

३ ई. बेलूर गांव के गंगातट पर स्थित अत्यंत रमणीक स्थान में मठ बनवाना निश्‍चित होना

बेलूर गांव में गंगातट पर स्थित ७ एकड पडती भूमि विवेकानंद के मन को पहले से भा गई थी । वह भूमि डूबक्षेत्र में नहीं पडती थी तथा नदी तट पर होने के कारण वृक्षों-वनस्पतियों से सुशोभित भी थी । वहां एक कोने में एक पुराना भवन भी था । स्वामीजी ने निश्‍चित किया कि इस पुराने भवनको अस्थायी रूप से रहनेयोग्य बनवाने के पश्‍चात वहां की विस्तीर्ण भूमि पर मठ बनवाना आरंभ करना है ।

बेलूर गांव के मठ का रमणीक परिसर

३ उ. स्वामीजी के विदेशी अनुयायियों की मठनिर्माण में लगी धनराशि
शिष्याओं का धन अर्पण अभियंता हरिप्रसन्न का मठ बनाने का दायित्व स्वीकारना

स्वामीजी की विदेशी शिष्या कु. हेन्रिएटा मूलर ने मठ की भूमि क्रय करने के लिए ३९ सहस्त्र रुपए स्वामी जी के चरणों में अर्पित किए और दूसरी विदेशी शिष्या श्रीमती ओलि बुल ने निर्माणकार्य के लिए ६० सहस्त्र रुपए देने का वचन दिया । इस प्रकार, गुरुकृपा से लगभग १ लाख रुपए की व्यवस्था मठनिर्माण के लिए हो गई । उसी अवधि में सद्गुरु श्रीरामकृष्ण के अभियंता शिष्य हरिप्रसन्न अपने पद का त्यागपत्र देकर ‘श्रीरामकृष्ण मिशन’ में भरती हुए । स्वामीजी ने उन्हें ब्रह्मचारी पद की दीक्षा देकर, नामकरण ‘स्वामी विरजानंद’ किया और उन्हें मठनिर्माण का दायित्व सौंपा ।

 

४. व्यष्टि ध्येय से समष्टि ध्येय की ओर चल पडना

४ अ. मठनिर्माण आरंभ करते समय कोलकाता में ‘प्लेग’ नामक
महामारी से लोगों के मरने पर व्यष्टि और समष्टि ध्येय की पूर्ति में बाधा आना तथा
गुरु की शिक्षा का स्मरण कर आपदा के समय व्यष्टि ध्येय से अधिक समष्टि ध्येय को महत्त्व देना

स्वामी विवेकानंद ने बेलूर मठ के निर्माण की पूरी व्यवस्था की । वे निर्माणकार्य आरंभ करने के विषय में विचार कर ही रहे थे कि सामने धर्मसंकट उपस्थित हो गया । यह संकट उनके लिए परीक्षा की घडी थी । उस समय कोलकाता में ‘प्लेग’ की महामारी उग्र रूप ले चुकी थी । इस संक्रामक रोग से आसपास के मनुष्य झट-पट मर रहे थे । इसलिए, स्वामीजी के सामने प्रश्‍न खडा हुआ कि इस परिस्थिति में मैं गुरु के लिए मठ बनवाऊं अथवा गुरु की सीख, लोगों की सेवा, के अनुसार सामाजिक कार्य में लगूं ?’ । इस आपदा में स्वामी विवेकानंद ने जब चिंतन किया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि ‘गुरु की अपेक्षा गुरू का कार्य करना सदैव श्रेष्ठ है ।’ इसलिए, उन्होंने गुरु के लिए मठ बनवाने का विचार छोड दिया ।

४ आ. स्वामी विवेकानंद ने गुरुबंधुओंको साथ लेकर संक्रामक रोग ‘प्लेग’ से पीडित लोगों की सेवा आरंभ की।

उन्होंने आपदा में गुरुकार्य, अर्थात् ‘जनताजनार्दन की सेवा !’ इस समष्टि ध्येय को अधिक महत्त्व देने का निर्णय लिया और गुरुबंधुओं को साथ लेकर इस कार्य में स्वयं को अर्पित कर दिया । इसमें रोगियों की सेवा कैसे करें, गांव के बाहर छावनी कैसे बनाएं, औषधियां, वस्त्र आदि कैसे पहुंचाएं, ऐसी समस्याओं की ओर स्वामीजी ने ध्यान दिया और गुरुबंधुओं को साथ लेकर संक्रामक रोग ‘प्लेग’ से पीडित लोगों की सेवा की ।

४ इ. समष्टि कार्य के लिए लगनेवाली अतिरिक्त निधि पर गुरुबंधुओं के
प्रश्‍न उठाने पर मठ के लिए मिली भूमि बेचकर धन की व्यवस्था करनेके लिए कहना तथा
‘संन्यासियों का भोजन भिक्षा मांगकर और विशाम वृक्ष के नीचे होना चाहिए’, यह बोध उन्हें कराना

स्वामीजी का यह समष्टि कार्य केवल व्यापक नहीं, अपितु वह प्रतिदिन बढता जा रहा था । तब सबके ध्यान में आया कि भविष्य में योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने में क्षमता से अधिक व्यय होगा । उस समय गुरुबंधुओं ने स्वामीजी से प्रश्‍न किया, ‘इस कार्य में लगनेवाली अतिरिक्त निधि कहां से लाएंगे ?’ इसपर स्वामीजी ने तुरंत कहा, ‘क्यों ? मठ के लिए अभी-अभी क्रय की गई भूमि हमारे पास है न ? उसे बेचकर हम आवश्यक निधि जुटा सकते हैं !’ लौकिक दृष्टि से हम कितना भी बडा दिखाई देंं, हैं तो संन्यासी ही । इसलिए, हमारा भोजन भिक्षा मांगकर और विशाम वृक्ष के नीचे होना चाहिए !’

४ ई. सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस का स्वामीजी के अंतःकरण में
सहायता के लिए समाज को आवाहन करने की प्रेरणा उत्पन्न करना और उसके अनुसार
स्वामीजी का भाषण जनसमुदाय के सामने होने पर कार्य के लिए बहुत बडा जनसमर्थन मिलना

जब स्वामीजी ने निधि जुटाने के लिए गुरु के मठ की भूमि बेचने का साहसी निर्णय लिया, तब उनकी ओर बडी मात्रा में गुरुकृपा का प्रवाह आकृष्ट हुआ जिससे उन्हें मठ की भूमि नहीं बेचनी पडी । उस समय सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने समाज से सहयोग प्राप्त होने के लिए स्वामीजी के अंतःकरण में समाज का आवाहन करने का विचार डाला । तदनुसार स्वामीजी ने तुरंत एक भाषण कर, वहां उपस्थित जनसमुदाय से कार्य में सहायता के लिए आग्रह किया । उनके इस भाषण से लोग बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने यथाशक्ति दान किया, जिससे आवश्यक धनराशि की व्यवस्था हो गई ।

 

५. गुरुकृपा से समष्टि और व्यष्टि दोनों ध्येय पूरा होना

५ अ. स्वामी विवेकानंद के समयानुकूल उचित निर्णय से ‘समष्टि
ध्येय’ साध्य करते समय गुरुकृपा के कारण ‘व्यष्टि ध्येय’ भी साध्य होना

स्वामी विवेकानंद ने समय के अनुकूल जो अचूक निर्णय लिया, उससे ‘समष्टि ध्येय’ तो साध्य हुआ ही, कार्य के लिए आवश्यक धन की चिंता भी मिट गई । इसके अतिरिक्त, व्यष्टि ध्येय की पूर्ति में आयी बाधा अर्थात् बेलूर मठ का रुका निर्माणकार्य भी अल्प समय में पूरा हुआ । इस प्रकार स्वामी विवेकानंद अपने दोनों ध्येय गुरुकृपा के बल पर एक साथ साध्य कर सके ।

बेलूर मठ

५ आ. स्वामी विवेकानंद को व्यष्टि ध्येयपूर्ति के अवसर पर गुरुऋण से अंशतः मुक्त होने का आनंद होना

अंत में स्वामीजी के जीवन का व्यष्टि ध्येय साध्य होने का मंगलमय दिन आया । वह दिन था, ९ दिसंबर १८९८ । इस दिन स्वामीजी ने प्रातः गंगास्नान कर भवन के पूजास्थान में जाकर पूजा के आसन पर बैठे । पश्‍चात, फूलों की डोलची से फूल और बेलपत्र अंजलि में लेकर सद्गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस के पादपद्मों में अर्पित किया और थोडे समय के लिए ध्यानमग्न बैठे रहे ।

५ इ. स्वामी विवेकानंद का ताम्रकलश में रखी सद्गुरु की अस्थि को दाहिने
कंधे पर रखकर संन्यासियों और शिष्यगणों के साथ नए मठ की ओर वाद्य बजाते
हुए जाना और उस समय गंगातट की भूमि भी उस ताल पर नृत्य कर रही है, ऐसा लगना

कितना अभूतपूर्व दृष्य था वह ! उस समय संपूर्ण मंदिर एक अलौकिक प्रकाश आलोकित हो रहा था । पूजा और ध्यान पूरा होने पर विवेकानंद दूसरे संन्यासियों और शिष्यों के साथ नूतन मठ में प्रवेश करने की तैयारी करने लगे । सद्गुरु का अस्थिकलश दाहिने कंधे पर लेकर स्वामीजी गंगातट की ओर चल पडे । तब, अन्य संन्यासी और भक्तमंडली शंख, घंटा, करताल, मृदंग बजाते हुए उनके साथ नूतन मठ की ओर चल पडे । ‘इस ध्वनि से वहां का वातावरण गूंज उठा और सबको ऐसा लगने लगा जैसे वहां की भूमि उस ताल पर नृत्य कर रही है ।’

५ ई. सद्गुरु को अस्थिकलश के स्वरूप में अपने कंधे पर लेकर नूतन मठ में जाना और पूर्व
में कहे उनके वचन,‘अपनी इच्छा के अनुसार कंधे पर बैठाकर कहीं भी ले जाओ’, का स्मरण होना

इस आनंदमय और मंगलमय अवसर पर स्वामीजी ने अपने साथ के एक शिष्य को सद्गुरु से हुई बातचीत बताई । वे बोले, ‘सद्गुरु ने मुझसे एक बार कहा था, ‘‘तुम मुझे अपने कंधों पर बैठाकर अपनी इच्छा से जहां ले जाओगे, वहां रहूंगा, चाहे वह स्थान घास-फूस की झोंपडी हो अथवा पेड के नीचे की भूमि ।’’ उनकी कृपा से आज मैं उन्हें अस्थिकलश के रूप में अपने कंधों पर बैठाकर नूतन मठ में ले जा रहा हूं ।’

५ उ. श्रीरामकृष्ण परमहंस के अस्थिकलश का नूतन मठ में पूजन होना

बेलूर मठ के नए भवन में पहुंचने पर स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण परमहंस का अस्थिकलश उचित स्थान पर रखा । वहां उन्होंने अपने हाथों से उस अस्थिकलश का पूजन किया । तत्पश्‍चात, उन्होंने अपने हाथों से पायस (खीर) बनाकर श्रीरामकृष्णजी को भोग लगाया । अंत में, साष्टांग प्रणिपात कर, श्रीरामकृष्णजी के चरणों में मन-ही-मन कृतज्ञता व्यक्त कर, इस मंगलमय अवसर पर वहां उपस्थित जनसमुदाय को अपनी सारगर्भित वाणी से संबोधित किया ।

 

६. स्वामी विवेकानंद का व्यष्टि ध्येयपूर्ति के आनंदोत्सव में व्यक्त मनोगत !

स्वामी विवेकानंद ने व्यष्टि ध्येयपूर्ति के उपलक्ष्य में आयोजित आनंदोत्सव में आगे दिए अनुसार मनोगत व्यक्त किया ।

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