भगवान श्रीराम संबंधी आलोचनाएं अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन

खंडन करनेका उद्देश्य

विश्वके आरंभसे भूतलपर विद्यमान सनातन वैदिक (हिंदू) धर्म, हिंदुओंके धर्मग्रंथ, देवता, धार्मिक विधियां, अध्यात्म आदिकी अनेक जन आलोचनाएं करते हैं । अनेकोंको यह आलोचना उचित लगती है, जबकि अनेकोंको ‘विषैली’ लगती है । तब भी, वे इन आलोचनाओंका मुंहतोड उत्तर नहीं दे पाते । कभी-कभी कोई विद्वान अथवा अभ्यासी भी अज्ञानवश अथवा अनजानेमें अनुचित विचार प्रस्तुत करते हैं ।

ऐसे सभी अनुचित विचार और दूषित आलोचनाओंका उचित प्रतिवाद न करनेके कारण हिंदुओंकी धर्मश्रद्धा डगमगा रही है । इससे धर्महानि हो रही है । इस धर्महानिको रोकने हेतु हिंदुओंको बौद्धिक बल प्राप्त होनेके लिए, व्रतोंके संबंधमें अनुचित धारणा और आलोचनाओंका खंडन आगे दे रहे हैं ।

 

श्रीरामंसंबंधी आलोचना अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन

१. श्रीरामके चरित्रका हनन करनेवाले जैन एवं बौद्धोंके मत तथा उनका खंडन

‘कुछ हिंदूद्वेषी अपने पंथका प्रसार-प्रचार कर अपना मत प्रस्थापित करनेके उद्देश्यसे हिंदू धर्म एवं उसके आदर्शोंपर प्रहार करनेका कार्य पूर्वकालसे ही कर रहे हैं । इसी कारण अपने मतके अनुसार अनुचित रूपसे रामायण लिखकर उन्होंने हिंदुओंके आदर्श श्रीरामपर द्वेषमूलक वक्तव्य किए हैं । मूलतः रामायणका संदर्भ निश्चित करनेका प्रश्न उद्भव होनेपर अन्य किसी भी रामायणकी अपेक्षा मूल श्रीवाल्मीकि रामायणका संदर्भ ही अंतिम होनेके कारण उनके द्वारा की गई आलोचनाओंके संदर्भमें उसमें क्या दिया है, यह देखना आवश्यक है । इसलिए श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता जैसे आदर्शोंके विषयमें किए गए द्वेषमूलक वक्तव्य एवं उसका झूठ स्पष्ट करनेवाले श्रीवाल्मीकि रामायणके संदर्भ आगे दिए हैं ।

१ अ. आलोचना : कहते हैं, राम एकपत्नीव्रती नहीं थे !

रामकी ८ सहस्र एवं लक्ष्मणकी १६ सहस्र पत्नियां थीं ।

खंडन :

जैनियोंने रामायणका इतना भयावह विकृतीकरण किया है कि जिसकी कोई सीमा नहीं ।

अ. ‘एकपत्नीव्रतपर ही रामका पूर्ण विश्वास है ।

आ. रामके एकपत्नीव्रतकी महिमा कितनी और कैसे वर्णित करें ? (श्रीवाल्मीकिरामायण, अयोध्याकांड, सर्ग ६६, श्लोक ४०)

इ. सीता बार-बार स्थिरानुराग रामकी महिमाका गान करती है । (श्रीवाल्मीकिरामायण, अरण्यकांड, सर्ग ८, श्लोक ४)

ई. कैकेयी आत्मविश्वाससे कहती है,

न रामः परदारांश्च चक्षुर्भ्यामपि पश्यति । – श्रीवाल्मीकिरामायण, अयोध्याकांड, सर्ग ६६, श्लोक ४०

अर्थ : राम परस्त्रीकी ओर कभी भी आंख उठाकर नहीं देखता ।

उ. एक प्रसंगमें राम स्वयं कहते हैं,

अन्यत् सीतां विनाऽन्या स्त्री कौशल्यासदृशी मम ।
न क्रियते परापत्नी मनसाऽपि न चिन्तये ।।

१ आ. आलोचना : ‘राम एवं लक्ष्मण दोनों सीतासे विवाह करते हैं’ ।

अर्थ : सीताके अतिरिक्त पृथ्वीकी अन्य स्त्रियां मेरे लिए माता कौसल्यासमान हैं । परस्त्री का मैंने मनसे कभी चिंतन नहीं किया और करूंगा भी नहीं ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (१)

ऊ. ‘वनवासकालमें पत्नी निकट रहकर भी राम व्रतस्थ रहे और सुंदर रूप धारण कर आई राक्षसी शूर्पणखाको उन्होंने मना कर दिया । तदुपरांत शूर्पणखाने लक्ष्मणसे पूछा, उसने भी मना किया और उसकी नाक काटकर उसे अच्छा पाठ पढाया । १४ वर्षोंके वनवासमें लक्ष्मणने भी रामके साथ व्रतस्थ रहकर उनकी सेवा की ।

ए. वनवासके उपरांत राजा बननेपर राज्यकर्तव्यके कारण श्रीरामने अत्यंत प्रेमपात्र सीताको त्याग दिया; परंतु तदुपरांत उनके विरहमें वैराग्यपूर्ण जीवन ही जीए । ‘यज्ञके समय सीताकी स्वर्णप्रतिमा स्वयंके पास रखकर यज्ञ किया’, ऐसा स्पष्ट उल्लेख श्रीवाल्मीकि रामायणमें राम-लक्ष्मणके विषयमें दिया गया था, तब भी ‘रामकी ८ सहस्र और लक्ष्मणकी १६ सहस्र पत्नियां थी’, ऐसा रामायणका विकृतीकरण करनेवालोंकी बुद्धि कितनी नीचतम है, यह दिखाई देता है ।’

– प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

 

दुष्प्रचार कर सीता माताके पतिव्रत धर्मपर कीचड उछालनेवाली बौद्ध रामायण !

आलोचना

‘राम एवं लक्ष्मण दोनों सीतासे विवाह करते हैं ।’ – बौद्ध परंपराकी ‘खोतानी रामायण’

खंडन

‘जब रामका विवाह सीतासे हुआ, उसी समय लक्ष्मणका विवाह उर्मिलासे हुआ । (संदर्भ : श्रीवाल्मीकिरामायण, बालकांड, सर्ग ७३, श्लोक २४ से ३९) राम-लक्ष्मण दोनों वनवासके समय व्रतस्थ थे और वे शूर्पणखाके प्रलोभनमें भी नहीं आए । इस कारण ‘राम-लक्ष्मण दोनों (पतिव्रता) सीतासे विवाह करते हैं’, इस वक्तव्यसे टीकाकारकी द्वेषमूलक बुद्धि ध्यानमें आती है ।’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

१ इ. रावणवधके उपरांत रामको पश्चाताप हुआ, ऐसा कहनेवाले बौद्धों एवं जैनियोंके ग्रंथ !

आलोचना

‘जैनियोंने रामायणमें युद्धके उपरांत रामको अनुताप हुआ, यह दिखाया है । पापक्षालन करनेके लिए वे जैनदीक्षा लेते हैं । प्रायश्चित करते हैं तथा तीर्थंकरोंकी कृपासे आगे मुक्त होते हैं, ऐसा भाग भी दिया है । ‘राम कहते हैं, “मैं महापापी हूं ।’’ रावण, कुंभकर्ण एवं अन्य सहस्रों राक्षसोंके वधसे रामको पश्चात्ताप हुआ ।’ – कौसल्यायन बौद्ध भिक्षु एवं जैन धर्मीय

खंडन

`कौसल्यायन बौद्ध भिक्षु है । पूर्वमें हिंदू, तदुपरांत वह बौद्ध भिक्षु बना । उसने `राम की कथा’ यह पुस्तक लिखी । इसके प्रत्येक परिच्छेदमें उसने निंदाजनक टीकाएं कीं । रामायणको, अर्थात एक प्रकारसे हिंदू धर्म एवं संस्कृतिको अधम सिद्ध करने हेतु उसने यह पुस्तक लिखी है । वाल्मीकि रामायणके समीक्षणमें वह प्रत्येक श्लोकपर टूट पडता है । कहीं वह मनमाना अर्थ निकालता है, कहीं श्लोक प्रक्षिप्त (बादमें घुसाया भाग) सिद्ध करता है, तो कहीं अर्धश्लोक लेकर सहेतुक न रहनेवाला अर्थ परिवर्तित करता है ।
अ. रामने केवल रावणके शरीरका वध नहीं किया, अपितु उसकी दुष्ट वृत्तिका नाश किया है; क्योंकि इसके पूर्व अंगदको भेजकर रामने रावणको सूचित किया था । इतना ही नहीं; अपितु उसके अपने भाई और पत्नीने भी उसे सचेत किया था । इसलिए इस अवसरपर उसे पश्चाताप होनेका प्रश्न ही नहीं है ।

रामायणको कलंकित करनेके लिए ही क्यों न हो, कौसल्यायनने रामायणका अध्ययन किया । रामचरित्र पढते-पढते उसकी बुद्धि थोडी व्यवस्थित होती है । इसलिए उसने सीतादेवीके निर्मल चरित्रका यथावत वर्णन किया । सीताका अग्निप्रवेश स्वीकारा। ‘साक्षात अग्निदेवने मूलस्वरूपमें सीता रामको सौंपी’, ये सब वह मान गया । यहां किसी कुतर्कके, दुःतर्कके जाले नहीं बुने । अर्थात ‘कोई मानव अग्निमें प्रवेश कर जीवित बाहर कैसे आ सकता है ? अग्नि मूर्तिमान देवता कैसे हो सकती है ? वह अग्नि सीताको कैसे समर्पित कर सकती है’, ऐसा मूर्ख प्रश्न प्रकट नहीं किया, यही हमारा भाग्य है !’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी, अहमदनगर, महाराष्ट्र. (२)
आ. ‘बौद्ध एवं जैन धर्मियोंने अपने धर्मकी श्रेष्ठता दिखानेके लिए रामायणकी कथामें परिवर्तन किया है । त्रेतायुगीय रामके कालमें ये दोनों धर्म अस्तित्वमें थे क्या ? उनके अस्तित्वके विषयमें किसी रामायणमें उल्लेख नहीं ।’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

संदर्भसूची
घनगर्जित (मराठी साप्ताहिक), प्रकाशक – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी समस्त वाङ्मय प्रकाशन. प्रकाशनस्थल : गुरुदेव आश्रम, मु.पो. वडाळामहादेव, ताल्लुका श्रीरामपुर, जनपद अहमदनगर, महाराष्ट्र ३९. अंक – अक्टूबर २००९ (१, २)

संदर्भसूची
घनगर्जित (टिप्पणी १) (१) अंक – अक्टूबर २००९
साप्ताहिक सनातन चिंतन (टिप्पणी १) (२, ३) १.११.२००७
टिप्पणी १ – प्रकाशक – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी समस्त वाङ्मय प्रकाशन. प्रकाशनस्थल : गुरुदेव आश्रम, मु.पो. वडाळामहादेव, ताल्लुका श्रीरामपुर, जनपद अहमदनगर, महाराष्ट्र ४१३ ७३९.

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