गोवा की लोकवाद्य परंपरा : एक झलक

गोवा के विविध संगीत प्रकार और उसके लिए उपयोग में आनेवाले वाद्यों द्वारा इतिहास की समीक्षा की जा सकती है । किसी भी समाज का संगीत जीवन, उस समाज के वास्तविक जीवन के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के घटकों से पूर्णरूप से संलग्न होता है । मनुष्य जीवन का दृष्टिकोण उस समाज की संगीत परंपराओं से आंतरिक प्रक्रिया से जुडा होता है । उसके कारण मानववंशशास्त्र (anthropology ) की दृष्टि से लोकपरंपरा से उत्पन्न वाद्यों का बहुत महत्त्व होता है । वाद्यों की बनावट, वादनपद्धति और उस दृष्टि से किए जानेवाले यातुविधियों का अध्ययन मानववंशशास्त्र के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है । गोवा के लोकवाद्यों पर एक दृष्टि डालते समय एक बात गंभीरता से प्रतीत होती है कि यहां की लोकशैली के अधिकांश संगीत प्रकार और वाद्यों पर दक्षिण भारतीय परंपरा का अधिक प्रभाव दिखाई देता है । अर्थात यह स्वाभाविक है; क्योंकि गोवा दक्षिण भारत की अनेक राजसत्ताओं के नियंत्रण में था ।

भारत के पश्‍चिमी तट पर बसा गोवा राज्य संस्कृति की विविध परंपराएं प्राप्त एक मोहक प्रदेश है । गोमंतकभूमि में राज्य की राज्यव्यवस्थाओं ने अपने सांस्कृतिक चिन्ह पीछे छोडे । उनमें से कुछ विलुप्त हो गए, तो कुछ विस्मरण में चले गए और कुछ गोमंतकीय संस्कृति के अभिन्न अंग बनकर रह गए । कला प्रकारों के माध्यम से संस्कृति के विविध रूप अभिव्यक्त होते हैं । उसके कारण विविध कलाओं के माध्यम से गोमंतकीय संस्कृति द्वारा स्वीकार्य इतिहास के पदचिन्ह दिखाई देते हैं । गोमंतकभूमि में विविध संगीत प्रकार एवं उसमें उपयोग किए जानेवाले वाद्यों के इतिहास की समीक्षा भी की जा सकती है ।

गोवा के वाद्यों का विचार करते हुए उसमें लयवाद्य, स्वरवाद्य तथा स्वतंत्ररूप से बजाए जानेवाले वाद्यों का सर्वांगीण विचार करना पडता है । उनमें कुछ स्वतंत्र, तो कुछ साथसंगतवाले वाद्य हैं । कुछ वाद्यवृंद हैं, जो देवालय और चर्च आदि स्थानों पर बजाए जाते हैं । इन वाद्यों का मूलगामी विचार करते समय मनुष्य शरीर को ही प्राचीन वाद्य कहा गया है । उसके लिए ‘दैवी वीणा’ शब्द का प्रयोग किया गया है । इस कल्पना के कारण ही वाद्यों के विविध भागों को सिर, मुंह, उदर, दंड आदि नाम मिले होंगे । भारतीय वाद्यों की प्राचीन परंपरा वेदकाल से है । उस समय में भी विशिष्ट प्रसंगों के समय विशिष्ट वाद्य बजाने की परंपरा थी । गुह्यसूत्र में विवाह के समय ‘बाण’ पद्धति का वाद्य बजाने के लिए कहा गया है । विवाहपूर्व विधियों के समय सुहागिन महिलाओं द्वारा ‘नंदी’ वाद्य, महाव्रत के समय उद्गाता द्वारा शततंत्री वीणा और उसके साथ यज्ञ करनेवाले यजमान की पत्नी काण्डवीणा (तंत्रवीणा) और पिच्छारा वाद्य बजाती थीं । आज भी इस परंपरा को प्रतीकात्मक पद्धति से संजोया गया है ।

आज के समय में शास्त्रीय संगीत की अपेक्षा लोगसंगीत, धार्मिक संगीत और उत्सवों में अनेक वाद्यों का उपयोग किया जाता है । गोवा में अधिकाधिक प्रचलित और अप्रचलित वाद्यों पर यह एक झलक !

 

घुमट

घुमट

घुमट नामक लोकवाद्य विशेषरूप से गोवा और उसकी सीमा से सटी महाराष्ट्र के तट (कोंकणपट्टी), साथ ही कर्नाटक (दक्षिण एवं उत्तर कर्नाटक जनपद) और केरल के कोंकणीभाषी प्रांतों में उपयोग किया जाता है । यह वाद्य गोवा में अत्यंत लोकप्रिय है । इस वाद्य की रचना और वादनपद्धति ऊपर से भले ही सरल लगती हो; परंतु इसकी तालनिर्मिति क्लिष्ट है । २ भिन्न व्यासवाले मुखोंवाला मिट्टी का घडा कुम्हार से बनाकर लिया जाता है । इसमें बडे मुख का व्यास लगभग २० सें.मी., तो छोटे मुख का व्यास १०-१२ सें.मी. होता है । बडे मुख पर गोह (बडी छिपकली समान) की चमडी को तानकर बिठाया जाता है । उसके लिए वनस्पति की चीक (चिपचिपा पदार्थ) अथवा गोंद से चिपकाकर, उस पर मूंज की रस्सी को कसकर उसे छाया में सुखाया जाता है । दोनों मुखों पर रस्सी पिरोकर घुमट को कंधे पर लटकाकर उसे बजाया जाता है । बजाते समय दाहिने हाथ से चमडी पर हाथ मारकर ध्वनि निकाली जाती है । बाएं हाथ को छोटे मुख पर रखकर हवा के दबाव को नियंत्रित कर वादन किया जाता है । यह वाद्य स्वतंत्ररूप से भी बजाया जाता है । उसके लिए शामेळ, जोड शामेळ अथवा म्हादळे इनमें से किसी एक वाद्य को साथसंगत के लिए लिया जाता है । घुमटवादन ग्रामीण क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय होता है । पूजा-अर्चना, गणेश चतुर्थी, होली, त्योहार, उत्सव, मेले और जागरणों के समय घुमटवादन किया जाता है । शास्त्रीय पद्धति से किए जानेवाले वादन को सुंवारीवादन, चंद्रावल, फाग, खाणपद और आरतियां ऐसे नाम हैं; परंतु इस वादन में घुमट भले ही मुख्य वाद्य हो; परंतु शामेळ और कासाळे ये वाद्य संगत में होते हैं । गायक गीत  गाते हैं और साथ में वाद्यवादन किया जाता है । अनेक लोकनृत्यों की साथसंगत के लिए घुमटवादन के विविध प्रकार सुनिश्‍चित किए गए हैं ।

 

पखावज

पखावज मृदंग, पखावज एवं तबला

गोवा के मंदिरों में चलनेवाली पूजा-अर्चना के भाग के रूप परंपरा से कीर्तन किया जाता था । पखावज वाद्य को मंदिरों से प्रस्तुत किए जानेवाले शंखासुर कालो, दशावतारी कालो, भजन इत्यादि कार्यक्रमों में साथसंगति के वाद्य के रूप में उपयोग किया जाता है । आजकल मृदंग और पखावज जैसे वाद्य गोवा के संगीतपटल से दूर होते जा रहे हैं और उनका स्थान तबला ने लिया है । ये तीनों वाद्य शास्त्रीय वाद्यों की श्रेणी में सुपरिचित होने से उनका वर्णन नहीं दिया गया है ।

 

तासो अथवा ताशा और आराब

ताशा

संबल वर्ग का यह लोकवाद्य गोवा में बहुत लोकप्रिय है । पहले उसे रणवाद्य के रूप में उपयोग किया जाता था । गोवा के शिगमोत्स में उसकी प्रतीति होती है; परंतु ढोल (नगाडा)-ढोलक के साथ में यह वाद्य गोवा के मंदिरों से त्रिकाल बजता रहता है । घंगाल की आकारवाली लकडी, मिट्टी अथवा तांबा-पीतल के बरतन पर पिरोए गए सूती तानचाबियों (स्क्रू) की सहायता से बकरे की चमडी को कसकर बिठाया जाता है । दोनों हाथों से लगभग ३० सें.मी. आकारवाली छोटी-छोटी आकारवाली बांस की २ लकडियों से चमडी पर प्रहार कर यह वाद्य बजाया जाता है । अधिकांश समय वाद्य को गले में लटकाकर अथवा कमर से बांधकर बजाया जाता है । बहुत बडे आकारवाले ताशा को गोवा में आराब कहा जाता है । कुछ गांवों में शिगमोत्सव जैसे उत्सवों में साथसंगति हेतु आराब का उपयोग कर लोकनृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं ।

 

शहनाई एवं सूर्त (सुर पेटी)

शहनाई

अन्य प्रांतों की भांति गोवा में भी सर्वपरिचित यह सुषिरवाद्य है । उसे गोवा में शनाय कहते हैं । पहले प्रत्येक देवालय में सनई-चौघडा बजाया जाता था; परंतु काल के प्रवाह में सनईवादक विलुप्त होते जा रहे हैं । नए कलाकार शहनार्ईवादन को व्यवसाय के रूप में चलाने हेतु आगे नहीं आते हैं । एक समय ऐसा था जिसमें दिन में न्यूनतम ३ बार प्रत्येक बडे मंदिर में सनईवादन (चौघडा) होता था । अब कलाकारों के न होने से मंदिर व्यवस्थापनों को यांत्रिक स्वरूपवाले चौघडावादन की व्यवस्था करनी पड रही है । शहनाई की लंबाई ३० से ३२ सें.मी. तथा बाजू से सूंड की आकार समान शीशम लकडी का अवकाश होता है । संकरे अग्र के अवकाश का व्यास १ सें.मी. होता है । उस पर ‘पाला’ नामक घास की वनस्पति से बुनी गई दो गज जिभली होती है । नली के दूसरे चौडे छोर पर धतूरे के आकारवाला धातु का भोंपू बिठाया होता है । दो गज जिभली स्वरनिर्मिति हेतु मध्य की लंबी नली स्वर को आकार देने हेतु तथा भोंपू स्वरवर्धन हेतु अथवा स्वरविकास हेतु होता है । मध्य की नली पर ८ अथवा ९ छिद्र होते हैं । उनमें से एक ही रेखा में स्थित ७  छिद्र स्वरनिष्पत्ति और स्वरविस्तार हेतु होते हैं । वादक दाहिने हाथ की ३ उंगलियां और बाएं हाथ की ४ उंगलियों को स्वरों के  छिद्रों पर रखकर अपेक्षित स्वर निकालता है । शहनाई की साथसंगति में अखंड षड्ज देने हेतु सूर्त अथवा सुरपेटी का उपयोग करते हैं । अविकसित सुषिरवाद्य के प्रारूप के रूप में इस वाद्य को देखा जा सकता है ।

 

गोवा की लोकवाद्य परंपरा के कुछ वाद्यों का परिचय !

म्हादळे

मृदंग अथवा पखावज के लिए जिस प्रकार से आडी लकडी का घडा उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार का मिट्टी से बना लंबवृत्ताकार ६० से ६५ सें.मी. लंबाईवाला घडा बनाकर लिया जाता है । उसे भुनने हेतु उसके मध्य में एक छेद रखा जाता है । इस घडे के दोनों मुख लगभग २० सें.मी. व्यास के होते हैं तथा उन्हें गोह (७ फीट लंबी बडी छिपकली समान) की चमडी से गडाया जाता है । घुमट पर जिस प्रकार से गोंद की सहायता से चमडी को कसकर खींचा जाता है, उसी प्रकार से म्हादळ पर चमडी बिठाई जाती है । घुमटवादन के मय म्हादळे को आडे पकडकर गले में लटकाकर, गोद में अथवा जांघों में पकडकर दाहिने मुख पर उंगलियों से आघात कर, साथसंगति की जाती है । ईसाई समुदाय के जागोर नामक विधिनाटक के समय, साथ ही  ईसाई गावडा समुदाय के तोणयां खेल, धालो इत्यादि प्रसंगों में इस वाद्य का उपयोग किया जाता है ।

शामेळ

शामेळ का अर्थ संबळ ! लगभग ३० सें.मी. ऊंचे खैर वृक्ष के तने से बनाया गया लकडी का खडा बरतन लोहे के २ वृत्तों में लटकाया जाता है । उसके लगभग १६ से १८ सें.मी. व्यासवाले खुले मुख पर बकरी की पतली चमडी रस्सी की सहायता से लोहे की छल्ले (रिंग्स) में पिरोकर कसकर बिठाते हैं । दोनों वालियों से समान दूरी पर रस्सी कसकर चमडी में खिंचाव लाने की व्यवस्था होती है । अन्य समय पर इस वाद्य को बैठकर बजाने की प्रथा है । यह वाद्य अधिकतर हिन्दुओं में ही बजाया जाता है । तबले की भांति २ वाद्य (शामेळ)वाला; परंतु दोनों को रस्सी से एकत्र किया हुआ वाद्य है जोड-शामेळ !

दाहिनी ओर बांधा गया शामेळ होता है; परंतु बाईं ओर बांधे गए शामेळ का आकार डग्गे की भांति थोडा गोल होता है । ऐसी बनावट के कारण वह खर्ज स्वर का बनता है; परंतु दाहिना शामेळ थोडा ऊंचे स्वर का होता है । जोडशामेळ को गले में लटकाकर दाहिने हाथ में बांस की लकडी और बाएं हाथ में अगले अग्रभाग पर वृत्ताकार बांस की लकडी लेकर घुमट की साथसंगत के रूप में इसे बजाया जाता है । सुवारीवादन में और विशेषकर शिगमोत्सव में सांगे इत्यादि क्षेत्रों में जोडशामेळ बजता हुआ दिखाई देता है ।

नगाडा

 नगाडा, घूम और चौघडा

आज नगाडा गोवा के सभी महत्त्वपूर्ण देवस्थानों में बजाया जाता है, तो घूम वाद्य गोवा के शिगमोत्सव में मध्य और उत्तरी भागों में बजाया जाता है । गोवा के देवालयों से मेलों और विवाह समारोह जैसे मंगल समारोहों में चौघडावादन किया जाता है ।

जघांट

कांसा और पीतल इन मिश्रधातुओं से बनाई गई १ से १.५ सें.मी. मोटाईवाली और २५ से ३० सें.मी. व्यास की थाली को मध्यभाग में (२ सें.मी.) बिठाया जाता है । घेरे के पास २ छिद्र बनाकर रस्सी अथवा तार को पिरोने की व्यवस्था की जाती है । इस थाली को रस्सी की सहायता से खूंटी पर लटकाया जाता है अथवा बाएं हाथ से लटकाए रखकर लकडी का प्रहार कर नादनिर्मिति की जाती है । गोवा के देवालय और हिन्दुओं के धार्मिक उत्सवों के समय जघांट बजाई जाती है । जघांट शब्द जयघंटा शब्द से आया होगा । धार्मिक मनोरंजन के कार्यक्रम में इस घंटा का उपयोग किया जाता है ।

कासाळे, झांज एवं करताल

गोवा में उपयोग किए जानेवाले घनवाद्यों में से कासाळे एक प्राचीन वाद्य है । वृत्त आकारवाले १५ से २० सें.मी. व्यास के २ टिन के टुकडे, ४ सें.मी. व्यास के मध्यभाग पर निकटता से उससे रस्सी पिरोने के लिए छिद्र रखा जाता है । दोनों टुकडों से रस्सी पिरोकर उसे लकडी की मुट्ठी बांधी जाती है । दोनों हाथों से टुकडों को प्रहार कर घिसकर बजाया जाता है । यह वाद्य तालवाद्य है । कांसे के करताल अथवा कांस्य – ताल होता है कासाळे । यह वाद्य घुमट-शामेळ के साथसंगति से बजाया जाता है । शिगमोत्सव चौरंग अथवा जोत जैसे नृत्यप्रकार के प्रस्तुतीकरण के समय गीत को आगे बढाने के लिए कासाळे स्वतंत्ररूप से बजाया जाता है । कासाळे का छोटा रूप है झांझ ! यह अधिकतर पीतल से बना होता है ।

आरती, कीर्तन, कालो, जागरण आदि के लिए झांज / झांझ का उपयोग अनिवार्य माना जाता है । करताल गोवा में सर्वत्र बजाया जाता है । ढोल, ढोलक आदि सर्वत्र प्रचलित चर्मवाद्य हैं । गोवा के अधिकांश मंदिरों में पूजा-अर्चना के समय करताल बजाया जाता है, साथ ही घरेलु व्रत, विवाहविधि और अन्य पारिवारिक विधियों के समय भी यह वाद्य बजाया जाता है; इसलिए इस मंगलवाद्य को मंगलवाद्यों की श्रेणी में अंतर्भूत किया गया है । यह वाद्य शहनाई, सूर्त, ताशा आदि वाद्यों के साथ बजाया जाता है ।

कर्णो, बांको और सींग

ये लोकोत्सव और धार्मिक उत्सवों में बजाए जानेवाले सुषिरवाद्य हैं । गोवा के प्रमुख शिगमोत्सव में ये वाद्य बजाए जाते हैं । कर्णो का अर्थ भोंपु । लगभग डेढ मीटर लंबाईवाली एक बाजू से धातु से बनी सूंड के आकार की नलिका, उस पर चौडे अग्र पर लगभग ३० सें.मी. व्यास का वृत्ताकार भोंपू लगाया होता है । संकरे सिरे से फूंक मारने की सुविधा होती है । बांको वाद्य कर्णो जैसा ही होता है; परंतु यह उससे भी बडे आकार का गोवा का सुषिरवाद्य है । गोवा के मंदिरों में पंचवाद्य वादन के आरंभ में, मध्य में और अंत में ३ बार बांको बजाने की पद्धति है । यह वाद्य विशेषकर फोंडा तहसील के शिमगोत्सव में बजाया जाता हुआ दिखाई देता है । सींग नामक वाद्य महाराष्ट्र में लोकप्रिय तुतारी है । भारतीय वाद्यशास्त्र में इसे शृंग नाम से जाना जाता है, साथ ही उसका आकार भी गाय-भैंस की सींग जैसा (अर्धचंद्रकार) होता है । यह तांबे से बना होता है । गोवा के मंदिरों में और पारिवारिक कार्यक्रमों में उसे बजाया जाता है ।

सुरपावो, कोंडपावा और नाकशेर

सुरपावा इस नाम में ही इस वाद्य का स्वरूप और कार्य स्पष्ट होता है । यह वाद्य तो आदिम प्रकार की मुरली अथवा बांसुरी है । वावळी अथवा धनगर समुदाय के लोग शिगमोत्सव और दशहरे के समय प्रस्तुत किए जानेवाले लोकनृत्य में इसे बजाते हैं । कोंडपावा ३० से ३५ सें.मी. लंबाईवाली बटनवाली मुरली होती है । धनगरों के लोकनृत्य के समय ऊंची पट्टी की स्वरनिर्मिति हेतु उसका उपयोग किया जाता है । धनगर-ग्वाले समुदाय में बजाया जानेवाला दूसरा सुषिरवाद्य है नाकशेर ! पुंगी के स्थानपर यह समुदाय इस वाद्य को दुदी भी कहता है; क्योंकि स्वरविकास हेतु इस वाद्य में छोटी लौकी का बरतन के रूप में उपयोग किया जाता है । लगभग १० से १२ सें.मी. व्यास के खाली कद्दू में १ सें.मी. लंबाई की बांस की नलियों को ३ से ४ सें.मी. तक अंदर सरकाया जाता है । दूसरी ओर से छोटी दरारवाली जोडनलिका को कद्दू में सरकार कर अन्य भाग से हवा न जाए; इसके लिए मोम का उपयोग किया जाता है । अगली नलिकाओं पर स्वरछेद रखकर तथा दो जीभ बिठाई हुई दरारवाली नलिका से हवा फूंककर यह वाद्य बजाया जाता है । पहले यह वाद्य नाक से बजाया जाता था; इसलिए उसे गोवा में नासायंत्र, नाकशेर और उत्तर में नागसर कहते हैं । विविध संस्कृतियों में प्रचलित इन वाद्यों का और वादनपरंपराओं का विचार करते समय एक बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य ने चराचर में व्याप्त ध्वनि का अनुभव किया और उसका निरंतर अनुभव करते हुए क्या हमें भी उस प्रकार का ध्वनि उत्पन्न करना संभव है ?, इस कौतुहल से इन वाद्यों का जन्म हुआ । मनुष्य ने इन वाद्यों के माध्यम से प्रकृति के नाद को उत्पन्न किए जाने के परमोच्च सुख का अनुभव किया और उससे ही उसे यह समझ में आया कि वाद्य और नाद अभिन्न हैं, जैसे शरीर और आत्मा । वाद्य से उत्पन्न नाद मानो शरीर से प्रवाहित चैतन्य ! इस चैतन्य की अनुभूति करते हुए मनुष्य संगीत में समाहित हुआ, हो रहा है और अनंत काल तक समाहित होगा ।

संदर्भ : लेखक श्री. पांडुरंग फळदेसाई, चतुरंग मासिक

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