भोजनका समय एवं उनका महत्त्व

सारिणी


भोजनका समय निश्चित रहे । सूर्यास्तके पश्चात ३ घंटोंमें भोजन कर लें । सूर्योदय एवं सूर्यास्त तथा मध्याह्न बारह बजे एवं रात्रि बारह बजे भोजन न करें ।

१. यथासंभव मध्याह्न १२ बजेसे पूर्व दिनका तथा रात्रि ९ बजेसे पूर्व रात्रिका भोजन कर लें

मध्याह्न १२ से ४ बजेतक प्रखर धूप होती है । उस कालमें भोजन करनेपर जठराग्नि अत्यधिक प्रदीप्त होनेसे शारीरिक कष्ट होनेकी आशंका होती है । उसी प्रकार, रात्रि ९ के पश्चात वातावरणमें अनिष्ट शक्तियोंका संचार बढ जाता है । इस कालमें भोजन करनेसे अन्नपर अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमणकी आशंका अधिक रहती है । अनिष्ट शक्तियोंसे प्रभावित अन्न ग्रहण करनेसे अनिष्ट शक्तियोंकी पीडा हो सकती है । इसलिए यथासंभव मध्याह्न १२ बजेतक दिनका भोजन तथा रात्रिका भोजन ९ बजेतक कर लें।

 

२. दिन एवं रात्रिके भोजनका महत्त्व

‘दिनका भोजन जीवनके लिए (दिनचर्याके लिए) आवश्यक क्रियातरंगोंकी (कार्य करने हेतु शक्तिकी पूर्ति करता है ।) आपूर्ति करता है एवं रात्रिका भोजन रात्रिमें बढे हुए रज-तमका प्रतिकार करनेके लिए ऊर्जातरंगोंकी आपूर्ति करता है । इसी प्रकार भोजनके कारण प्राणोंपर आवरण नहीं आता; क्योंकि अन्न प्राणको चैतन्यकी आपूर्ति करता है ।’ (श्री. निमिष त्रिभुवन म्हात्रेके माध्यमसे, ७.१२.२००५, दोपहर १.३२) (प्राणमें चेतना न हो, तो उसका कार्य रुक जाता है । प्राणका कार्य रुक जाना अर्थात प्राणपर आवरण आना । इस अर्थमें ‘आवरण’ शब्दका प्रयोग किया है ।)

 

३. उचित समयपर भोजन न करनेसे हानि

शरीर एवं मनका परस्पर संबंध है । शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य परस्पर पूरक भी हैं । उचित समयपर भोजन न करनेसे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य असंतुलित हो सकता है । परिणामस्वरूप आध्यात्मिक स्वास्थ्यपर भी इसका दुष्परिणाम होता है ।

 

४. शारीरिक एवं मानसिक स्तरोंपर हानि

‘उचित समयपर भोजन न करनेसे शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है । जबतक हम भोजन नहीं कर लेते अथवा जल नहीं पीते, तबतक हमारे मनमें ‘मुझे भोजन करना है, जल पीना है’, इस प्रकारके विचार निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं । इससे मनकी ऊर्जा अनावश्यक व्यय होती है । (उपरोक्त हानि मलमूत्र-विसर्जन समयपर न करनेसे भी होती है ।)’ – ईश्वरीय तत्त्व (श्री. कुमार मानेके माध्यमसे, मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, ३.१२.२००८, सायं. ७.१०)

 

५. शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्तरपर हानि

‘२५.९.२००६ के दिन विलंबसे उठनेके कारण स्नानसे अन्य कार्य पूरा होनेतक दिनके ११.३० बज गए । इसके पश्चात ‘थोडी ही देरमें भोजन करना है’, यह सोचकर मैंने कुछ भी ग्रहण नहीं किया । तब उचित समयपर भोजन न करनेसे हानि तथा ऋषि-मुनियोंके कुछ सेवन न करनेपर भी उनके शरीरका पोषण कैसे होता था, इस संबंधमें मुझे आगे उल्लेखित ज्ञान मिला ।

५ अ. उचित समयपर अन्न ग्रहण न करनेपर उदरमें बनी
रिक्तिमें अनिष्ट शक्तियोंके लिए काली शक्तिका संग्रह करना सरल होना

‘उचित समयपर अन्न ग्रहण न करनेके कारण उदरमें रिक्त स्थान बनता है, जिसमें अनिष्ट शक्तियोंके लिए अधिक मात्रामें काली शक्तिका संग्रह करना सरल होता है । परिणामस्वरूप व्यक्तिको अपचन होना, अन्य उदर-विकार, संधिवात इत्यादि व्याधियां होती हैं।

५ आ. उचित समयपर अन्न ग्रहण न करनेके कारण कोशिकाओंमें ऊर्जा
अल्प हो जानेसे प्राणमयकोष दुर्बल होना तथा इससे स्थूलदेहकी दुर्बलता बढना

अन्न शरीरके अन्नमयकोष एवं प्राणमयकोषोंको शक्ति प्रदान करनेका कार्य करता है । प्राणमयकोषका प्रभाव मनोमयकोषपर होता है । अन्नका सेवन उचित समयपर न करनेसे देहके लिए आवश्यक अन्नशक्तिकी पर्याप्त मात्रामें आपूर्ति नहीं होती । इससे कोशिकाओंकी ऊर्जा अल्प होकर प्राणमयकोष दुर्बल होता रहता है । स्थूलदेह दुर्बल होनेसे मनका कार्य भी सुचारु रूपसे नहीं हो पाता एवं इन सभीका दुष्परिणाम शरीरकी कार्यक्षमतापर होता है ।

५ इ. पूर्वके युगोंमें वातावरण सात्त्विक होनेसे शरीरमें
विद्यमान सुप्त ऊर्जा साधनासे कार्यान्वित होकर उसका सदुपयोग होना एवं
शरीरमें अच्छी वायु कार्यान्वित होनेके कारण शरीरकी कोशिकाओंका पोषण होना

पूर्वके युगोंमें वातावरण अत्यंत सात्त्विक था । इसलिए वातावरणमें विद्यमान रज-तमसे लडनेमें व्यय होनेवाली शरीरकी ऊर्जा बच जाती थी । साधनासे शरीरकी सुप्त ऊर्जा क्रियान्वित कर उसका सदुपयोग किया जाता था । निरंतर साधनासे शरीरमें रज-तमकी मात्रा भी न्यून होकर देह सात्त्विक रहती थी । इससे शरीरमें अच्छी वायु कार्यान्वित होकर शरीरकी कोशिकाओंका पोषण भी स्वमेव (अपनेआप) होता था ।’ (श्रीमती रंजना गडेकरके माध्यमसे, २५.९.२००६, दोपहर १)

संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – भोजनसे संबंधित आचार

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