भोजनका महत्त्व एवं भोजनसंबंधी कुछ नियम

सारिणी


१. व्याख्या

जिस अन्नसे स्थूलदेहका पोषण होता है, उसे `भोजन’ कहते हैं । ‘अन्न ग्रहण करनेपर सर्वप्रथम मन तृप्त होता है । तत्पश्चात अन्नकणोंके विघटनसे स्थूलदेहको शक्ति मिलती है ।’ – एक अज्ञात शक्ति (श्रीमती रंजना गडेकरके माध्यमसे, आश्विन शु. १०, कलियुग वर्ष ५१११ (२८.९.२००९, दोपहर १.५०)

 

२. महत्त्व

कहा जाता है, ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।’ अर्थात साधनाके लिए शरीर आवश्यक है । शरीर हेतु अन्न आवश्यक है । अन्नसे प्राप्त शक्तिका उपयोग केवल आत्मोन्नतिके लिए नहीं, अपितु समाजकी उन्नतिके लिए भी किया जा सकता है ।

 

३. ‘भोजन’ अर्थात ‘चैतन्य ग्रहण करनेकी प्रक्रिया ।’

श्रीमती अंजली गाडगीळ (वेदमूर्ति श्री. योगेश्वर बोरकरजीका ऋग्वेदीय घनपारायण (घन अर्थात वेदमंत्रोंके पाठकी एक विशेष विधि) सुनते समय ईश्वरसे प्राप्त ज्ञान, ६.३.२००७)
( भोजनमें यदि सात्त्विक पदार्थ हों, तो उनके सेवनसे शरीरकी सात्त्विकता बढनेमें सहायता मिलती है । – संकलनकर्ता )

 

४. भोजनसंबंधी कुछ नियम, भोजनके समय एवं उनका महत्त्व

अ. स्नानसे पूर्व भोजन न करें ।

विना स्नानेन न भुञ्जीत ।

अर्थ : स्नान किए बिना भोजन न करें ।

४ आ. स्नानसे पूर्व देहपर रज-तमात्मक मलिनता होनेसे इस मलिनतासहित भोजन करनेसे देहमें राजस-तामस तरंगोंका घनीकरणसंक्रमण होना

‘स्नानसे देह पवित्र होती है । पवित्र होना, अर्थात अंतर्बाह्य शुद्ध होना । नामजपसहित स्नान करनेसे देहकी अंतर्बाह्य शुद्ध होती है । नामजपसे आंतरिक शुद्धि होती है तथा स्नानसे बाह्यशुद्धि साध्य होती है । स्नानसे पूर्व देह रज-तम गुणोंसे मलिन रहती है । इस मलिनतासहित भोजन करना, अर्थात देहमें राजस-तामस तरंगोंके घनीकरणके लिए स्वयं ही निमित्त बनना । इस घनीकरणके प्रभावसे देह अनिष्ट शक्तियोंसे पीडित हो सकती है । इसलिए ऐसा कहा गया है, कि स्नानसे पूर्व मलिन देहसहित भोजन न करें ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी कलियुग वर्ष ५१०९, ६.३.२००८, दिन १०.२७)

४ इ. अन्न-पाचन होनेपर ही भोजन करें ।

पहले सेवन किया हुआ अन्न पचनेपर ही, अर्थात क्षुधा (भूख) लगनेपर, शुद्ध डकार आनेपर, शरीरको हलका लगनेपर भोजन करना चाहिए । इससे अजीर्णादि रोग नहीं होते तथा सप्तधातुओंकी (रस, रक्त, मांस, मेद, आस्थि , मज्जा एवं शुक्रकी) समुचित वृद्धि होती है । रात्रि-भोजन मध्याह्न-भोजनसे हलका होना चाहिए । मध्याह्नका भोजन न पचा हो, तो रात्रिमें हलका आहार लेनेमें कोई हानि नहीं; परंतु रात्रिका भोजन न पचनेपर मध्याह्न-भोजन न करें । मल-मूत्रका आवेग आनेपर भोजन न करें; क्योंकि ऐसी अवस्थामें भोजन करना स्वास्थ्यकी दृष्टिसे इष्ट नहीं है । शौचके तुरंत पश्चात भोजन न कर, आधा घंटा रुकें । ऐसा करना स्वास्थ्यकी दृष्टिसे हितकर है ।

 

५. सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण कालमें भोजन न करें ।

५ अ. स्वास्थ्यकी दृष्टिसे

चंद्र एवं सूर्य अन्नरसोंका पोषण करनेवाले देवता हैं । ग्रहणकालमें उनकी शक्ति अल्प हो जाती है । इस कारण शास्त्रोंमें इस कालमें भोजन करना वर्जित है ।

५ आ. आध्यात्मिक दृष्टिसे

आधुनिक विज्ञान ‘ग्रहण’का विचार केवल स्थूल स्तरपर, अर्थात भौगोलिक स्तरपर ही करता है; परंतु हमारे ऋषि-मुनियोंने ‘ग्रहण’का सूक्ष्म (अर्थात आध्यात्मिक स्तरपर होनेवाले) दुष्परिणामोंका भी विचार किया है । ग्रहणकालमें वायुमंडल रज-तमात्मक (कष्टदायक) तरंगोंसे दूषित होता है । उस कालमें वायुमंडलमें रोगाणु तथा अनिष्ट शक्तियोंका प्रभाव भी बढा हुआ होता है । उस कालमें भोजन, शयन इत्यादि राजस-तामस कृत्योंके माध्यमसे हमें अनिष्ट शक्तियोंकी पीडा हो सकती है। धर्मशास्त्र कहता है, ‘ग्रहणकालमें भोजन करनेसे पित्तका कष्ट होता है ।’ इसके विपरीत, ग्रहणकालमें नामजप, स्तोत्रपाठ समान धार्मिक कृत्य, अर्थात साधना करनेपर हमारे सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनता है तथा ग्रहणके अनिष्ट प्रभावसे हमारी रक्षा होती है ।

 

६. अन्योंका भोजन होनेके पश्चात गृहस्थ पति-पत्नी भोजन करें।

यजमान स्वयं भोजन करनेसे पूर्व छोटे बच्चों, वृद्धों, सेवकों (नौकरों) तथा गाय आदि प्राणियोंको अन्न देनेके उपरांत, अतिथि आए हों, तो उनकी पूछताछ कर उनके साथ ही भोजनके लिए बैठे, यह पूर्वकालकी धार्मिक परंपरा थी ।

 

७. जैन पंथके अनुसार सूर्यास्तके पश्चात तथा सूर्योदयसे पूर्व भोजन न करें।

यथासंभव दिनमें दो बार ही भोजन करें ।

 

८. भोजनके कितने घंटे पश्चात पुनः भोजन करें ?

मध्याह्नमें गरिष्ठ (पचनेमें भारी) भोजन हुआ हो, तो उस रात्रि भोजन न करें । साधारणतः वयस्क लोग भोजनके उपरांत न्यूनतम ( कमसे कम ) तीन घंटे कुछ ग्रहण न करें तथा परिश्रमी लोग ६ घंटेसे अधिक समयतक क्षुधातुर (खाली पेट) न रहें। ध्यान रखिए ! एकमात्र हिंदू धर्म ही यह बताता है, ‘स्थूल वैज्ञानिक क्रियाकलापोंके मूलमें भी सूक्ष्म अध्यात्मशास्त्र है ।’

संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – भोजनसे संबंधित आचार

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