आध्यात्मिकदृष्टि से लाभदायक तथा सहस्र वर्ष से भी प्राचीन परंपरावाला ‘आयुरगृह’अर्थात आयुर्वेदीय घर !

विशेषतापूर्ण वास्तु आयुरगृह की अगली बाजू

‘मनुष्य की आयु कुछ ही वर्षों की होती है, तो देवता चिरंतन हैं । इसके कारण भारत में प्राचीन काल से मनुष्य के लिए कुछ दशकोंतक अथवा कुछ शतकोंतक टिके रहे, ऐसे मिट्टी के घर बनाए जाते थे, तो देवताओं की मूर्तियों की स्थापना सहस्रों वर्ष टिके रहनेवाले पत्थर के मंदिरों में की जाती थी । मिट्टी के घर बनाते समय भी आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र आदि शास्त्रों में दिए गए निर्देशों का पालन किया जाता था । ऐसे घरों को केरल में ‘आयुरगृह’ कहते हैं । आयुरगृह नाम से जाने जानेवाले इन विशेषतापूर्ण वास्तु के संदर्भ में अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय के साधकों ने १८ अप्रैल २०१९ को केरल के बलरामपुरम् के आयुरवस्र एवं आयुरगृह के संदर्भ में कार्य करनेवाले श्री. राजन से भेंट की । इस लेख में उनसे साधकों को आयुरगृह के संदर्भ में प्राप्त जानकारी, इस संदर्भ में प्रभामंडल मापन वैज्ञानिक उपकरण यु.ए.एस्. (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) के द्वारा किए गए शोधकार्य आदि जानकारी दी गई है ।

सहस्रों वर्षों की परंपरा प्राप्त आयुरगृह एवं उसके संबंध में कार्य करनेवाले श्री. राजन

 

१. आयुरगृह क्या होता है ?

आयुरगृह शब्द आयुर अर्थात आरोग्य एवं गृह इन शब्दों के संयोग से बना है । आयुर्वेद में औषधी के रूप में उपयोग किए जानेवाले कई वनस्पतियों को मिट्टी में मिलाकर उस मिट्टी से बनाई गई ईटों को आयुरगृह कहते हैं ।

 

२. आयुगरगृह का इतिहास

आयुरगृह बनाने की परंपरा सहस्रों वर्षों से भी पुरानी है । केरल के थिरूवनंतपुरम् जनपद के बलरामपुरम् के आयुरगृह के निर्माता श्री. राजन् द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पहले मिट्टी के घर होते थे । घर की भूमि भी मिट्टी की ही होती थी । कुछ स्थानोंपर घर की दीवारें और भूमि गोमय से लिपी जाती थी । घर बनाने हेतु उपयोग की जानेवाली मिट्टी में कुछ वनस्पतियों का उपयोग किया जाता  था । ये घर आरोग्य के लिए पूरक होने से उन्हें आयुरगृह कहते हैं । आयुरगृह के मिट्टी में स्थित औषधीय वनस्पतियों के सूक्ष्म अंश गंध के द्वारा उस घर में रहनेवाले शरीर में प्रवेश करते हैं और उससे व्याधिनिवारण में सहायता होती है ।

 

३. आयुरगृह बनानेवाले श्री. राजन् तथा उनके परिवारजन

किस व्याधि के लिए कौनसी वनस्पति के अर्क का उपयोग करना है, इसका एक शास्त्र है । पीढीयों से चली आर रहे अनुभव एवं ज्ञान के आधारपर श्री. राजन् एवं उनके परिवारजन विगत कई वर्षों से प्रमुखता से आयुरवस्त्र की निर्मिती कर रहे हैं । जहां आयुरवस्त्र बनाए जाते हैं, वहीं उन्होंने जनउद्बोधन हेतु एक आयुरगृह बनाया है । वे आयुरवस्त्र एवं आयुरगृह हेतु आवश्यक औषधि वनस्पतियां अगस्ति वन से लेते हैं । वहां आज भी कई दुर्लभ वनस्पतियां हैं । श्री. राजन् कुछ वनस्पतियों की बोआई स्वयं करते हैं । वनस्पतियां लेते समय पारंपरिक नियमों का पालन हो तथा प्रकृति की हानि न हो; इसकी ओर ध्यान दिया जाता है ।

 

४. आयुरगृह की कुछ विशेषताएं

४ अ. आयुरगृह हेतु उपयोग की जानेवाली ईंटें एवं पत्थर

आयुरगृह हेतु आवश्यक ईंटें बनाना, लकडी का काम करना आदि पारंपरिक कलाएं हैं । इन ईंटों को बनाने हेतु उपयोग की जानेवाली मिट्टी में विविध प्रकार की वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है । इन ईंटों को भट्टी में न भुनकर धूप में सुखाया जाता है । आवश्यकता के अनुसार कुछ स्थानोंपर निर्माणकार्य में लगनेवाले चीरा पत्थरों का भी उपयो किया जाता है ।

४ आ. मिट्टी की भूमि एवं खपडों का छप्पर

आयुरगृह की भूमि मिट्टी से बनी होती है, तो उसका छप्पर मिट्टी से बने खपडों का होती है । इन खपडों को भट्टी में भुना जाता है ।

४ इ. निर्माणकार्य में सिमेंट का उपयोग न किया जाना

आधुनिक निर्माणकार्य में सिमेंट का उपयोग किया जाता है, तो आयुरगृह के निर्माणकार्य में मिट्टी, चूना, गुड, वनस्पतियों का अर्क इत्यादि का मिश्रण होता है । इस मिश्रण का उपयोग कर किए गए निर्माणकार्य का जीवनकाल सिमेंट का उपयोग कर किए गए निर्माणकार्य की अपेक्षा अधिक होता है ।

४ ई. घर के भाग एवं दिशा के अनुसार विविध प्रकार की लकडी का उपयोग किया जाना

घर की दहलीज, द्वार, खिडकियां, बांस आदि के लिए शास्त्र में बताए जाने के अनुसार कटहल, साग, बेल, कदंब आदि की सुयोग्य लकडी का उपयोग किया जाता है । दिशा के अनुसार खिडकी एवं द्वार के लिए किस लकडी का उपयोग करना चाहिए, इसकी शास्त्रों में जानकारी है और उसके अनुसार ही लकडी का उपयोग किया जाता है ।

४ उ. वैदिक वास्तुशास्त्र का उपयोग

वास्तु के निर्माण में भूमि के चयन से लेकर वास्तु के निर्माणतक के सभी चरणों के लिए वैदिक वास्तुशास्त्र का उपयोग किया जाता है ।

४ ऊ. पानी एवं दीमक का वास्तु के लिए संकटकारी होना

आयुरगृह को पानी एवं दीमक के कारण संकट होता है; किंतु उससे वास्तु की रक्षा के कुछ उपाय भी हैं, जिन्हें समय-समयपर किया गया, तो आयुरगृह आधुनिक घर की अपेक्षा अधिक वर्षोंतक टिकता है ।

४ ए. गर्मियों में ठंडक तथा जाडे में गरमाहट प्रतीत होना

आयुरगृह में गर्मियों में ठंडक प्रतीत होती है, तो जाडे में यह घर गर्म होता है । आयुरगृह की रचना तथा उसके लिए उपयोग किए गए घटकों के कारण बाहर के वातावरण में आनेवाले बदलावों का घर के वातावरण के संतुलनपर कोई परिणाम नहीं होता ।

 

५. आयुरगृह के ईंट का वैज्ञानिक उपकरण यु.ए.एस्. (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) द्वारा परीक्षण

सर्वसामान्य ईंट तथा आयुरगृह के लिए बनाई गई ईंट में विद्यमान ऊर्जा की गणना हेतु १२.९.२०१९ को रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में वैज्ञानिक उपकरण यु.ए.एस्. (युनिवर्सल ऑरा स्कैनर) के द्वारा परीक्षण किया गया ।

५ अ. ‘यु.ए.एस्’ उपकरण का परिचय

इस उपकरण को युनिवर्सल ऑरा स्कैनर भी कहा जाता है । इस उपकरण के द्वारा किसी भी सजीव अथवा निर्जीव वस्तु में विद्यमान सकारात्मक एवं नकारात्मक ऊर्जा, साथ ही उस वस्तु के इर्द-गिर्द में स्थित प्रभामंडल की गणना की जा सकती है । तेलंगना के भूतपूर्व परमाणु वैज्ञानिक डॉ. मन्नम् मूर्ति ने वर्ष २००५ में इस उपकरण को विकसित किया । (इस उपकरण की अधिक जानकारी हेतु देखें :  http://www.vedicauraenergy. com/universal_scanner.html)

५. आ.यु.एस्. उपकरण के द्वारा की गई गणना की प्रविष्टियां

परीक्षण की गणनाओं की प्रविष्टियाँ  सर्वत्र प्रयोग में ली जानेवाली सामान्य मिटटी की सिंकी हुई ईंट औषधि वनस्‍पतियुक्‍त मिट्टी की सिंकी हुई ईंट आयुरगृह के लिए प्रयोग की जानेवाली( ‘औषधि वनस्‍पतियुक्‍त मिट्टी की न सिंकी हुई) ईंट
यूएएस उपकरण द्वारा प्रविष्टि लेने का समय सायंकाल ३.२० सुबह ९.४१ सुबह ९.३२
१. नकारात्‍मक ऊर्जा (मीटर)
२. सकारात्‍मक ऊर्जा का प्रभामंडल (मीटर) १.२३ ३.०४ ३.६७
३. कुल प्रभामंडल (मीटर) १.५६ ४.६५ ५.०४

५ इ. विवेचन

५ इ १. नकारात्मक ऊर्जा का न होना

मिट्टी से बनाई गई तीनों प्रकार की ईंटों में इन्फ्रारेड एवं अल्ट्रावायोलेट इन नकारात्मक ऊर्जाओं में से किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का अस्तित्व नहीं था ।

५ इ २. सकारात्मक ऊर्जा का होना

सभी व्यक्ति, वस्तुएं अथवा वास्तु में सकारात्मक ऊर्जा होगी ही, ऐसा नहीं होता । मिट्टी से बनाई गई तीनों ईंटों में सकारात्मक ऊर्जा थी । उनमें विद्यमान सकारात्मक ऊर्जा के प्रभामंडल की गणना किए जानेपर मिट्टी से बनी भुनी हुई ईंट का प्रभामंडल १.२३ मीटर था, तो औषधिय वनस्पतियुक्त मिट्टी के न भुने हुए ईंट का प्रभामंडल उससे दोगुना अर्थात ३. ६७ मीटर था ।

५ इ ३. कुल प्रभामंडल का बहुत अधिक होना

सामान्य व्यक्ति अथवा वस्तु का कुल प्रभामंडल सामान्यरूप से १ मीटर होता है । सर्वसामान्य मिट्टी की भूनी हुई ईंट का कुल प्रभामंडल १.५६ मीटर था, तो औषधिय वनस्पतियुक्त मिट्टी की भुनी हुई ईंट का प्रभामंडल उससे कहीं अधिक अर्थात ४.६५ मीटर था । आयुरगृह हेतु उपयोग किए जानेवाले औषधिय वनस्पतियुक्त मिट्टी से बने न भुने हुए ईंट का प्रभामंडल सर्वाधिक ५.०४ मीटर था ।

संक्षेप में कहा जाए, यु.ए.एस्. उपकरण के द्वारा किए गए परीक्षण में आयुरगृह की ईंट से बडी मात्रा में सकारात्मक ऊर्जा का प्रक्षेपण होने का तथा उसका कुल प्रभामंडल बहुत अधिक होने का स्पष्ट हुआ । आयुरगृह आध्यात्मिकदृष्टि से लाभदायक है ।

 

६. आयुरगृह की ईंट में सात्त्विकता होने का अध्यात्मशास्त्र

‘आयुरगृह के लिए ईंटे बनाने में उपयोग किए गए घटक, उदा. मिट्टी एवं उसमें मिलाई जानेवाली औषधिय वनस्पतियां तथा उन्हें बनाने की प्रक्रिया, उदा. ईंट को भट्टी में भुनने की अपेक्षा धूप में सुखाने के कारण / की ईंट में सामान्य ईंट की अपेक्षा अधिक सात्त्विकता है । किसी वस्तु के निर्माण में आवश्यक घटक एवं उसकी निर्माण की प्रक्रिया में सात्त्विकता की दृष्टि से बदलाव करने से किस प्रकार उस वस्तु को अधिक सात्त्विक बनाया जा सकता है, इसका यह एक उत्तम उदाहरण है ।

 

७. भारत की प्राचीन विद्या एवं कला को अध्यात्म की नींव
होने से उनका चैतन्यमय होना तथा कालगति में भी उनका टिके रहना

भारत में विद्यमान वास्तुशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, गणित आदि विद्याएं अथवा संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि कलाओं की नींव अध्यात्म की होने से उस विद्या अथवा कला को साध्य करनेवाले कलाकारों को ईश्‍वर की अर्थात सर्वोच्च आनंद की अनुभूति हो सकती है । अध्यात्म की नींव होने से ही संगीत, नृत्यादि कलाएं अभीतक टिकी हुई हैं; किंतु सांप्रतकाल में सामान्य लोगों ने कला के आध्यात्मिक अंग का विचार न करने से वास्तुनिर्माण में भी परिपूर्णता देखने को नहीं मिलती ।

वर्तमान घोर संकटकाल में भी केरल राज्य में आयुरगृह बनाने की प्राचीन कला अभी भी टिकी हुई है, तो अतित में वह कितनी परिपूर्ण एवं विकसित होगी, इसकी हम कल्पना कर सकते हैं । ऐसी दुर्लभ कलाएं और विद्याएं संपूर्णरूप से विलुप्त नहीं हुई हैं, इसे हमारा परमभाग्य ही कहना पडेगा । ऐसी कलाएं एवं विद्याओं का संवर्धन करना समय की मांग है ।’

– कु. प्रियांका विजय लोटलीकर एवं श्री. रूपेश लक्ष्मण रेडकर, महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय, गोवा
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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