शिव-शिमगा कैसे मनाएं ?

सारणी


१. धूलिवंदन के दिन मनाया जानेवाला शिव-शिमगा

‘शिमगा’ शब्द का अर्थ है शिवजी की लीला । शिमगा मूलतः शिवरूप होता है । इसीलिए इसे ‘शिव-शिमगा’ भी कहते हैं । किसी भी कार्य को शिवरूपी ज्ञानमय ऊर्जा का बल प्राप्त हुए बिना वह कार्य पूरा नहीं हो सकता । शिमगा मनाने का उद्देश्य है, ईश्वरीय चैतन्य के आधारपर मानव के जीवन के प्रत्येक कृत्य को तेजोमय ईश्वरीय अधिष्ठान प्राप्त करवाना । कुछ प्रांतोंमें धूलिवंदन के दिन अपने घर में जन्मे नवजात शिशु के लिए होली के पहले त्यौहार पर उसकी रक्षा हेतु विशेष विधि की जाती है । इसे ‘शिव-शिमगा’ के नाम से जानते हैं ।

२. शिशु का शिमगा मनाने का एक दृश्य

२ अ. शिव-शिमगा मनाने की सिद्धताएं (तैयारियां)

शिशु के लिए श्वेत रंग के नए कपडे सिलवाकर उसे पहनाएं । एक थाली में थोडासा गुलाल, शक्कर के पदकोंकी माला रखें । ताम्रपात्रमें शिशुके औक्षणके लिए निरांजनमें फूलबाती एवं तेल, अक्षत, सुपारी तथा सोनेकी अंगुठी रखें । बैठनेके लिए पीढा रखें । पीढेके चारों ओर रंगोली बनाए । रंगोलीपर हलदी-कुमकुम चढाएं ।

३. शिशु का शिमगा कैसे मनाए ?

शिशु की माता को शिशु को गोदमें लेकर पीढेपर बिठाएं । अब शिशु का औक्षण करें । औक्षण करते समय प्रथम शिशु के माथे पर अपने दाहिने हाथ की मध्यमासे कुमकुम लगाएं एवं उसपर अक्षत भी लगाएं । अब ताम्रपात्र में रखी अंगूठी एवं सुपारी को हाथ में लेकर शिशु के आज्ञाचक्र के स्थान पर अंगूठी एवं सुपारी का एक साथ स्पर्श करवाएं । अब उसके दाहिने कंधे से ऊपर की ओर आज्ञाचक्र के स्थान से आगे बाएं कंधे तक आएं । इसी प्रकार विपरीत दिशा में अंगूठी एवं सुपारी को दाहिने कंधे तक ले आएं । अब हाथ में रखी अंगूठी एवं सुपारी का ताम्रपात्र को स्पर्श करें । ऐसा तीन बार करें । अब ताम्रपात्र में रखे दीप से शिशु के दाहिने कंधे से बाएं कंधे तक तथा इसकी विपरीत दिशा में दाहिने कंधे तक आरती घुमाएं । इस प्रकार तीन बार आरती उतारें । इसके उपरांत नीचे अक्षत रखें एवं उसपर औक्षण अर्थात आरतीका ताम्रपात्र रखें । अब शिशु के मस्तक पर गुलाल लगाएं एवं उसके गले में शक्कर के पदकोंकी माला पहनाएं ।

४. शिव-शिमगा विधि में बालक को
श्वेत वस्त्र क्यों पहनाए जाते है ?

होली के दूसरे दिन ब्रह्मांडकक्षा में तेजकणोंका भ्रमण अधिक होता है । ब्रह्मांड में विद्यमान तेजतरंगें भी कार्यरत रहती हैं । श्वेत वस्त्रमें इन तेजकणों एवं तेजतरंगोंको आकृष्ट करने की अत्यधिक क्षमता होती है । इस दिन बालक को पहनाए गए श्वेत वस्त्र के स्पर्श से उसके मणिपूरचक्र की जागृति होती है । वस्त्र के सर्वसमावेशक श्वेत रंग के कारण बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार ब्रह्मांड में विद्यमान आवश्यक तेज तरंगोंका लाभ होता है । बालक के मनपर संस्कार अल्प होते हैं । इस अवस्था में बालक ब्रह्मांड की चैतन्यमय तरंगोंको तत्काल ग्रहण कर सकता है ।

५. शिव-शिमगा विधि में बालक को
शक्कर के पदकोंकी माला पहनाने का शास्त्राधार

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बालक के गले में शक्करके पदकोंकी माला पहनाई जाती है । माला की लंबाई शिशु के अनाहतचक्र तक अर्थात हृदय के स्थान तक होती है । इस माला का श्वेत वस्त्र को जब स्पर्श होता है, तब श्वेत वस्त्र में विद्यमान तेजकणोंसे यह माला आवेशित होती है । शक्कर में आपतत्त्व अत्यधिक रहता है, जिसके माध्यम से यह माला वायुमंडल में इन तेजकणोंका प्रभावी प्रक्षेपण करती है । इससे बालक के सर्व ओर सुरक्षाकवच निर्माण होता है । इस प्रकार छोटे शिशु को भी आध्यात्मिक दृष्टि से संस्कारित करने का तथा उसकी रक्षा का प्रावधान भी हिंदु धर्म हमें सिखाता है ।

६. शिव-शिमगा विधि में
बालक को गुलाल लगाने का शास्त्राधार

शिमगा मनाते समय बालक के आज्ञाचक्रपर गुलाल लगाया जाता है । गुलाल से प्रक्षेपित पृथ्वी एवं आप तत्त्वोंकी तरंगोंके कारण बालक के देह की सात्त्विक तरंगें ग्रहण करनेकी क्षमता बढती है । साथ ही बालक के आज्ञाचक्र से प्रक्षेपित शक्तिरूपी चैतन्य उसके पूरे देह में संक्रमित होता है । इससे उसकी, वायुमंडल में भ्रमण करनेवाली चैतन्यतरंगें ग्रहण करने की क्षमता भी बढती है । इस विधि से बालक चैतन्य के स्तरपर अधिक संस्कारक्षम बनता है । इस प्रकार शैशव अवस्थामें ही जीव को सूक्ष्म स्तरपर ईश्वरीय चैतन्य के साथ जुडने का संस्कार करना हिंदू धर्म हमें सिखाता है । धूलिवंदन के दिन कई लोग रंग भी खेलते हैं; परंतु यह केवल रूढि मात्र है । शास्त्रानुसार पंचमी के दिन ही रंग खेलने का विधान बताया है । यह रूढि प्रचलित होने के दो कारण हैं ।

६ अ. श्रीविष्णु के करस्पर्श से अर्थात हस्तस्पर्श से रंगे धूलिकणोंका प्रतीक

प्रथम त्रेतायुग में पृथ्वीपर किए गए प्रथम यज्ञ के दूसरे दिन श्रीविष्णुजी ने माथेपर यज्ञकुंड के पास की मिट्टी का तिलक किया एवं उसे अंजुली में लेकर हवा में उछाला । श्रीविष्णुजी के कर स्पर्श से उन धूलिकणोंमें गुलाल की छटा आ रही थी । इसीलिए आज भी होली के दूसरे दिन एक-दूसरे के माथे पर गुलाल का टीका लगाया जाता है । साथ ही गुलाल को हवा में उडाया जाता है ।

६ आ. अनिष्ट शक्तियोंके निवारण एवं समाप्ति का प्रतीक

होली के दिन प्रदीप्त हुई अग्नि से वायुमंडल के रज-तम कणोंका विघटन होता है । तथा ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओंका रंगरूपी सगुण तत्त्व कार्यानुरूप विभिन्न स्तरोंपर अवतरित होता है । इसका आनंद एक प्रकारसे रंग उडाकर मनाया जाता है । इस दिन खेला जानेवाला रंग, विजयोत्सवका अर्थात रज-तम के विघटन के कारण अनिष्ट शक्तियोंके निवारण का एवं कार्य की समाप्ति का प्रतीक है । इसके उपरांत फाल्गुन कृष्ण पंचमी को आता है विविध रंगोंके साथ मनाया जानेवाला रंगोत्सव ! जो विक्रम संवत् कालगणनानुसार, उत्तर भारत में चैत्र कृष्ण पंचमी को मनाया जाता है । यह रंगोत्सव अपने साथ ले आता है, आनंद और हर्षोल्लास !

संदर्भ : सनातन-निर्भित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’

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