भारतीय संस्कृति के गहन अभ्यासी, वरिष्ठ शोधकर्ता तथा ज्ञानमार्ग के अनुसार साधना करनेवाले ठाणे के डॉ. शिवकुमार ओझा (आयु ८५ वर्ष) संतपदपर विराजमान !

पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी को सम्मानित करते हुए पू. पृथ्वीराज हजारेजी

सनातन आश्रम, रामनाथी (गोवा) : भारतीय संस्कृति के गहन अभ्यासी, वरिष्ठ शोधकर्ता तथा ज्ञानमार्ग से साधना कर भारतीय संस्कृति के उत्थान हेतु समर्पित भाव से अलौकिक कार्य करनेवाले ठाणे के डॉ. शिवकुमार ओझा (आयु ८५ वर्ष) ७१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कर संतपदपर विराजमान हुए । ८ जुलाई २०१९ को रामनाथी (गोवा) के सनातन आश्रम में यह शुभसमाचार घोषित किया गया ।

डॉ. शिवकुमार ओझा कुछ दिनों के लिए रामनाथी, गोवा के सनातन आश्रम में निवास कर रहे हैं । इस उपलक्ष्य में एक समारोह का आयोजन किया गया था । इस अवसरपर ६६ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त तथा सनातन प्रभात नियतकालिकों के समूह संपादक श्री. नागेश गाडे ने यह आनंददायक घोषणा की । सनातन प्रभात नियतकालिकों के पूर्व समूह संपादक पू. पृथ्वीराज हजारेजी ने पू. (डॉ.) ओझाजी को माल्यार्पण कर, शॉल, श्रीफल एवं भेंटवस्तु प्रदान कर सम्मानित किया । इस अवसरपर सनातन के संत एवं साधक उपस्थित थे ।

 

पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी की विशेषताएं

१. आरंभ में भक्तियोग के अनुसार साधना करनेवालों की साधना मन के स्तरपर होती है, तो ज्ञानयोगियों की साधना बुद्धि के स्तरपर होती है; इसलिए ज्ञानयोग के अनुसार साधना करना कठिन होता है; परंतु तब भी पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी ने यह साधना की ।

२. अधिकांश ज्ञानयोगियों में ज्ञान का अहं होता है; परंतु पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी ज्ञानयोगी होते हुए भी उनमें अहं नहीं है ।

३. ‘शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्’ अर्थात शब्दों का जाल किसी बडे अरण्य की भांति होता है तथा वह चित्त को भटकाने का कारणभूत होता है’, यह भले ही सुभाषित हो; परंतु पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी ने इस शब्दजाल में न फंसकर समाज को उससे अपने उपयोग के लिए क्या लेना है, यह अपने ग्रंथों से सिखाया है ।

४. उनमें विद्यमान प्रेमभाव के कारण उनमें अपने पास उपलब्ध ज्ञान सभीतक पहुंचे, यह तडप है । ऐसे डॉ. शिवकुमार ओझाजी का संतपदपर विराजमान होने में आश्‍चर्य कैसा ?’

– परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी

 

१. ऐसे हुई पू. (डॉ.) ओझाजी के संतपदपर विराजमान होने की घोषणा !

कार्यक्रम के आरंभ में श्री. नागेश गाडे ने डॉ. शिवकुमार ओझाजी द्वारा भारतीय संस्कृति के उत्थान हेतु किए गए कार्य की जानकारी दी । श्री. गाडे ने कहा, ‘‘डॉ. ओझाजी धर्मशोधकर्ता हैं । उन्हें धर्म में रूचि है । उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ ज्ञान के भण्डार हैं । ज्ञानशक्ति के द्वारा हिन्दुत्व के लिए निरपेक्षभाव से कार्य करनेवाले डॉ. ओझाजी सच्चे भारतरत्न हैं । अध्यात्म का अध्ययन कर ज्ञान आत्मसात करनेवाले तथा उसके अनुसार आचरण करना और उस ज्ञान का प्रसार करना, इन तीनों अंगों का सार्थकरूप से पालन किया । उसके कारण वे शीघ्रगति से ईश्‍वरप्राप्ति की ओर अग्रसर हैं । कलियुग में विद्यमान रज-तम के प्रभाव के कारण ज्ञानमार्ग के अनुसार साधना कर आध्यात्मिक उन्नति करना बहुत कठिन होता है; परंतु निर्मलता, जिज्ञासा एवं वैदिक धर्म के प्रति दृढ श्रद्धा के कारण डॉ. ओझाजी ने असंभव को संभव बनाया । इन विविध गुणों के कारण ही डॉ. ओझाजी संतपदपर विराजमान हुए हैं । इस कलियुग में हम डॉ. ओझाजी के रूप में ज्ञानमार्ग के अनुसार साधना कर संतपद प्राप्त करने का दुर्लभ उदाहरण देख रहे हैं ।’’

 

२. पू. (डॉ.) ओझाजी द्वारा व्यक्त मनोगत

२ अ. पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी भारतीय संस्कृति
का अध्ययन किया, तो स्वभाषा के प्रति प्रेम जागृत होगा ।

२ अ १. अधिकांश अधिवक्ताओं को ‘न्यायदर्शन’ ग्रंथ का नाम भी ज्ञात न होना

हिन्दुओं में धर्म के प्रति बहुत अज्ञान है । अधिवक्ताओं को भी धर्म की शिक्षा नहीं है । महर्षि गौतमजी द्वारा रचित ‘न्यायदर्शन’ ग्रंथ में ‘वास्तविक न्याय क्या है ?’, इस विषय में लिखा गया है । इस ग्रंथ का अध्ययन करना तो दूर; परंतु अधिकांश अधिवक्ताओं को इस ग्रंथ का नाम भी ज्ञात नहीं है । आज न्याय की व्याख्या प्रमाणोंपर आधारित निर्णय करनेतक ही सीमित है ।

२ अ २. स्वभाषा का ज्ञान न होने के कारण ज्ञान का स्तर गिर रहा है !

हमारे विद्वानों का हिन्दू धर्म का अध्ययन नहीं है, जिससे कि उनकी विद्वता न्यून हुई है । स्वभाषा में शिक्षा न लेने से छात्रों को अल्प मात्रा में ज्ञान मिल रहा है और साथ ही उससे ज्ञान का स्तर भी गिर रहा है । जीवन से संबंधित अनेक संस्कृत शब्दों का अर्थ ज्ञात न होने से लोगों को जीवन का अर्थ भी समझ में नहीं आता । भारतीय भाषाएं बोली गईं तथा उनका अध्ययन होने लगा, तो उससे हमें बडी मात्रा में ज्ञान मिलकर हमारा आत्मविश्‍वास बढेगा । भारतीय संस्कृति के अध्ययन से स्वभाषा के प्रति प्रेम जागृत होगा । भारतीय संस्कृति यदि आईआईटी, मुंबई में सिखाई जा सकती है, तो वह अन्य स्थानोंपर भी सिखाई जा सकती है । भारतीय संस्कृति के अध्ययन से स्वयं के प्रति आत्मविश्‍वास बढेगा । भाषा देश की संस्कृति को दर्शाती है । स्वभाषा के अक्षर और शब्दों का अर्थ है । आज की पीढी को आधिभौतिक एवं आधिदैविक बातों की शिक्षा देना आवश्यक है ।

 

३. पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझा की विनयशीलता !

जब उनसे यह पूछा गया कि संतपदपर विराजमान होनेपर आपको क्या लगता है ?, तो (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी कहने लगें, ‘‘मैं अज्ञानी हूं । मुझे कोई भी बात परिपूर्ण पद्धति से ज्ञात नहीं है । ऋषी-मुनि और महात्माओं ने जो कुछ लिखा है, उसे मैने समझकर लेने का प्रयास किया है । सत्य की सदैव ही जीत होती है; अतः हिन्दू राष्ट्र निश्‍चितरूप से आएगा ।’’

 

४. विहंगम गति से आध्यात्मिक उन्नति करनेवाले पू. (डॉ.) ओझाजी !

वर्ष २०१६ में रामनाथी, गोवा में संपन्न पंचम अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन में (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी द्वारा ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किए जाने की घोषणा की गई । उसके पश्‍चात वर्ष २०१७ में उनका स्तर ६२ प्रतिशत और वर्ष २०१८ में ३ प्रतिशत बढकर वह ६५ प्रतिशत हुआ था । अब वर्ष २०१९ में उनका आध्यात्मिक स्तर ७१ प्रतिशत अर्थात ६ प्रतिशत बढा है । इतनी विहंगम गति से की गई उन्नति के कारण उनका धर्म के प्रति समर्पण कितनी उच्च कोटि का है, यह ध्यान में आता है ।

 

५. साधक द्वारा व्यक्त मनोगत !

५ अ. पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी में नया सिखने की
बहुत तडप है, साथ ही उनमें विनम्रता भी है । – श्री. रूपेश रेडकर

पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी को सनातन प्रभात नियतकालिकों के संदर्भ में जानकारी देते हुए श्री. रूपेश रेडकर

मुझे पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी को आश्रम दिखाने की सेवा मिली । अन्य समयपर किसी जिज्ञासु को संपूर्ण आश्रम दिखाने में २ घंटे लगते हैं; किंतु पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी को आश्रम देखने में ३ घंटे लगे । उनमें नया कुछ सिखने की बहुत तडप है । वे किसी भी बात के संदर्भ में प्रश्‍न पूछकर अधिकाधिक जानकर लेने का प्रयास करते हैं । जब वे सनातन संस्था के बालसंत पू. भार्गवरामजी से मिले, तब पू. भार्गवरामजी केवल २ वर्ष के हैं; परंतु संत हैं; इसलिए उन्होंने उन्हें तुरंत नमस्कार किया, साथ ही उनकी मां को भी वे संतमाता हैं; इसलिए भी नमस्कार किया । सनातन संस्था के दिव्यांग संत पू. सौरभ जोशीजी से भेंट के समय भी पू. ओझाजी ने उन्हें भावपूर्ण नमस्कार किया । इन दोनों प्रसंगों से उनमें विद्यमान विनम्रता दिखाई दी ।

 

६. भारतीय संस्कृति के उत्थान हेतु
अपना जीवन समर्पित करनेवाले पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी !

६ अ. पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी के विशेष प्रयासों के कारण
‘आईआईटी मुंबई’ में ‘भारतीय संस्कृति’ विषय की शिक्षा आरंभ होना

पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी मुंबई के आईआईटी में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । इस अवधि में उन्होंने विविध शैक्षणिक एवं प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन किया, साथ ही विदेश में भी अध्ययन का कार्य किया । सेवानिवृत्ति के पश्‍चात उनमें भारतीय संस्कृति को जानकर लेने की रूचि बढी और उसके पशचात भारतीय संस्कृति ही उनके अध्ययन और अध्यापन का क्षेत्र बना । उनके विशेष प्रयासों के कारण ही मुंबई के आईआईटी में ‘भारतीय संस्कृति’ की शिक्षा देना आरंभ हुआ । साथ ही उन्होंने इस विषयपर स्वयं अध्यापन कर वहां के छात्रों में भारतीय संस्कृति के प्रति रूचि उत्पन्न की । पू. (डॉ.) ओझाजी वहां जितने समयतक ‘भारतीय संस्कृति’ विषय के प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे, उतनी अवधि में इस विषय की शिक्षा लेनेवालों की संख्या प्रतिदिन बढती ही जा रही थी ।

६ आ. पू. (डॉ.) शिवकुमार ओझाजी द्वारा प्रकाशित ग्रंथों की विशेषता !

पू. (डॉ.) ओझाजी ने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत आदि विषयोंपर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । ‘भारतीय संस्कृति महान एवं विलक्षण’ नामक ६६९ पृष्ठोंवाला उनका ग्रंथ सनातन वैदिक संस्कृति का सारांशरूपी ग्रंथ है ।

६ इ. पू. (डॉ.) ओझाजी एवं सनातन संस्था !

पू. (डॉ.) ओझाजी में सनातन संस्था के कार्य के प्रति विशेष आस्था है । वे सदैव ही सनातन संस्था के कार्य की प्रशंसा करते हैं, साथ ही उनके सान्निध्य प्राप्त करनेवाले साधकों को भी पितासमान प्रेम देते हैं । इस ऋणानुबंध के कारण अब वे सनातन परिवार के ही एक सदस्य लगते हैं । सनातन संस्था के प्रति प्रेम के कारण ही उन्होंने वर्ष २०१८ के सप्तम अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन में अपने कुछ ग्रंथों का लोकार्पण किया था ।

स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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