मृत्युपरांत के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म करना महत्वपूर्ण क्यों हैं ?

१. मृत्युपरांत के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म करना महत्वपूर्ण क्यों हैं ?

मृत्युपरांत के क्रियाकर्म को श्रद्धापूर्वक एवं विधिवत् करने पर मृत व्यक्ति की लिंगदेह भूलोक अथवा मृत्युलोकमें नहीं अटकती, वह सद्गति प्राप्त कर आगे के लोकों में बढ सकती है । पूर्वजों की अतृप्ति के कारण, परिजनों को होनेवाले कष्टों तथा अनिष्ट शक्तियों द्वारा लिंगदेह के वशीकरण की संभावना भी अल्प हो जाती है ।

२. मृत्यु के समय मुख में भगवान का नाम होने का क्या महत्व है ?

‘जिस क्षण जीव मरता है, उसके देह की सूक्ष्म ऊर्जा सूक्ष्म वायुओं के रूप में उसकी देह में कार्यरत होती है और इनके आधार पर उसे आगे की गति प्राप्त होती है । नामसाधना न करनेवाला मनुष्य अनेक वर्षों तक एक ही योनि में अटके रहता है अथवा अनिष्ट शक्तियां उसे अपने वश में कर लेती हैं और मनचाहे ढंग से काम करवाती हैं । ऐसे लिंगदेहों को आगे की गति प्राप्त करवाने हेतु श्राद्धकर्म द्वारा बाह्य बल देना आवश्यक होता है ।

३. मरणासन्न व्यक्ति से नमक-रोटी का उतारा क्यों दिलवाना चाहिए ?

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स्त्रीणां शूद्रजनस्य च ।।
आतुरस्य यदा प्राणान् नयन्ति वसुधातले ।
लवणं तु तदा देयं द्वारस्योद्घाटनं दिवः ।।
– गरुडपुराण, अंश ३, अध्याय १९, श्लोक ३१, ३२

भावार्थ : मरणासन्न व्यक्ति के प्राण न छूट रहे हों, तो उसके हाथों से नमक का दान करवाएं । ऐसे करना, यह उस व्यक्ति के लिए स्वर्ग का द्वार खोलने समान है । नमक का दान एक पद्धति है । दूसरी पद्धति में नमक-रोटी का उतारा देते हैं । इन दोनों पद्धतियों का आधारभूत आध्यात्मशास्त्र आगे दिए अनुसार है ।

‘कई बार मृत्यु के समय अनिष्ट शक्तियां लिंगदेह पर नियंत्रण पाने के लिए आपस में लडती हैं अथवा उनमें इसके लिए होड लग जाती है, इस कारण मरणासन्न व्यक्ति के प्राण, देह में अटके रहते हैं और मरणासन्न व्यक्ति को बहुत यातनाएं सहनी पडती हैं । इसलिए मरणासन्न व्यक्ति के हाथों से नमक का दान करवाने पर अथवा उसके हाथों से नमक-रोटी का उतारा देने पर, मर्यादित काल के लिए, उस व्यक्ति पर अनिष्ट शक्तियों की पकड ढीली हो जाती है और वह व्यक्ति देह से प्राणों का त्याग सुलभता से कर सकता है । जिन घरानों में पूर्वजों की अतृप्ति के कारण कष्ट तीव्र है, उनके सदस्यों को प्राण त्यागते समय इसी प्रकार के कष्ट होते हैं । दत्तात्रेय देवता की उपासना से ऐसे कष्टों से मुक्त हो सकते हैं, अर्थात अंततः साधना ही अनिवार्य है ।’

३. मृत्यु से पूर्व की सिद्धता कैसे करें ?

जिस समय परिजनों के ध्यान में आता है कि व्यक्ति का प्राणोत्क्रमण होने का समय निकट आ गया है, उस समय घर में ही गोबर से लीपी गई भूमि पर दर्भ फैलाकर उस पर घास की चटाई, छोटा कंबल, रग अथवा लोई (ऊन की मोटी धोती) बिछाकर उस पर उस व्यक्ति को दक्षिणोत्तर (दक्षिण की ओर पैर रखकर) रखना (सुलाना) चाहिए । भूमि गोबर से लीपना संभव न हो, तो भूमि पर गोमय (गाय का गोबर) अथवा विभूति का जल सिंचन (छिडकें) करें । उस व्यक्ति के मुख में गंगाजल डालें ।

४. अर्थी के लिए केवल बांस का ही उपयोग क्यों करते हैं ?

‘बांस के खोखल में गोलाकार घूमती नादशक्ति से प्रक्षेपित नादतरंगों के प्रभाव से वायुमंडल में सूक्ष्म अग्नि की ज्वाला निर्माण होती है । इन तरंगों से अभिमंत्रित वायुमंडल की कक्षा में, अर्थात अर्थी पर मृतदेह रखने से उसकी चारों ओर सुरक्षा-कवच निर्माण होता है । भूमि पर उक्त तरंगों का सूक्ष्म-आच्छादन निर्माण होने से, अर्थी पर अधिकांश समय तक रखी मृतदेह पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों से सुरक्षित रहती है । इससे मृतदेह के पास आनेवाली अनिष्ट शक्तियों पर अंकुश लगाना संभव हो जाता है ।’

५. किसी की मृत्यु पर परिवार के पुरुषों को सिर
क्यों मुंडाना चाहिए एवं स्त्रियों को क्यों नहीं ?

‘परिवार में किसी की मृत्यु पर घर का वातावरण रज-तमात्मक हो जाता है । मृत जीव का लिंगदेह कुछ समय के लिए उस वास्तु में अथवा परिजनों के आसपास ही घूमता रहता है । मृत जीव की लिंगदेह से प्रक्षेपित वेगवान रज-तमात्मक तरंगें परिजनों के केश के काले रंग की ओर आकर्षित होती हैं । वातावरण की रज-तमात्मक तरंगों को खींचने का कार्य केश करते हैं । इस कारण परिजनों को सिर में वेदना होना, सिर सुन्न होना, अस्वस्थता इत्यादि कष्ट हो सकते हैं । मृत्योत्तर क्रियाकर्म करनेवाले पुरुषों का प्रत्यक्ष विधि में सहभाग होता है, इस कारण उन्हें कष्ट की संभावना अधिक होती है । इस कष्ट से बचने हेतु सिर मुंडाना आवश्यक होता है । यह कष्ट न हो इसके लिए उनका केश पूर्णतः काटना आवश्यक होता है ।

हिन्दू धर्म में स्त्री को आदिशक्ति की अप्रकट शक्ति का प्रतीक माना गया है । इसलिए हिन्दू धर्म में स्त्री का बहुत आदर किया जाता है । स्त्रियों के लंबे केश शालीनता का दर्शक हैं एवं स्त्रियों का केश काटना हिन्दू धर्म के विरुद्ध है । सत्वगुणप्रधान स्त्री के केश अधिकांशतः लंबे होते हैं । केश के अग्रभाग से प्रक्षेपित शक्तिरूपी सत्व-रज तरंगों के कारण एक प्रकार से स्त्री की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा ही होती है । इसलिए सामान्यतः स्त्रियों का केश काटना निषिद्ध अथवा अपवित्र माना जाता है ।

इसके विपरीत ‘पुरुष’ कार्यरत शक्ति का प्रतीक होते हैं । परिवार में किसी की भी मृत्यु के उपरांत उसके क्रिया-कर्म का उत्तरदायित्व पूर्णतः पुरुषों पर ही होता है । इसलिए पुरुष सिर मुंडाते हैं ।’

– श्री गुरुतत्व (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ९.८.२००४, दोपहर २.५१़

संदर्भ : सनातन- निर्मित लघुग्रंथ – ‘मृत्युपरांत के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म´

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