संत ज्ञानेश्‍वर महाराजजी द्वारा रचित ज्ञानेश्‍वरी के अनमोल ज्ञानमोती !

भगवान का प्रिय भक्त कौन होता है ?

हें विश्‍वचि माझें घर । ऐसी मती जयाची स्थिर ।
किंबहुना चराचर । आपण जाहला ॥ – ज्ञानेश्‍वरी, अध्याय १२, ओवी २१३

अर्थ : जिसकी दृढ श्रद्धा है कि ‘संपूर्ण विश्‍व ही मेरा घर है’; इतना ही नहीं अपितु जो स्वयं को चराचर सृष्टि ही मान ले, ऐसा भक्त ।

संतों का आचरण

मार्गाधारें वर्तावे । विश्‍व हें मोहरे लावावें ॥
अलौकिका नोहावें लोकांप्रती । – ज्ञानेश्‍वरी, अध्याय ३, ओवी १७१

अर्थ : मन:पूर्वक कर्मयोग का आचरण कर, जो जगत को मुग्ध कर लें; परंतु लोगों में आसक्ति न रखे ।

आत्मज्ञान का अधिकार किसे होता है ?

वाचस्पतीचेनि पाडें । सर्वज्ञता तरी जोडे ।
परि वेडिवेमाजि दडे । महिमे भेणें ॥
चातुर्य लपवी । महत्त्व हारवी ।
पिसेपण मिरवी । आवडोनि ।
लौकिकाचा उद्वेगु । शास्त्रांवरी उबगू ।
उगेपणी चांगु । आथी भरु ॥
जगेें अवज्ञाचि करावी ।
संबंधीं सोयचि न धरावी ।
ऐसी ऐसी जीवीं । चाड बहु ॥ – ज्ञानेश्‍वरी, अध्याय १३, ओवी १९१ ते १९३

अर्थ : यद्यपि बृहस्पति समान सर्वज्ञता हो, तब भी अपना महत्त्व लोगों में बढेगा, इस भय से जो पागलों समान आचरण करता है, जो कीर्ति से दूर रहना चाहता है, प्रवृत्तिशास्त्रों पर वाद-विवाद करने की अपेक्षा शांति से बैठने में जिसकी रुचि होती है, उसे ही ज्ञान प्राप्त होता है । लोग अपमान करें और सगे-संबंधी चिंता न करें, जिसे इन बातों में विशेष रुचि होती है, उसे ज्ञान प्राप्त होता है ।

स्थिरबुद्धि के लक्षण

तैसीं इंद्रियें आपैतीं होती । जयाचें म्हणितलें करिती ।
तयाची प्रज्ञा जाण स्थिति । पातली असे ॥ – ज्ञानेश्‍वरी, अध्याय २, ओवी ३०२

अर्थ : जिसकी इंद्रियां स्वाधीन होती है और वह जो भी कहता है उसकी इंद्रियां उसकी आज्ञानुसार ही चलती हैं, समझो उनकी ही बुद्धि स्थिर हो गई है ।’

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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