निरोगी शरीर के लिए परिहार के विरुद्ध आहार लेना टालें !

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अनुक्रमणिका

१. परिहाराविरुद्ध आहार सेवन से सूजन आना

भोजन के उपरांत क्या करें अथवा किस प्रकार के आहार के उपरांत क्या पीएं ? इसके भी कुछ नियम हैं । उस नियम को तोडने को कहते हैं ‘परिहार विरुद्ध आहार’ ! भूमि पर पालथी डालकर भोजन के लिए बैठें एवं भोजन के पश्चात पैर की ओर रक्त की आपूर्ति ठीक से हो, इसके लिए थोडा टहलना चाहिए, ऐसा नियम है; परंतु आज की ‘बफे’ अर्थात चलते-चलते खाने से पैर की ओर रक्तप्रवाह जाता ही है । ऐसे समय पर पुन: १०० कदम चलने की क्या आवश्यकता ? तला हुआ, भरपूर चीज अथवा बटरयुक्त स्निग्ध पदार्थ का सेवन करने पर वह कहीं भी चिपका न रह जाए; इसलिए गरम पानी पीना चाहिए । आज बटर एवं चीजयुक्त पावभाजी, पिज्जा, बर्गर जैसे पदार्थाें पर शीतपेय पीने की पद्धति है । यह परिहाराविरुद्ध है । इसलिए सूजन आने जैसी बीमारिया हों सकती हैं ।

 

२. अल्प पके हुए अथवा कच्चे पदार्थाें के कारण
पेट के विकारों का उद्भव होने से उनका सेवन करना टालें !

एक लडके को मलेरिया हो गया था । मलेरिया में मूलत: भूख एवं पचनशक्ति अत्यंत अल्प हो जाती है । उस पर औषधियों के सेवन से तो भूख एकदम नष्ट हो गई थी । ऐसे में उसे बहुत थकान और कमजोरी हो गई थी । अत: उस स्थिति से उसे शीघ्र से शीघ्र बाहर निकलने के लिए उस लडके को पौष्टिक आहार के रूप में कच्ची सब्जियां (सलाड) एवं अंकुरित अनाज कच्चे स्वरूप में देना आरंभ किया । ८ दिनों में उसे पुन: ज्वर आया । इस समय उसकी सर्व जांच हुई; परंतु ज्वर का कारण पता नहीं चल रहा था । पचनशक्ति न्यून होते हुए एवं ऐसे कच्चे अथवा अधकच्चे पदार्थ खाना, यह विरुद्ध आहार है । ‘चायनीज’ पदार्थाें में सब्जी एवं चावल बहुतांश बार अधपके होते हैं । उपाहारगृह में तंदूरी रोटी, उत्तप्पा, डोसा जैसे पदार्थ भी कई बार बाहर से जले हुए, तो अंदर से कच्चे होते हैं । ऐसे पदार्थाें के सेवन से असंख्य विकार हो सकते हैं ।

 

३. संयोगविरुद्ध पदार्थ के एकत्र सेवन से
त्वचाविकार अथवा रक्तक्षय होने की संभावना बढना

आहारशास्त्र में कुछ पदार्थ एकत्र करना निषिद्ध बताया है । शराब, खिचडी, खीर एवं दूध, केले, नारियल पानी, दही, छाछ गुट के कोई भी २ पदार्थ एकत्र कर खाना, यह संयोगविरुद्ध है । इस प्रकार के आहार से रस एवं रक्त धातु बिगडने से त्वचाविकार एवं रक्तक्षय जैसे रोग होने की संभवना बढ जाती है ।

 

४. मन के विरुद्ध किए आहार का
पोषण न होने से उसका शरीर के लिए उपयोग न होना

८ वर्ष के एक लडके को दूध पसंद नहीं था; परंतु विज्ञापन देख-देख कर उसकी मां का कहना था कि दूध नहीं लेगा, तो उसका विकास कैसे होगा ? प्रतिदिन वह माता बलपूर्वक दूध पिलाती और वह उसके १५ मिनटों पश्चात उलटी कर बाहर निकाल देता । जब उस माता से पूछा, ‘वह उलटी कर देता है, तो क्यों उसे देती हो ?’ इस पर वह बोली, ‘१५ मिनट पेट में रहता है, तो उस समय कुछ भाग तो अवशोषित होता होगा न ? उतना लाभ ही सही !’ ऐसे अरुचिकर पदार्थ मन के विरुद्ध बलपूर्वक खिलाने पर इसे ‘हृदयविरुद्ध’ कहते हैं ।

बडे लोग स्वयं को रुचिकर पदार्थ खाने एवं अरुचिकर पदार्थ न खाने के लिए छूट लेते हैं । सक्ती होती है तो छोटे बच्चों पर ! दूध, हरी सब्जियां, करेला, हरा शाक इत्यादि अरुचिकर पदार्थ उन्हें बलपूर्वक खाने पडते हैं । अभिभावकों ने तो अपने बचपन में वह नहीं खाया था; परंतु बच्चों को छूट नहीं । पदार्थ पौष्टिक होने पर भी वह मन के विरुद्ध ग्रहण करने पर, वह कैसे शरीर को लगेगा ?

 

५. कीडे लगे, सडा हुआ, फफूंद लगा हुआ एवं
सूखा पदार्थ शरीर के लिए हानिकारक होने से संपतविरुद्ध आहार लेना टालें !

एक बार मंडी में एक गृहिणी सब्जीवाले से ५ रुपयों के लिए वाद-विवाद कर रही थी, ‘बहुत मंहगी सब्जी तुम बेच रही हो, यहां मैं सदैव सब्जी लेने आती हूं, दूसरे सब्जीवालों के पास सस्ती है’, सब्जीवाला ऊब कर बोला, ‘‘अरे बहनजी, यह चुनी हुई अच्छी सब्जी है । इसमें जो खराब सब्जी थी, उसे हमने अलग बोरे में भरकर रखी है । यहां आसपास के उपाहारगृहवाले यह खराब सब्जी लेकर जाते हैं । वहां आप उतने पैसे देकर सब्जी खाते हैं और निर्धन को ५ रुपयों के लिए आनाकानी करते हैं ।’’ वह खराब सब्जी देखकर ही मुझे मितली-सी आने लगी । आहार पदार्थ गुणसंपन्न होना आवश्यक होता है । कीडे लगा, फफूंद लगा एवं सूखा पदार्थ उत्तम एवं शुद्ध शरीरघटक बन ही नहीं सकता ।

‘बिस्किट बनानेवाले अनेक विख्यात आस्थापन कीडे लगे खराब अनाज का उपयोग करते हैं’, यह मुझे एक अन्न निरीक्षक ने बताया था । ‘रेडी टू कुक’ (पकाने के लिए तैयार) पदार्थाें में तो सूखी हुई सब्जियां जानबूझकर उपयोग की जाती हैं । मेरी एक सहेली पैसे बचाने के लिए रात में देर से भाजी-तरकारी लेने जाती थी । शेष रह गई तरकारी उसे अत्यंत कम भाव में मिलती थी; परंतु वह लोगों द्वारा रखा हुआ कचरा ही होता था । उस तरकारी में बचनेवाले पैसे एवं उससे होनेवाले रोगों में व्यय होनेवाला पैसों का लेखा-जोखा करके उसे एक बार दिखाया । ऐसा गुणसंपन्न विहीन आहार अर्थात संपतविरुद्ध आहार है ।

 

६. अन्नपचन होने के लिए पदार्थ उष्ण, ताजे, स्निग्ध होना
आवश्यक होते हुए भी वह एकाग्रचित्त से एवं पेट में कुछ रिक्त स्थान रखकर लें !

‘आयुर्वेदीय आहारमंत्र’ नामक मेरी इस पुस्तक में भोजनविधि की विस्तृत जानकारी दी है । भूख लगनेपर हाथ स्वच्छ धोकर उष्ण, ताजे, स्निग्ध पदार्थ एकाग्रचित्त से एवं पेट में थोडी जगह रखकर खाएं, ऐसे कुछ नियम हैं । ढाबे पर बैठकर लिया गया आहार ‘विधिविरुद्ध आहार’ है ।

‘एकाग्र चित्त से खाएं’, ऐसा नियम है । इसलिए हम क्या खाते हैं, इस ओर हमारा लक्ष्य रहता है । सुग्रास अन्न का आनंद मन भी ले सकता है; परंतु वर्तमान में दूरचित्रवाणी के सामने बैठकर उसमें एकाग्र होकर भोजन की पद्धति है । तब सामने चल रहे धारावाहिक अथवा समाचारों में तीव्र भावना अपने मन पर राज्य करती है । शास्त्र कहता है कि तुम्हारा आहार कितना भी पोषक, हलका एवं उत्तम हो, तब भी उसे लेते समय मन में काम, क्रोध, मद, मत्सर एवं लोभ ऐसी भावनाएं हों, तो उनका योग्य पचन नहीं होता ।

 

७. ऋतुनुसार उपलब्ध फल, भाजी-तरकारी,
अनाज एवं त्योहारों के अनुरूप की जानेवाली
पाककृतियों में विविधता होने से वे आरोग्य के लिए हितकारी होना

आहार के ऐसे वर्ज्य-परहेज नियम सुनना किसी को भी पसंद नहीं । वे तुरंत वैद्यों को व्यंगात्मक प्रश्न करते हैं कि ‘इतना सब बताने की अपेक्षा क्या खाना है वह बताएं ?’ जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और खाने से स्वास्थ्य बिगडता है; इसलिए ‘अमुक पदार्थ न खाएं’, ऐसा पहले ही बताना पडता है । ‘जो खाना नहीं है, उसके विरुद्ध खाएं’, यह एक सादा नियम है, उदा. नियमविरुद्ध खाना नहीं, इसी का अर्थ है आहार नियमानुसार करें । ‘अग्निविरुद्ध न खाएं’, इसका ही अर्थ है अग्निनुसार अथवा भूख के अनुसार खाएं । जिन पदार्थाें को खाने की आदत नहीं, वे न खाएं । तब भी ‘न खाएं’ यह सूची देखकर ‘अपने खाने पर भारी बंधन आए हैं ।’, ऐसा लोगों को अकारण ही लगता है ।

वास्तव में हम शहर के लोग काफी प्रकार के पदार्थ खाते हैं । ‘जग के सभी प्रकार के पदार्थ मैं खा पाऊं’, ऐसा हठ छोडना चाहिए । सभी प्राणी उनकी उत्पत्ति से आजतक कुछ चुनिंदा पदार्थ ही खाते हैं कि नहीं, वह देखें । जंगल में एकदूसरे को देखकर वे अपने आहार में विविधता लाने का प्रयत्न करते हैं क्या ? हमारे निरोगी पूर्वज एवं आज भी जग में देखे जानेवाले निरोगी जमाती के आहार में अपने आहार समान विविधता नहीं पाई जाती । ऋतुनुसार उपलब्ध फल, भाजी-तरकारी, अनाज, इसके साथ ही त्योहारों के अनुरूप की जानेवाली पाककृतियों में पर्याप्त विविधता है । वह आरोग्य के लिए हितकारक भी है । अन्य देशों के पदार्थ एवं कृत्रिम खाद्यपदार्थ की आवश्यकता नहीं लगेगी, इतना भारतीय पाकशास्त्र संपन्न है । इसलिए क्या खाएं ? इसका सरल उत्तर है हमारे परदादा-परदादी द्वारा सेवन किए गए ऋतुअनुसार ही पदार्थ खाएं ।

 

८. जीभ के चोंचले पूरे करने हों, तो
भरपूर शारीरिक कष्ट कर अपनी पचनशक्ति उत्तम करनी होगी !

‘फिर ये सभी पदार्थ हमें क्या जीवनभर नहीं खाने हैं क्या ?’, ऐसा पूछनेवाले व्यक्ति अपने मन में पक्की गांठ बांध लें कि नियम के विरुद्ध भोजन पचने के लिए पचनशक्ति उत्तम होनी चाहिए । उत्तम पचनशक्ति एक तो प्रकृति में होती है, अर्थात अनुवंशिक प्राप्त होती है या फिर हमें वह प्राप्त करनी होती है । उसे प्राप्त करने के लिए शारीरिक कष्ट करना, यह एकमेव मार्ग है । शहरी जीवन में हम बहुत यंत्रावलंबी हो गए हैं । ‘न्यूनतम कष्ट एवं अधिकाधिक आहार’, यह गलत धारण हमने अपना ली है । जिसे अपनी जीभ के सर्व चोंचले पूरे करने हों, वे अपने लिए, परिवार के लिए, कुटुंब के लिए एवं देश के लिए भरपूर शारीरिक कष्ट कर कडी भूख लगे और पत्थर भी पच जाए, ऐसी व्यवस्था पहले करें । प्रकृति ने खाने का अधिकार केवल परिश्रमी लोगों को दिया है । उनके इस नियम से हमारा छुटकारा नहीं । तब आरोग्यसंपन्न भारत के लिए अब हम ‘परिश्रमी भारत अभियान’ आरंभ करेंगे !

– वैद्या सुचित्रा कुलकर्णी (साभार : दैनिक ‘तरुण भारत’) (२९.१२.२०१९)

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