शृंगदर्शनकी पद्धति

१. शिव शब्दकी व्युत्पत्ति एवं अर्थ

शिव शब्द ‘वश्’ शब्दके अक्षरोंके क्रम बदलनेसे बना है । ‘वश्’ यानी प्रकाशित होना, अर्थात शिव वह है जो प्रकाशित है । शिव स्वयंसिद्ध एवं स्वयंप्रकाशी हैं । वे स्वयं प्रकाशित रहकर संपूर्ण विश्वको भी प्रकाशित करते हैं । शिव अर्थात मंगलमय एवं कल्याणस्वरूप तत्त्व । शिव अर्थात ईश्वर अथवा ब्रह्म एवं परमशिव अर्थात परमेश्वर अथवा परब्रह्म । संपूर्ण विश्वमें शिवजीका विविध नामोंसे पूजन किया जाता है । शिवजीमें पवित्रता, ज्ञान एवं साधना, ये तीनों गुण परिपूर्णतः विद्यमान हैं । इसलिए उन्हें ‘देवोंके देव’, अर्थात ‘महादेव’ कहते हैं । शिवजी सहजतासे प्रसन्न होनेवाले देवता हैं, इसलिए उन्हें आशुतोष भी कहते हैं । शिवजी मृत्युके देवता हैं । उन्हें मृत्युंजय कहते हैं । शिवजी भक्तोंके अज्ञानको, अर्थात सत्त्व, रज एवं तमको एक साथ नष्ट कर उन्हें त्रिगुणातीत करते हैं । माता पार्वती, कार्तिकेय, गणपति, शिवगण, शिवदूत एवं उनका वाहन नंदी, यह शिवजीका परिवार है ।

 

२. नंदी

 

वृषभरूपमें नंदी शिवजीका वाहन है । उन्हें शिवजीके परिवारमें महत्त्वपूर्ण स्थान है । नंदीको विकसित पौरुषका प्रतीक माना गया है ।

 

३. नंदीकी मूर्तिका भावार्थ

नंदीकी मूर्ति ध्यानसे देखें, तो वह तीन पैर घुटनेके बल एवं एक पैर आधा खडा कर बैठे दिखाई देते हैं । नंदीके आगेके दो पैर अर्थात एवं सत्य तप । उनके पिछले दो पैर अर्थात दया एवं दान । सत्य, तप, दया एवं दान ये चार धर्म के अंग हैं । सत्ययुगमे धर्म इन चारों अंगोंसे परिपूर्ण था । त्रेतायुगमें धर्मके तप, दया एवं दान ये तीन अंग शेष रह गए । द्वापरमें तपकी मात्रा अल्प होती गई । धर्मके दया एवं दान ये दो अंगही बचे । कलियुगमें सत्य, तप एवं दया न के बराबर होकर धर्मका दान यह एकही अंग बच गया । इस प्रकार नंदीका आधा खडा पैर धर्म एकचतुर्थांश शेष बचा है, इस बातका प्रतीक है । शिवालयमें प्रवेश करतेही हमें पहले दर्शन होते हैं, नंदीके । शिवजीके दर्शनसे पूर्व नंदीके दर्शन किए जाते हैं । उसके उपरांत शृंगदर्शन अर्थात नंदीके सींगोंके बीचसे शिवपिंडीके दर्शन किए जाते हैं ।

 

४. शृंगदर्शनकी पद्धति

 

श्री गुरुचरित्रमें बताए अनुसार शृंगदर्शन करते समय, नंदीके पिछले पैरोंके निकट बैठकर अथवा खडे रहकर बाएं हाथको नंदीके वृषणपर रखें । उसके उपरांत दाहिने हाथकी तर्जनी अर्थात अंगूठेके निकटकी उंगली एवं अंगूठा नंदीके दो सींगोंपर रखें । दोनों सींग एवं उसपर रखी दो उंगलियोंके बीचके रिक्त स्थानसे शिवलिंगको निहारें । नंदीके वृषणको हाथ लगानेका अर्थ है, कामवासनापर नियंत्रण रखना । ‘सींग’ अहंकार, पौरुष एवं क्रोधका प्रतीक है । सींगोंको हाथ लगाना अर्थात अहंकार, पौरुष एवं क्रोधपर नियंत्रण रखना । शृंगदर्शनके समय होनेवाले सूक्ष्म-परिणामोंको समझ लेते है, एक सू्क्ष्म-चित्रद्वारा :

 

 

शिव पिंडीमें ॐ कारका निर्गुण स्वरूप विद्यमान रहता है । शिवपिंडीकी सर्व और आनंदका वलय कार्यरत रहता है । इसके साथही चैतन्यका वलय कार्यरत रहता है । शिवपिंडीकी सर्व और शक्तीका वलय भी कार्यरत रहता है । शिंग दर्शन के लिए रिक्त स्थान बनता है । इससे इन शक्ती, चैतन्य एवं आनंद के वलयोंद्वारा निर्गुण स्वरूप चैतन्य के प्रवाह व्यक्तीकी ओर प्रक्षेपित होते है । शिंग दर्शन करनेसे नंदीके सिंगोद्वारा तर्जनी एवं अंगुठीके माध्यमसे शक्तीकी तरंगे व्यक्तीके देहमें प्रविष्ट होती है । इस सू्क्ष्म-चित्रद्वारा शृंगदर्शन करनेका महत्त्व हमारे ध्यानमें आया होगा ।

 

५. शृंगदर्शनसे होनेवाले लाभ

यह समझ लेनेसे हमारी इस कृतिसे श्रद्धा अधिक बढेगी । नंदी शिवजीके सामने लीनभावसे बैठा रहता है । वह शिवजीका परमभक्त है । उससे हमें लीनतासे ईश्वरके चरणोंमें पडे रहनेकी सीख मिलती है । शिवजी के मंदिरमें प्रवेश करनेपर प्रथम नंदीके दर्शन करनेसे हममें भी लीनता निर्माण होती है । इसी लीनताके साथ शृंगदर्शन करनेपर हमें विविध लाभ होते हैं ।

५ अ. शिवपिंडीसे प्रक्षेपित तेज सह पाना

सर्वसामान्य व्यक्ति शिवपिंडीसे प्रक्षेपित तेजको सह नहीं पाता । शृंगदर्शन करते समय नंदीके सींगोंसे प्रक्षेपित शिवतत्त्वकी सगुण मारक तरंगोंके कारण जीवके शरीरके रज-तम कणोंका विघटन होता है । तथा जीवकी सात्त्विकता बढती है । इससे शिवपिंडीसे निकलनेवाली शक्तिशाली तरंगोंको सह पाना जीवके लिए संभव होता है । नंदीके सींगोंसे दर्शन लिए बिना शिवजीके दर्शन करनेसे तेजतरंगोंके आघातसे विविध कष्ट हो सकते हैं, जैसे जीवके शरीरमें उष्णता निर्माण होना, सिर सुन्न होना, शरीरमें अचानक कंपकंपी होना ।

५ आ. शिवपिंडीसे शक्तिका प्रवाह अधिक कार्यरत होना

दाहिने हाथकी तर्जनी एवं अंगूठेको नंदीके सींगोंपर रखनेकी मुद्राके कारण श्रद्धालुओंको आध्यात्मिक स्तरपर अधिक लाभ होता है । इस मुद्राके कारण नलीके समान कार्य होता है । नलीसे वायु प्रक्षेपित करनेपर उसका वेग एवं तीव्रता बढ जाती है, इसके विपरीत पंखेकी वायु सर्वत्र पैâलती है । इस मुद्राके कारण शिवपिंडीसे प्रक्षेपित शक्तिका प्रवाह अधिक मात्रामें कार्य करता है ।

५ इ. शक्तिके स्पंदन संपूर्ण शरीरमें फैलना

शृंगदर्शनके लिए की गई इस प्रकार की मुद्रासे शक्तिके स्पंदन जीवके संपूर्ण शरीरमें फैलते हैं । इन स्पंदनोंके कारण जीवकी सात्त्विकता बढती है, जिससे वह शिवजीका तत्त्व अधिक मात्रामें ग्रहण कर सकता है ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शिव’

Leave a Comment