परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को अवतार कहने के पीछे क्या शास्त्र है, यह जानने की अपेक्षा उनपर टिपण्णी करनेवालों, इस बात की ओर ध्यान दीजिएं !

‘१८ तथा १९ मई को महर्षी की आज्ञा से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमृत महोत्सव संपन्न हुआ था । उस समय उन्होंने महर्षी की ही आज्ञा से श्रीकृष्ण एवं श्रीराम के वस्त्रालंकार धारण किए थे । इस समारोह पर कुछ बुद्धिप्रामाण्यवादी टिपण्णी कर रहे हैं । वास्तविक रूप से परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कभी भी स्वयं को ‘अवतार’ नहीं कहा है । सप्तर्षि जीवनाडीपट्टी के माध्यम से महर्षी ने ही बताया है कि, ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं श्रीविष्णु का अवतार हैं ।’ नाडीभविष्य एक प्रगल्भ ज्योतिषशास्त्र है । लक्षावधी वर्ष पूर्व सप्तर्षी ने शिव-पार्वती के बीच में हुआ संवाद सुना तथा वह नाडीपट्टी के माध्यम से शब्दबद्ध किया । तमिळ भाषा में विद्यमान इस प्रकार की अनेक नाडीपट्टियां आज भी तमिळनाडु के साथ अन्यत्र भी उपलब्ध हैं । अनेक लोगों की उस पर श्रद्धा है । साधकों की महर्षी पर श्रद्धा होने के कारण ही साधक उनका आज्ञापालन कर रहे हैं ।

इस से पूर्व भी अनेक शिवावतारी, साथ ही दत्तावतारी संत हुए हैं । दत्तावतारी संत प.प. टेंबेस्वामी महाराज, अक्कलकोट (जनपद सोलापुर) के श्री स्वामी समर्थ, स्वामी दत्तावधुत को ‘दत्तावतार’ के रूप में साथ ही शिवावतार के रूप में कोल्हापुर के प.पू. शामराव महाराज को समाज ने आदर का स्थान दिया है । उनके अवतार के संदर्भ में उस समय उनके भक्त तथा समाज के अनेक लोगों को अनुभूतियां भी आई हैं तथा अभी भी आ रही हैं । उन अवतारों के अनुसार परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी भी ‘श्रीविष्णु के अवतार’ इस रूप में संबोधित किए जा रहे हैं । उनके अवतारत्व के संदर्भ में अनेक साधक तथा धर्माभिमानियों को अनुभूतियां भी आ रही हैं ।

अध्यात्म के क्षेत्र में अमूल्य कार्य करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का आध्यात्मिक अधिकार महान है । उन्होंने साधना बताकर सहस्त्रों साधकों का जीवन आनंदी किया है । ‘अखिल मानवजाति के उद्धार हेतु हिन्दू राष्ट्र स्थापन हो’, इस हेतु से वे इस आयु में भी दिनरात प्रयास कर रहे हैं; किंतु शास्त्र ज्ञात करने की अपेक्षा उनपर केवल टिपण्णी करना, अर्थात् अपना अध्यात्म के क्षेत्र का अज्ञान प्रकट करने के समान ही है ।

 

प.पू. डॉक्टरजी को महर्षी ने ‘अवतार’ कहने के पीछे यह शास्त्र है …..

‘जिस समय किसी संत को किसी ‘देवता का अवतार’, उदा. ‘दत्तावतार’ कहा जाता है, उस समय संबंधित देवता का तत्त्व उस व्याqक्त में अधिक मात्रा में रहता है । व्याqष्ट साधना में श्रीकृष्ण की तथा समाqष्ट साधना में (रामराज्य की अर्थात् हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करने के लिए) श्रीराम की उपासना करने के कारण मुझ में विष्णुतत्त्व अधिक मात्रा में है । (मुझे गुरुमंत्र भी ‘श्री राम जय राम जय जय राम’ ऐसा प्राप्त हुआ है । ) अतः मुझे नाडी भविष्य की भाषा में ‘विष्णु का अवतार’ कहा गया है ।

‘श्रीविष्णु के दशावतार’ तथा महर्षीजी ने मुझे ‘अवतार’ कहना, इस में मुख्य अंतर यह है अर्थात् विष्णु के दशावतारों में विष्णुतत्त्व अत्यंत अधिक मात्रा में है, इस का मुख्य कारण यह है, मेरी साधना में गीता में विद्यमान ज्ञान, भक्ति तथा कर्म इस योग में बताई गई साधना है तथा वही समष्टि कृष्णतत्त्व रूप में
है ।’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवलेजी

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