व्यक्ति को होनेवाले आध्यात्मिक कष्ट दूर होने हेतु आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करना ही आवश्यक !

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मनुष्य के जीवन में आनेवाली ८० प्रतिशत समस्याएं आध्यात्मिक कारणों से होती हैं । इन समस्याओं में शारीरिक एवं मानसिक विकार भी आते हैं । इन विकारों का कारण ८० प्रतिशत आध्यात्मिक होने से ये विकार मुख्यरूप से आध्यात्मिक स्तर के उपायों से ही ठीक होते हैं । ये आध्यात्मिक स्तर के उपाय, अर्थात प्राणशक्तिवहन पद्धति से उस रोगी के लिए ढूंढकर निकाली गई मुद्रा, न्यास एवं नामजप हैं । विकार होने के विविध आध्यात्मिक कारण कौनसे हैं ? एवं उन पर आध्यात्मिक स्तर पर उपाय कैसे लागू होंगे ? यह अब हम देखेंगे ।

(सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ

 

१. विकार होने के आध्यात्मिक कारण एवं उन पर उपाय

१ अ. अनिष्ट शक्तियों का कष्ट देना

१ अ १. लक्षण
अ. शारीरिक

कारण न होते हुए भी कमजोरी लगना (प्राणशक्ति न्यून होना), शारीरिक वेदना होना, सिर भारी होना, चक्कर आना, मितली आना, भूक न लगना, शरीर के विविध भागों में (आंखें, पेट इत्यादि में) विकार निर्माण होना; गला पर दबाव अथवा छाती पर दबाव लगना; गर्दन एवं कमर में अकडन; बालों में बारंबार जूं होना; औषधोपचार एवं परहेज अनेक माह करने के उपरांत भी विकार ठीक न होना इत्यादि ।

आ. मानसिक

कारण न होते हुए भी किसी पर क्रोध आना एवं चिडचिड करना; मन में नकारात्मक एवं निराशा के विचार आकर मन अस्वस्थ होना; सतत तनाव में रहना; अत्यंत डरपोक; निरुत्साह लगना; अपनी इच्छा एवं स्वयं को अन्यों से होनेवाली अपेक्षा में एकाएक वृद्धि होना इत्यादि ।

१ अ २. कारण
१ अ २ अ. साधना न करना एवं स्वभावदोष एवं अहं की मात्रा बहुत होना

वर्तमान में कलियुग होने से धर्माचरण का पतन हुआ है । इसलिए अनिष्ट शक्तियों का प्रकोप है । धर्माचरण का नाश होने का कारण यह कि बहुतांश लोक साधना नहीं करते एवं उनमें स्वभावदोष एवं अहं की मात्रा भी बहुत होती है । ऐसे व्यक्ति ईश्वरीय तत्त्व से दूर जाते हैं । ईश्वरीय तत्त्व की न्यूनता के कारण ऐसे व्यक्तियों को कष्ट देना अनिष्ट शक्तियों के लिए आसान हो जाता है । ऐसे व्यक्तियों में अनिष्ट शक्तियां अपना स्थान भी निर्माण कर सकती हैं । मनुष्य में स्वभावदोष एवं अहं की मात्रा जितनी अधिक, उतना उन्हें होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का कष्ट अधिक तीव्र होता है ।

१ अ २ आ. समष्टि साधना (समाज की आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्न करना)

सनातन के साधक ‘ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए समाज सात्त्विक हो’, इस उद्देश्य से समाज से साधना करवा लेने का प्रयत्न (समष्टि साधना) कर रहे हैं । समाज साधना करने लगा कि वह धर्माचरणी होकर ईश्वरीय राज्य अपनेआप ही आता है । अनिष्ट शक्तियां यही तो नहीं चाहतीं; इसलिए वे समष्टि साधना करनेवाले सनातन के साधकों को बारंबार कष्ट दे रही हैं । सनातन के साधकों के अतिरिक्त समाज में समष्टि साधना करनेवाले जो थोडे-बहुत लोग हैं, उन्हें भी अनिष्ट शक्तियां कष्ट दे रही हैं । इन सभी को होनेवाले बहुतांश कष्ट व्यक्तिगत कारणों से न होकर उनके समष्टि साधना करने से हो रहे हैं ।

१ अ २ इ. अनिष्ट शक्तियों को पंचतत्त्वों के स्तर पर मनुष्य की देह पर आक्रमण कर देह के पंचतत्त्वों का समतोल बिगाडना

मनुष्य की देह पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश, इन पंचतत्त्वों से बनी है । अनिष्ट शक्तियां पंचतत्त्वों के स्तर पर मनुष्य की देह पर आक्रमण कर, देह के पंचतत्त्वों का संतुलन बिगाड देती हैं ।

१ अ ३. उपाय
१ अ ३ अ. ‘प्राणशक्तिवहन उपायपद्धति’ के अनुसार उपाय करने की आवश्यकता

अनिष्ट शक्तियां किसी व्यक्ति में बीजस्वरूप में अपना स्थान निर्माण करती हैं, तत्पश्चात उस स्थान में कष्टदायक शक्ति (काली शक्ति) प्रक्षेपित कर उसे संग्रहित कर रखती हैं । इस कष्टदायक शक्ति के कारण ‘प्राणशक्तिवहन संस्था’में बाधा निर्माण होती है । मानव की स्थूलदेह में रक्ताभिसरण, श्वसन, पचन इत्यादि विविध संस्थाएं कार्यरत हैं । उन्हें, इसके साथ ही मन को कार्य करने के लिए जो शक्ति लगती है, उसकी आपूर्ति ‘प्राणशक्तिवहन संस्था’ करती है । उसमें किसी स्थान पर बाधा उत्पन्न होने पर संबंधित इंद्रिय की कार्यक्षमता अल्प होने से विकार निर्माण होते हैं । इन विकारों पर आध्यात्मिक उपाय अर्थात ‘प्राणशक्तिवहन उपचारपद्धति’से ढूंढकर निकाली मुद्रा, न्यास एवं नामजप हैं ।

(‘प्राणशक्तिवहन उपचारपद्धति’की विस्तृत जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘विकार-निर्मूलन के लिए प्राणशक्ति (चेतना) वहन संस्था की बाधाएं कैसे ढूंढें ?’ एवं ‘प्राणशक्तिवहन संस्था की बाधाओं के कारण होनेवाले विकारों पर किए जानेवाले उपाय’ में दिए हैं ।’ – संकलक)
१ अ ३ आ. मुद्रा, न्यास एवं नामजप का महत्त्व
१ अ ३ आ १. मुद्रा करने का महत्त्व

हाथों की उंगलियों का एकदूसरे का स्पर्श होने अथया उंगलियां एक विशेष प्रकार से जोडने पर, विविध प्रकार के आकृति बंध बन जाते हैं । इन आकृतिबंधों को ‘मुद्रा’ कहते हैं । मनुष्य की देह यह पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश, इन पंचतत्त्वों से (पंचमहाभूतों से) बनी है । विशिष्ट मुद्रा पंचतत्त्वों से संबंधित होती है ।

१ अ ३ आ २. मुद्रा सहित नामजप करने का महत्त्व

अनिष्ट शक्तियां पंचतत्त्वों के स्तर पर मनुष्य की देह पर आक्रमण करती हैं । प्रत्येक देवता का किसी न किसी महाभूत पर आधिपत्य होता है । उस उस महाभूत के स्तर पर आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए उस उस महाभूत पर आधिपत्यवाले देवता का नामजप एवं उस उस महाभूत से संबंधित मुद्रा करना उपयुक्त होता है ।

१ अ ३ आ ३. मुद्रा कर उससे शरीर पर न्यास करना महत्त्वपूर्ण

हाथ की उंगलियों की विशिष्ट मुद्रा कर उसे शरीर के कुंडलिनीचक्र अथवा अन्य किसी भाग के निकट पकडना, इसे ‘न्यास’ कहते हैं । न्यास शरीर से १ – २ सें.मी. के अंतर पर करना होता है । मुद्रा द्वारा ग्रहण होनेवाली सकारात्मक (पॉजिटिव) शक्ति संपूर्ण शरीर में फैल जाती है, तो न्यासद्वारा वह सकारात्मक शक्ति शरीर में विशिष्ट स्थान पर प्रक्षेपित कर सकते हैं । संक्षेप में, न्यास के कारण कष्ट से संबंधित स्थान पर यह शक्ति अधिक मात्रा में प्रक्षेपित कर पाने से कष्ट का निवारण शीघ्र होने में सहायता मिलती है ।

१ अ ३ आ ४. प्राणशक्ति के प्रवाह की बाधाएं ढूंढना, अर्थात न्यास करने का स्थान (न्यासस्थान) ढूंढना

प्राणशक्तिवहन संस्था में कोई बाधा आने पर उस बाधा के स्थान पर हाथ की उंगलियां घुमाने पर उंगलियों से प्रक्षेपित होनेवाली प्राणशक्ति के प्रवाह में उन बाधाओं के कारण अवरोध उत्पन्न होने से श्वास रुक जाती है एवं उससे बाधा का स्थान अचूक ढूंढ सकते हैं । ढूंढी गई बाधाओं के स्थान पर १ – २ सें.मी. के अंतर पर न्यास करना होता है । उस स्थान को ‘न्यासस्थान’ कहते हैं । अनिष्ट शक्तियां प्रमुखरूप से कुंडलिनीचक्रों पर आक्रमण कर, वहां कष्टदायक शक्ति संग्रहित करती हैं । इससे कुंडलिनीचक्रों में बाधा निर्माण होती है । कुंडलिनीचक्र में बाधा आने से, उससे संबंधित इंद्रिय को प्राणशक्ति अल्प मात्रा में प्राप्त होने से आरोग्य बिगडता है । यह बाधा दूर करने के लिए कुंडलिनीचक्रों के स्थान पर उंगलियां घुमाकर न्यास करने हेतु बाधायुक्त स्थान ढूंढना आवश्यक होता है । इसके साथ ही शरीर की विविध नाडियों की बाधा भी ढूंढकर निकालनी होती है । उसके लिए चक्रस्थान छोडकर सिर, गर्दन, छाती, पेट, हाथ, पैर इत्यादि सर्व भागों पर सभी ओर से उंगलियां घुमाकर ‘कहीं बाधा है क्या ?’, यह भी ढूंढना होता है ।

१ आ. अतृप्त पूर्वजों द्वारा कष्ट देना

वर्तमान में एकत्र कुटुंबपद्धति न रह जाने से बडे-बूढों का आदर करने का संस्कार लुप्त हो रहा है । इतना ही नहीं, अपितु काफी लोग अपने माता-पिता के साथ ठीक से बर्ताव भी नहीं करते । ऐसे बडे-बूढों के निधन के उपरांत उन पूर्वजों का शाप उस कुटुंब को लगता है । इसके साथ ही अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ रहकर श्राद्ध पक्ष इत्यादि करना आजकल अनेक लोगों से नहीं हो रहा । इसलिए ऐसे कुटुंबों को अतृप्त पूर्वजों का कष्ट होता है । अतृप्त पूर्वजों के कष्टों के कारण गर्भधारणा न होना, गर्भपात होना, बच्चे का समय से पहले जन्म लेना (प्रिमेच्युर बर्थ), मतिमंद अथवा विकलांग संतान होना, इन कष्टों के कुछ लक्षण उस कुटुंब में हो सकते हैं । इसके साथ ही कुछ को व्यसन, मन के विकार, त्वचाविकार समान शारीरिक व्याधियों के लक्षण भी हो सकते हैं । अतृप्त पूर्वजों के कष्टों से रक्षा होने हेतु दत्त का नामजप करना उपयुक्त है ।

इन कष्टों के मूल कारणों पर उपाय के रूप में दत्त का नामजप बताने के साथ ही उन कष्टों पर प्राणशक्तिवहन उपायपद्धति अनुसार उपाय बताने से अधिक लाभ होता है ।

 

२. उपाय करते समय ध्यान में आए विविध सूत्र

२ अ. उपाय करते समय प्रथम शरीर पर आया कष्टदायक शक्ति का आवरण निकालना आवश्यक होना

अनिष्ट शक्तियां किसी को कष्ट देते समय कष्टदायक शक्ति प्रक्षेपित कर व्यक्ति की किसी कुंडलिनीचक्र पर आवरण लाती हैं । फिर उसे बढाकर उसके शरीर पर बाहर से भी (शरीर के सर्व ओर) आवरण लाती हैं । व्यक्ति पर आवरण आने से उसे पहले ही जो कष्ट है, वह और अधिक बढ जाता है । इसके साथ ही व्यक्ति पर कष्टदायक आवरण आया हो, तो वह शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक कष्टों के निर्मूलन के लिए कितने भी समय नामजपादि उपाय करे, तब भी आवरण के कारण उन उपायों के सात्त्विक स्पंदन उस तक उतनी मात्रा में नहीं पहुंचते और इसकारण उसके कष्टों का निवारण शीघ्र नहीं होता । व्यक्ति पर कष्टदायक आवरण आया हो, तो उस पर वैद्यकीय उपचारों का भी विशेष परिणाम नहीं होता; इसलिए वह आवरण निकालना आवश्यक होता है ।

२ आ. कष्ट पूर्णरूप से दूर होने तक प्राणशक्तिवहन की बाधाओं के स्थान पुनःपुन: ढूंढकर वहां उपाय करना आवश्यक होना

न्यासस्थान ढूंढकर वहां उपाय करने पर उस स्थान की बाधाएं (कष्ट) दूर हुई प्रतीत होती हैं । तदुपरांत ‘प्राणशक्तिवहन’ में बाधा लानेवाले कोई अन्य स्थान हैं क्या ?’, यह पुन: ढूंढना पडता है एवं वह मिलने पर उस स्थान पर पुन: उपाय करने होते हैं । तब उस स्थान के लिए मुद्रा एवं नामजप भी पुन: ढूंढना पडता है । इसप्रकार पुनः पुन: यह प्रक्रिया कर ‘प्राणशक्तिवहन’ में अन्यत्र कहीं बाधा तो नहीं है ना ?’, इसकी निश्चिती करनी होती है, तब ही वह कष्ट पूर्णरूप से दूर होता है । अनिष्ट शक्तियों के एक की अपेक्षा अधिक चक्रस्थान पर आक्रमण कर, वहां कष्टदायक शक्ति संग्रहित करती हैं । इसलिए वे सभी स्थान ढूंढकर और उन पर उपाय कर वहां की कष्टदायक शक्ति दूर करनी पडती है । हम किसी स्थान पर उपाय करने लगते हैं तो हमें लगता है कि ‘वहां का कष्ट दूर हो गया है’; परंतु तब वास्तव में अनिष्ट शक्तियों ने हमें धोखा देने के लिए अपना स्थान बदल लिया होता है । इसकारण भी बाधाओं को पुनः पुन: ढूंढना पडता है ।

२ इ. सूक्ष्म से अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की चाल समझकर उस अनुसार उपाय करना आवश्यक

एक बार एक साधक मुद्रा, न्यास एवं नामजप ढूंढकर अपने लिए उपाय कर रहा था । दो घंटे होने के पश्चात भी उसे लगा कि उसका कष्ट कम नहीं हुआ है । इसलिए उसने मुझे बताया । मैं जब उपाय ढूंढने लगा, तो ऐसा प्रतीत हुआ कि अनिष्ट शक्ति उसके सिर पर से कष्टदायक शक्ति का प्रवाह सतत छोड रही है । इसलिए उस साधक के कितने भी समय उपाय करने पर उसकी कष्टदायक शक्ति अल्प नहीं हो रही थी ।

इसीप्रकार, एक अन्य साधक अपने उपाय कर रहा था । तब उसके सामने अनिष्ट शक्तियों ने कष्टदायक (काली) शक्ति का पर्दा निर्माण कर दिया । इसलिए उसका कष्ट अल्प नहीं हो रहा था । एक साधक के संदर्भ में उसके स्वयं के लिए उपाय करते समय उस पर भूमि की दिशा से अर्थात पाताल से कष्टदायक शक्ति आ रही थी । इसलिए उसका कष्ट अल्प नहीं हो रहा था । उपाय करते समय कष्ट दूर होने हेतु इसप्रकार सूक्ष्म से अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की दिशा जानकर उस अनुसार उपाय करना आवश्यक होता है ।

२ ई. उपायों के अंत में आंखों की कष्टदायक शक्ति दूर करना अत्यंत आवश्यक

उपाय करते समय हमें सभी चक्रों पर कष्टदायक (काली) शक्ति पूर्णरूप से दूर हो गई है, तो अंत में हमें अपनी आंखों पर से कष्टदायक शक्ति दूर करना आवश्यक होता है, अन्यथा अनिष्ट शक्तियों को हम पर आक्रमण करने के लिए वह स्थान मिल जाता है । हम अपनी आंखों की कष्टदायक शक्ति दूर करने लगे कि हमारे शरीर में थोडी-बहुत शेष रह गई कष्टदायक शक्ति भी उस स्थान से खींच ली जाने समान बाहर निकलती है । इसलिए हमें और अधिक हलका लगता है । कभी-कभी आंखों से कष्टदायक शक्ति को बाहर निकालते समय हमें किसी चक्र पर दबाव लगता है और कष्ट प्रतीत होता है । तब अनिष्ट शक्तियों द्वारा उस स्थान में संग्रहित कर रखी (निर्गुण स्तर पर रखी) कष्टदायक शक्ति प्रकट होती है । इसलिए उस स्थान पर हम उपाय कर सकते हैं । हमारी आंखों से कष्टदायक शक्ति निकल जाने पर हमारी आंखों में हलकापन आता है और हमें स्वच्छ दिखाई देने लगता है । ऐसा होने पर हमारे उपाय पूर्ण हुए, ऐसा हम समझ सकते हैं । आंखों पर उपाय करने का यह भी एक लाभ होता है ।

 

३. सारांश

इस ढंग से अचूक आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करने से हमें हो रहे कष्टों पर हम मात कर सकते हैं । कष्ट की तीव्रता के अनुसार कष्ट दूर होने की अवधि अल्प-अधिक हो सकती है । आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करने पर हो रहे औषधोपचार, मानसोपचार इत्यादि किसी भी उपचार का पूर्णरूप से एवं अल्प समय में लाभ होता है । हमारे कष्ट नामजपादि उपायों से ठीक होने पर हमारी भगवान के प्रति श्रद्धा बढने में और अधिक सहायता होती है । इसके साथ ही साधना करने का जीवन में कितना महत्त्व है वह आध्यात्मिक स्तर के उपायों के लाभ के कारण दृढ होता है । ‘इसप्रकार आध्यात्मिक उपायों का महत्त्व सभी के ध्यान में आने दें’, ऐसी मैं श्रीगुरुचरणों में प्रार्थना करता हूं ।

– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, पीएच्. डी., गोवा.

अनिष्ट शक्ति

वातावरण में अच्छी एवं बुरी शक्तियां कार्यरत होती हैं । अच्छी शक्तियां अच्छे कार्य के लिए मनुष्य की सहायता करती हैं, तो अनिष्ट शक्तियां उन्हें कष्ट देती हैं । पूर्वकाल में ऋषि-मुनियों ने अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच एवं करनी, भानामती का प्रतिबंध करने के लिए मंत्र दिए हैं । अनिष्ट शक्तियों के कष्टों के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपाय वेदादि धर्मग्रंथों में दिए हैं ।

आध्यात्मिक कष्ट

इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक मात्रा में होना, अर्थात तीव्र कष्ट, नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना, अर्थात मध्यम कष्ट, तो ३० प्रतिशत से भी अल्प होना, अर्थात मंद आध्यात्मिक कष्ट होना होता है । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पूर्वजों के कष्ट आदि आध्यात्मिक स्तर के कारणोंवश होता है । आध्यात्मिक कष्ट का निदान संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन जाननेवाले कर सकते हैं ।

सूक्ष्म

व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अवयव नाक, कान, आंखें, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रिय हैं । ये पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि के परे अर्थात ‘सूक्ष्म’ । साधना में प्रगति करने से कुछ व्यक्तियों को ये ‘सूक्ष्म’ संवेदना ध्यान में आती हैं । इस ‘सूक्ष्म’के ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।

सूक्ष्म का दिखाई देना, सुनाई देना इत्यादि (पंच सूक्ष्मज्ञानेंद्रियों द्वारा ज्ञानप्राप्ति होना)

कुछ साधकों की अंतर्दृष्टि जागृत होती है, अर्थात खुले नेत्रों से जो नहीं दिखाई देता वह उन्हें दिखाई देता है, कुछ लोगों को सूक्ष्म नाद अथवा शब्द सुनाई देते हैं । ‘‘यहां प्रकाशित हुई अनुभूतियां ‘जहां भाव वहां भगवान’, इस उक्ति के अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वे सभी को आएंगी ही, ऐसा नहीं है । – संपादक

 

2 thoughts on “व्यक्ति को होनेवाले आध्यात्मिक कष्ट दूर होने हेतु आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करना ही आवश्यक !”

  1. बहुत ही सुन्दर जानकारी प्रदान की गई है कृपया इसके साथ ही कुछ आध्यात्मिक उपचार पद्धतियों के बारे में जानकारी देने का श्रम करें साथ ही उसकी प्रक्रिया भी बताने की कृपा करें कुछ प्रभावशाली मंत्र जिनके प्रयोग से आध्यात्मिक कष्टों को दूर किया जा सकता है बहुत बहुत धन्यवाद साधुवाद

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    • नमस्ते राजेश जी

      आध्यात्मिक कष्ट एवं आध्यात्मिक उपचार पद्धतियों की जानकारी के लिए इस लिंक पर दिए गए लेख पढ़ सकते हैं.- https://www.sanatan.org/hindi/spiritual-remedies

      उपचार पद्धतियोंका आपको कैसे लाभ हुआ यह हमें अवश्य बताएं..

      सनातन संस्था

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