बुद्धिप्रमाणवाद से विश्वबुद्धि द्वारा ज्ञानप्राप्ति के चरण

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१. बौद्धिक स्तर पर विरोधक

जब तक मनुष्य की बुद्धि तमप्रधान रहती है, तब तक उसके मन में धर्म अथवा अध्यात्म के विषय में जिज्ञासा जागृत नहीं होती । साथ ही उसे धर्म अथवा अध्यात्म विषय का ज्ञान समझ में नहीं आता । ऐसे व्यक्ति नास्तिक अथवा धर्मद्रोही होते हैं । कई बार धर्म अथवा वास्तव में अध्यात्म के विषय को जानने व समझने की वृत्ति न होते हुए भी केवल धर्म को अथवा अध्यात्म का विरोध करने के लिए कुछ बुद्धिवादी प्रश्न पूछते हैं और बौद्धिक स्तर पर तर्क-वितर्क कर, विश्लेषण करने का प्रयत्न करते हैं । वे केवल विरोध के लिए विरोध करते हैं । ऐसों की बुद्धि तामसिक और अत्यंत बहिर्मुख होती है । साथ ही वे अहंकारी भी होते हैं । उन्हें ‘तामसिक जिज्ञासु’ न कहते हुए ‘बौद्धिक स्तर पर विरोधी’ कहते हैं । बुद्धिप्रमाणवादी, ये बौद्धिक स्तर पर विरोधी होने से वे धर्म और अध्यात्म का बौद्धिक स्तर पर विरोध करने का काम करते हैं ।

 

२. जिज्ञासुओं के प्रकार

२ अ. राजसिक जिज्ञासु

जब मनुष्य की बुद्धि रज-सत्त्व प्रधान होती है, तब मनुष्य के मन में उसके जीवन की विविध घटनाओं के पीछे कारण ढूंढने की जिज्ञासा जागृत होती है । इन कारणों का अभ्यास करते समय जब उसकी बुद्धि की सात्त्विकता बढती है, तब उसके मन में धर्म अथवा अध्यात्म के विषय में बौद्धिक स्तर पर जिज्ञासा थोडी-बहुत मात्रा में जागृत होती है । ऐसा व्यक्ति धर्म अथवा अध्यात्म से संबंधित विविध प्रश्न पूछकर अथवा विविध ग्रंथ अथवा लेखों का वाचन कर, अपने मन की शंकाओं का निराकरण करवाने का प्रयत्न करता है । ऐसे व्यक्ति के मन को नास्तिकता की ओर ले जानेवाला झुकाव धीरे-धीरे कम होने लगता है और उसे यह भान होने लगता है कि ‘उसकी बुद्धि के परे भी एक विश्व है ।’ ऐसा व्यक्ति राजसिक जिज्ञासु होता है ।

२ आ. सात्त्विक जिज्ञासु

जब व्यक्ति की बुद्धि सत्त्व-रज प्रधान होती है, तब उसे धर्म अथवा अध्यात्म से संबंधित विविध ग्रंथ अथवा लेखों के ज्ञान का आकलन होने लगता है और उससे धर्माचरण अथवा तात्कालिक साधना होने लगती है । इसलिए उसे प्राथमिक स्तर की थोडी अनुभूति आने लगती है । इसलिए ऐसे व्यक्ति का धर्म अथवा अध्यात्म पर विश्वास बढकर वह आस्तिक होने लगता है । ऐसे व्यक्ति को ‘सात्त्विक जिज्ञासु’ कहते हैं ।

२ इ. प्रासंगिक साधना करनेवाला जिज्ञासु

धर्माचरण एवं साधना की थोडी-बहुत कृतियों से आनेवाली अनुभूतियों के कारण व्यक्ति को अधिकाधिक धर्माचरण एवं साधना करने की प्रेरणा मिलती है । इसलिए उससे धर्माचरण एवं साधना निरंतर कुछ दिन अथवा कुछ माह (महिने) होने लगती है और उसे धर्म एवं अध्यात्म के प्रायोगिक स्तर पर ज्ञान थोडी-बहुत मात्रा में मिलने लगता है । इसलिए उसके मन में धर्म एवं अध्यात्म पर विश्वास अधिक दृढ होने लगता है । ऐसे व्यक्ति को प्रासंगिक साधना करनेवाला जिज्ञासु कहते हैं ।

३. साधक

इसके पश्चात अब बुद्धि पूर्णरूप से सात्त्विक हो चुकी होती है और इस चरण पर व्यक्ति धर्म अथवा अध्यात्म की सत्यता बुद्धि के स्तर पर न देखकर अनुभूति के स्तर पर सतत अनुभव करता है । इसलिए उसके मन से बुद्धि की बाधा दूर हो जाती है और वह धर्म अथवा अध्यात्म के सूक्ष्म जगत का ज्ञान सहजता से ग्रहण कर सकता है । ऐसा व्यक्ति खरे अर्थ में साधक बन गया होता है ।

 

४. शिष्य

इसके अगले चरण में साधक को साधना बतानेवाले गुरू पर श्रद्धा अधिक बलवान होने लगती है और वह गुर्वाज्ञा का यथावत पालन करने का प्रयत्न करता है । इसलिए उसके मन का लय होकर वह ‘शिष्य’ पद पर पहुंचता है । शिष्यावस्था प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि अधिक प्रगल्भ होती है और उसके मन की बुद्धि की बाधा पूर्णरूप से नष्ट होने से वह गुरु के शब्द को ही प्रमाण मानता है, इसलिए बिना कुछ बताए ही उसे गुरू के मन के विचार समझ में आते हैं । इसलिए उसकी साधना गुरू को अपेक्षित होती रहती है ।

 

५. संत

इसके उपरांत के चरण पर शिष्य की कारणदेह, अर्थात बुद्धि सूक्ष्म होने से वह गुरू के कारणदेह से एकरूप होने लगता है और संतपद को प्राप्त होता है । इसलिए संत भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल से संबंधित सूक्ष्मतर विचार ग्रहण कर सकते हैं । उन्हें धर्म एवं अध्यात्म का ज्ञान बाह्य माध्यमों से प्राप्त न होकर अंदर से ही मिलने लगता है । इसके साथ ही उन्हें गुरुवचनों का भावार्थ भी समझ में आने लगता है । इस प्रकार संतों का मनोलय होकर, अब उनके बुद्धिलय की प्रक्रिया आरंभ होती है । संतपद पर आरूढ होने पर व्यक्ति का विश्वमन और विश्वबुद्धि से भूत, वर्तमान एवं भविष्य, इन तीनों कालों से संबंधित सूक्ष्मतम विचार ग्रहण होने लगते हैं । इसलिए संतों में जिज्ञासु, साधक और शिष्य को अध्यात्म में आगे ले जाने के लिए अचूक मार्गदर्शन करने की क्षमता होती है; परंतु जो संत अन्यों को मार्गदर्शन कर शिष्य नहीं बनाते, वे केवल ‘संत’ पद पर ही रहते हैं ।

 

६. गुरु

संत केवल व्यक्तिगत स्तर पर ईश्वरप्राप्ति के प्रयत्न न करते हुए, जब वे जिज्ञासु, साधक एवं शिष्य को अध्यात्म में आगे ले जाने के लिए उन्हें अचूक मार्गदर्शन करने लगते हैं, अर्थात विश्वमन और विश्वबुद्धि से ग्रहण होनेवाले विचारों के अनुसार कृति करते हैं, तब वे गुरुपद पर आरूढ होते हैं । ऐसे संतों की प्रकृति व्यष्टि होगी, तब वे व्यष्टि स्तर पर मार्गदर्शन करते हैं और समष्टि होगी, तो वे समष्टि स्तर पर मार्गदर्शन करते हैं । यदि किसी संत की प्रकृति व्यष्टि-समष्टि है, तो वे व्यष्टि और समष्टि, ऐसे दोनों स्तरों पर साधक एवं शिष्यों को मार्गदर्शन करते हैं ।

 

७. विरोधी, जिज्ञासु, साधक, शिष्य, संत एवं गुरु

 

त्रिगुणों के प्रमुख गुण स्तर (प्रतिशत) बुद्धि की सूक्ष्मता बुद्धि की सूक्ष्मता
१.बौद्धिक स्तर पर विरोधी तम ३० अथवा उससे भी अल्प स्थूल यह व्यक्ति, अर्थात अज्ञान एवं अहंकार का पुतला होता है ।
२. जिज्ञासुओं के प्रकार

२ अ. राजसिक जिज्ञासु
रज-सत्त्व ३० से ३४

२ आ. सात्त्विक जिज्ञासु २०

१०

 

 

३५ से ३९

सूक्ष्म

 

 

सत्त्व-रज

यह व्यक्ति धर्म अथवा अध्यात्म की सत्यता बुद्धि के स्तर पर जांच कर देखता है ।

 

८. जिज्ञासुवृत्ति बुद्धि की सात्त्विकता की प्रक्रिया करवाने
के लिए महत्त्वपूर्ण होना और उस अनुसार जिज्ञासु का आध्यात्मिक प्रवास
प्रथम साधक, तदुपरांत शिष्य और अंत में संत अथवा गुरु इस स्तर तक होना संभव

जिज्ञासुवृत्ति बुद्धि की सात्त्विकता की प्रक्रिया करवाने के लिए महत्त्वपूर्ण है । इसलिए मनुष्य जिज्ञासु के चरण पर होते हुए धर्म अथवा अध्यात्म का ज्ञान प्रथम बुद्धि से जानकर उस अनुसार कृति करते जाने से उसकी बुद्धि सात्त्विक होकर वह प्रथम साधक, तदुपरांत शिष्य और अंत में संत अथवा गुरु इस स्तर तक पहुंच सकता है और यह आध्यात्मिक यात्रा करते समय उसकी बुद्धि कब नष्ट हो जाती है, इसका उसे भान ही नहीं रहता । मनुष्य शिष्यपद पर पहुंचने पर उसके मन में स्वयं की बुद्धि पर विश्वास कम होने लगता है और ज्ञानमार्गीय शिष्य होने पर धर्मग्रंथों पर और भक्तिमार्गीय शिष्य होने पर गुरुवचनों पर श्रद्धा अधिक होने लगती है । इसप्रकार के व्यक्ति के मन का बुद्धिप्रमाण पर विश्वास  कम हो जाता है और शब्दप्रमाण पर विश्वास बढकर उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है ।’

– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से प्राप्त ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (११.१२.२०१८, रात्रि १०.४५)

  • सूक्ष्म :व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अवयव नाक, कान, आंखें, जीभ और त्वचा भी पंचज्ञानेंद्रियां हैं । ये पंचज्ञानेंद्रिये, मन आणि बुद्धी यांच्या पलीकडील म्हणजे सूक्ष्म’. साधनेत प्रगती केलेल्या काही व्यक्तींना या सूक्ष्म’ संवेदना जाणवतात. या सूक्ष्मा’च्या ज्ञानाविषयी विविध धर्मग्रंथांत उल्लेख आहेत.
  • सूक्ष्मातील दिसणे, ऐकू येणे इत्यादी (पंच सूक्ष्मज्ञानेंद्रियांनी ज्ञानप्राप्ती होणे) :काही साधकांची अंतर्दृष्टी जागृत होते, म्हणजे त्यांना डोळ्यांना न दिसणारे दिसते, तर काही जणांना सूक्ष्मातील नाद किंवा शब्द ऐकू येतात.
  • सूक्ष्म-परीक्षण :एखाद्या घटनेविषयी किंवा प्रक्रियेविषयी चित्ताला (अंतर्मनाला) जे जाणवते, त्याला सूक्ष्म-परीक्षण’ म्हणतात.

 

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