समर्थ रामदास स्वामीजी ने दासबोध में कीर्तनभक्ति का वर्णन किस प्रकार किया है !

समर्थ रामदास स्वामी

समर्थ रामदास स्वामीजी ने दासबोध में ‘कीर्तन कैसे होना चाहिए, कीर्तन में कौनसे विषय लेने चाहिए । कीर्तन के लक्षण, महत्त्व एवं फलोत्पत्ति’ के संदर्भ में अत्यंत सुंदरता से बताया है । जप, तप, होम, याग आदि न कर, समय निकालकर कीर्तन का आनंद लेने से भी मोक्ष मिल सकता है । उनके द्वारा बताए कुछ सूत्र सुनकर हम भी कीर्तनभक्ति का आनंद लेंगे ।

मनापासून आवडी । जीवापासून अत्यंत गोडी । सदा सर्वदा तातडी । हरिकीर्तनाची ॥ ६॥

अर्थ : कीर्तन करते समय उसे कैसे करना चाहिए ? उसमें मन से रुचि होनी चाहिए, जीव में उसकी रुचि होनी चाहिए, हमें प्रतिक्षण हरिकीर्तन की ही लगन होनी चाहिए । हमारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि मैं कब हरिस्तुति करूं ?

भगवंतास कीर्तन प्रिये । कीर्तनें समाधान होये । बहुत जनासी उपाये । हरिकीर्तनें कलयुगीं  ॥ ७ ॥

अर्थ : भगवान को कीर्तनभक्ति अत्यंत प्रिय है । कीर्तन के कारण संतुष्टि मिलती है । इस कलियुग में भवसागर पार लगने हेतु हरिकीर्तन ही उपाय है । अतः हम जितना कीर्तन करेंगे और विष्णुस्तुति करेंगे, उतने हम भगवान के प्रिय बनेंगे ।

यश कीर्ति प्रताप महिमा । आवडीं वर्णावा परमात्मा । जेणें भगवद्भक्तांचा आत्मा । संतुष्ट होये  ॥ ९॥

अर्थ : कीर्तन के माध्यम से भगवान के यश, कीर्ति, पराक्रम और महिमा का वर्णन करना चाहिए । उससे श्रोतारूपी भगवद्भक्तों की आत्मा संतुष्ट होगी ।

करुणा कीर्तनाच्या लोटें । कथा करावी घडघडाटें । श्रोतयांचीं श्रवणपुटें । आनंदें भरावीं ॥ १२॥

अर्थ : जीव को आनंद के सागर में डूबने में ही अत्यंत आनंद मिलता है । आनंद ही उसका स्वरूप है । अतः ऐसा कीर्तन करना चाहिए कि कीर्तन के माध्यम से श्रोताओं को आनंद मिलना चाहिए और श्रोताओं के कर्ण (कान) एवं मन आनंद से भर जाने चाहिए ।

* कीर्तन दूसरे के लिए नहीं, अपितु स्वयं के लिए कैसे होता है, यह निम्नांकित पंक्तियों से ध्यान में आता है ।

कीर्तनें माहादोष जाती । कीर्तनें होये उत्तमगती । कीर्तनें भगवत्प्राप्ती । येदर्थीं संदेह नाहीं ॥ २७॥

अर्थ : कीर्तन से महादोष दूर हो जाते हैं । कीर्तन के कारण उत्तम गति प्राप्त होती है । कीर्तन के कारण भगवद्प्राप्ति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।

कीर्तनें वाचा पवित्र । कीर्तनें होये सत्पात्र । हरिकीर्तनें प्राणीमात्र । सुसिळ होती ॥ २८॥

अर्थ : कीर्तन से वाणी शुद्ध एवं पवित्र होती है, चरित्र एवं शील की प्राप्ति होती है और अंततः व्यक्ति भगवद्कृपा का पात्र बनता है ।

कीर्तनें अवेग्रता घडे । कीर्तनें निश्‍चये सांपडे । कीर्तनें संदेह बुडे । श्रोतयांवक्तयांचा ॥ २९॥

अर्थ : कीर्तन के कारण मन की एकाग्रता बढती है, आत्मबुद्धि का निश्‍चय होता है और कीर्तन के कारण श्रोताओं और वक्ताओं का संदेह नष्ट होता है ।

म्हणोनि कीर्तनाचा अगाध महिमा । कीर्तनें संतोषे परमात्मा । सकळ तीर्थें आणी जगदात्मा । हरिकीर्तनीं वसे ॥ ३१॥

अर्थ : इसीलिए कीर्तन की महिमा अगाध है । कीर्तन के कारण साक्षात परमात्मा को संतोष होता है । हरिकीर्तन में सभी तीर्थ, साथ ही साक्षात जगदात्मा भगवान विराजमान हैं ।

 

कीर्तनभक्ति क्या है ?

समर्थ रामदासजी सरल शब्दों में कहते हैं, ‘जो-जो हमें ज्ञात है, उसे दूसरों को बताएं और सकलजनों को ज्ञानी बना दें ।

जो हमें ज्ञात है, उसे दूसरों को बताना चाहिए । हमें व्यवहार में कोई सूत्र सीखने के लिए मिला, अथवा नया कुछ सीखने मिलता है, तब हम औरों को बताते हैं । अर्थात हमारे मन का आनंद हम किसी के समक्ष प्रकट करते हैं । भले ही वह हमारा मित्र हो अथवा हमारे परिवार का सदस्य ! हमें जो अच्छा लगता है, उसे जबतक हम दूसरों को नहीं बताते हमें संतोष नहीं होता । स्वयं को जो आनंद मिला है उसे दूसरों को बताने में समाहित आनंद, एक अलग ही आनंद होता है । हम व्यवहार में जैसा करते हैं, वैसे हमें ईश्‍वरभक्ति में भी करना चाहिए, उदा. हमें जो-जो सूत्र सीखने के लिए मिलते हैं, उन्हें हमें दूसरों को भी बताने चाहिए ।

देवता स्तुतिप्रिय होते हैं । वे स्तुति से प्रसन्न होते हैं । अनादि अनंत वे विष्णुजी ही परमधर्म है । उनकी स्तुति गाना ही सर्वश्रेष्ठ उपासना है । केवल और केवल उन्हीं के स्मरण से मनुष्य का कल्याण होकर, उसे जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकलना संभव होता है । कीर्तनभक्ति का उद्देश्य यह है कि कीर्तन करनेवाले के मन में भगवान के प्रति प्रेम को जगाना ! इसका अर्थ कीर्तन दूसरों के लिए नहीं होता, अपितु अपने लिए ही होता है । भगवान की स्तुति करने के माध्यम से हम उनके विश्‍व में रह सकते हैं । तो अब हमें आज से ही क्या करना है, हम सभी अपने प्रत्येक विचार और प्रत्येक बात से भगवान की स्तुति करने का प्रयास करेंगे ।

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