शनि के साढे तीन पीठों में से एक है प्रभु श्री रामचंद्रजी के शुभहस्तों स्थापित राक्षसभुवन का श्री शनिमंदिर !

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शनि के साढे तीन पीठों में से एक है प्रभु श्री रामचंद्रजी के हस्तों स्थापित राक्षसभुवन (जिला बीड) का श्री शनिमंदिर !

बीड जिले की गेवराई तालुका के राक्षसभुवन में श्री शनि मंदिर में पौष शुक्ल पक्ष अष्टमी को सायं शनिमहाराजजी का जन्मोत्सव मनाया जाता है ।

राक्षसभुवन में यमी, काल, शनि और बृहस्पति की मूर्तियां

 

१. श्री क्षेत्र राक्षसभुवन में शनिमंदिर के विषय में मंदिर के पुजारी श्री. नागेश चौथाईवाले द्वारा दी गई जानकारी

इस मंदिर में शनिमहाराजजी की जागृत और पुरातन मूर्ति है । इस मंदिर का महत्त्व यह है कि काल की पूजा किए बिना शनि की पूजा नहीं होती । इस अवसर पर प्रत्यक्ष काल अथवा यम की स्थापना शनिमहाराजजी के साथ की है, इसके साथ ही घटी अथवा यमी अथवा जिसे समय कहते हैं, इनकी भी इस स्थान पर स्थापना की है । शनि, काल और यमी, ये तीनों मूर्तियां इस स्थान पर हैं । यहां राहू अथवा केतु की मूर्तियां होने से शनिमहाराज की एक ओर बृहस्पति की स्वतंत्र मूर्ति है ।

 

२. पुजारी पद्माकर दत्तात्रेय पाठक द्वारा बताया शनिमंदिर का इतिहास और माहात्म्य

मंदिर के शनिमहाराजजी की मूर्ति की स्थापना श्री रामचंद्रजी के हस्तों हुई है । त्रेतायुग में जिस समय राम को साढेसाती थी, तब अगस्तीऋषि ने भगवान राम से शनिमहाराजजी की स्थापना करवाई थी । शनि भगवान का वरदान है कि ‘जो भक्त इस स्थान पर आएगा, उसकी मैं रक्षा करूंगा ।’ इसलिए इसका नाम रक्षोभुवन था और अब इसका अपभ्रंश राक्षसभुवन हो गया है । द्वापरयुग में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस स्थान पर पूजा करने के लिए बताया था । अभी कुछ काल पहले शिवाजी महाराज और संत नामदेव ने इस स्थान पर आकर पूजा-पाठ किया था ।

२ अ. हिरण्यकश्यपू समान अपना वध न हो, इस हेतु वातापि और इलवल नामक उसके नातियों द्वारा घोर तपःसाधना करना और पितृतिथि निमित्त साधु-संतों को भोजन करवाकर उनका वध करना

हिरण्यकश्यपू के चार पुत्र थे – प्रल्हाद, राद, अनुराद और सुराद । इनमें से राद के दो पुत्र थे – वातापि और इलवल । वे दंडकारण्य में रहते थे । अपने दादा हिरण्यकश्यपू ने तपश्‍चर्या की और वर मांगा था कि न दिन में और न रात में, न घर में और न घर के बाहर, न अस्त्र से और न शस्त्र से, न ही मनुष्य से अथवा प्राणि से मेरी मृत्यु हो । इस पर भगवान ने नरसिंह रूप लेकर हिरण्यकश्यपू का वध किया । इस बात से उनके मन में अत्यधिक क्रोध था । अपने दादाजी समान हमारा भी वध न हो, इसलिए उन्होंने दादाजी से भी अधिक घोर तप किया । तदुपरांत गोदावरी तीर्थाटन के लिए अथवा तप के लिए जो भी साधु-संत आते, ये दोनों उनसे कहते कि ‘हमारे पिता की तिथि है । भोजन के लिए पधारें ।’ तदुपरांत उन्हें भोजन करवाकर उनका वध करते थे । ऐसे अनेक वर्ष चलता रहा ।

२ आ. ऐसे किया अगस्तीऋषि ने वातापि और इलवल का वध !

फिर ऋषि-मुनियों ने अगस्ती ऋषि से प्रार्थना की । तब अगस्तीजी ने कहा इनका वध करना अत्यंत कठिन है, पर इनका वध शनिमहाराज कर सकेंगे । फिर सभी शनिमहाराजजी की शरण गए । शनि महाराज बोले, इनके वध के लिए मैं निमित्त बनूंगा, परंतु वध अगस्तीजी ही करें ।’’ जब तक शनिमहाराज उनकी राशि में वक्री ८ वें स्थान पर नहीं आया, तब तक अगस्तीजी ने प्रतीक्षा की । फिर जब शनिमहाराज वक्री ८ वें स्थान पर आए, तब अगस्ती ऋषि आए । अगस्तीजी को भी पितृतिथि का निमंत्रण मिला । अगस्तीजी उनके आश्रम में गए । वातापि अन्नरूप हो गया और इलवल ने ब्राह्मण बन कर उन्हें निमंत्रण दिया था । अगस्तीजी ने वातापि को ग्रहण कर, शनिरूपी अग्नि पेट में धारण उसका संहार किया । इलवल ने यह देखा तो वह दक्षिण की ओर भाग खडा हुआ और उसने समुद्र का आश्रय लिया । अगस्तीजी ने समुद्र से इलवल को उनके स्वाधीन करने की विनती की; परंतु समुद्र ने नकार दिया । फिर अगस्तीजी ने तीन आचमनों में समुद्र प्राशन कर, इलवल को बाहर निकाला और उसका संहार किया । तदुपरांत अगस्तीजी ने लघुशंका द्वारा समुद्र पूर्ववत किया । अगस्तीजी ने शनिमहाराजजी से पूछा, त्रेतायुग में हम वक्री आने पर साधना करनेवालों की यह अवस्था होती है, तो कलियुग में सामान्य मनुष्य का क्या होगा ?’’ तब शनि महाराजजी ने उन्हें बालू से निर्मित मूर्ति स्थापित करने के लिए कहा और कहा जो भी मेरी इस स्थान पर पूजा करेगा, उसके कष्ट मैं दूर करूंगा । ऐसा है यह वरदायी स्थान !

२ इ. नवग्रह मंडल की स्थापना और कलशोद्भव तीर्थ

भारत में शनिमहाराजजी के साढे तीन पीठ हैं । उसमें उज्जैन, नस्तनपूर (तालुका नांदगाव, जिला नासिक) और राक्षसभुवन, ऐसे तीन पीठ और बीड में अर्धपीठ है । यह स्थान प्रत्यक्ष नवग्रह अवतीर्ण है । वहां विज्ञान गणेश, नरसिंह और दत्त भगवान अवतीर्ण हुए हैं । नवग्रह मंडल की स्थापना होने से जन्म-लग्न कुंडली के दोष कम किए जा सकते हैं । शनिमहाराजजी के साथ काल की स्थापना होने से कालसर्पशांति, श्राद्धविधि इत्यादि कर्म किए जाते हैं । शनिमहाराजजी की स्थापना कर जब अगस्तीजी वहां से जाने लगे, तब वातापि और इलवल द्वारा मारे गए अनेक ऋषि, जो प्रेतरूप में वातावरण में थे, उन्होंने अगस्तीजी से उन्हें मुक्ति देने की प्रार्थना की । तब अगस्तीजी ने उस स्थान पर आत्मतीर्थ स्थापित किया । इसका उल्लेख पुराण में हैं । अगस्तीजी का जन्म कुंभ में होने से ‘कलशोद्भव तीर्थ’ के नाम से यह स्थान प्रसिद्ध है ।

विष्णुपाद के १९ स्थान जो भारत में बताए हैं, उनमें इस तीर्थ का भी समावेश है और पितृमुक्ति के सर्व कार्य गोदावरी के तट पर किए जाते हैं । यह स्थान दत्तात्रय, विज्ञानेश्‍वर गणेश और महादेव के होने से ‘आत्ममुक्ति’ करने का यह पवित्र क्षेत्र है ।

२ ई. शनि अमावास्या और शनिमहाराजजी का जन्मोत्सव

इस स्थान पर शनि अमावास्या को होनेवाली पूजा का विशेष महत्त्व है । इस अमावास्या को आंध्रप्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक से आनेवाले श्रद्धालुओं की विशेष उपस्थिति होती है । लाखों लोग उपस्थित होते हैं । पौष शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से दशमी तक, यह उत्सव होता है । प्रतिपदा से दिन-रात तेल का अभिषेक आरंभ हो जाता है । अष्टमी को सायंकाल में शनिमहाराजजी का जन्मोत्सव होता है । फिर हरिनाम और कीर्तन होता है । उसी प्रकार जन्म के उपरांत अगले दिन तक महापंगत से उत्सव संपन्न होता है ।

 

३. श्री विठ्ठल सुंदर का समाधिस्थान

निजाम के दीवान विठ्ठल सुंदर, उस काल के साढे तीन विदूषकों में से एक पूर्ण विदूषक थे । उनकी समाधि यहां है । माधवराव पेशवा के हाथों उनकी हत्या हुई थी । ब्रह्महत्या होने से माधवराव पेशवा ने उनकी उत्तरक्रिया कर इस स्थान पर उनकी समाधि बनवाई ।

 

४. सुवर्ण अश्‍वत्थ और काळुंकाई

वृत्रासुर के वध करने के लिए इंद्र ने दधीचि ऋषि से उनकी अस्थियां मांगी । उन अस्थियों से वज्र बनाकर, इंद्र ने वृत्रासुर को मारा । दधीचि ऋषि ने इंद्रदेव को अस्थियां देकर देहत्याग किया । उस समय ऋषि दधीचि की पत्नी सुव्रचा गर्भवती थी । गर्भवती होने से वह पति के साथ सती नहीं हो सकती थी । सती जाने से पहले उसने अपना गर्भ निकालकर सुवर्ण अश्‍वत्थ की (पीपल की) जड में रखा । उस पीपल की जड में ही उस भ्रूण की विकास हुआ । वे ही आगे पिप्पलाद ऋषि हुए । अब वह वृक्ष तो नहीं है; परंतु स्थान यही है । याज्ञवल्क्य के बहन के लडके (भांजे) हैं पिप्पलाद ऋषि उनका विकास इस पीपल के तने में हुई और उनकी रक्षा कालिकामाता ने की । पिप्पलाद ऋषि का पालन-पोषण कालिकामाता ने किया है । इसलिए यह स्थान काळुंकाई के नाम से जाना जाता है ।

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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