‘विवाहसंस्कार’से संबंधित आलोचना अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन

खंडन करनेका उद्देश

विश्वके आरंभसे ही पृथ्वीपर स्थित सनातन वैदिक धर्म (हिंदू धर्म), हिंदुओंके धर्मग्रंथ, देवता, धार्मिक विधियां, अध्यात्म इत्यादिके संबंधमें अनेकोंद्वारा कठोर आलोचना तथा समीक्षा की जाती है । कुछ लोग उसे सत्य मानते हैं, तो कुछ लोगोंको यह आलोचना विषैली प्रतीत होती है; परंतु उसका खंडन उपलब्ध न होनेके कारण उन्हें उसका उत्तर देना संभव नहीं होता । कुछ विद्वान अथवा अभ्यासकोंद्वारा अज्ञानवश अयोग्य विचार प्रस्तुत किए जाते हैं । इस प्रकारके अनेक अनुचित विचार एवं आलोचनाका उचित प्रतिवाद न करनेके कारण हिंदुओंकी श्रद्धा अस्थिर हो जाती है तथा उसके कारण धर्मकी हानि होती है । धर्मकी हानिको रोककर हिंदुओंको बौद्धिक सामर्थ्य प्राप्त हो इस हेतु ‘विवाहसंस्कार’से संबंधित अनुचित विचार एवं उनका खंडन आगे प्रस्तुत कर रहे हैं ।

१. शास्त्रसंबंधी अज्ञानके कारण ‘कन्यादान’को
जंगली माननेवाले अंग्रेजी सभ्यतामें आकंठ डूबे भारतीय !

अनुचित विचार

सालंकृत कन्यादानका अर्थ है दहेज ! पुत्री क्या दान करनेकी वस्तु है ? कन्यादान करना वास्तवमें असभ्यताका सूचक है। स्त्रीको आदान-प्रदानकी वस्तु माननेवाली असभ्य संस्कृतिकी यह स्थिति आजभी बनी हुई है ।

खंडन

१. कन्यादान करनेमें पवित्र उद्देश्य निहीत होना

‘संत तुकाराम महाराज कहते हैं, ‘सालंकृत कन्यादान, पृथ्वीदानके समान है ।’ क्या संत तुकाराम महाराज असभ्य या जंगली थे? प्रेमविवाहको ‘गांधर्व विवाह’ माना जाता है । गांधर्व विवाहमें कन्यादानकी प्रक्रियाका कोई महत्व नहीं है ।
कन्यादानका अर्थ दहेज नहीं ! कन्यादान शुल्क नहीं है (अर्थात दहेज आदि ) तथा न उसे प्राप्त करनेकी अपेक्षा । न इस प्रकारकी बुद्धि । सालंकृत कन्यादान ! विवाहके समय वधुके पिता, भाई, तथा अन्य परिजन सुवर्णालंकार उपहारस्वरूप देते हैं । वही सालंकृत कन्यादान है । वहां थोडी भी शुल्क बुद्धि नहीं होती । स्मरण रहे `दान’का अर्थ ‘समर्पण’ होता है ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, ११.९.२००८)

२. ‘दहेज ’ एवं ‘दान’ में मूलत: अंतर होता है ।
अलंकार उस कन्याका अपना ‘स्त्रीधन’

विवाहके समय वधुपिताद्वारा कन्याको दिए गए स्वर्णालंकार उसका स्त्रीधन होता है । उसपर केवल उसीका अधिकार होता है ।
कन्यादानकी पवित्र विधिके समय वधुपिता वर अर्थात अपने दामादसे कहता है, ‘यह सुस्वरूप, सुदृढ एवं सुवर्णालंकारोंसे युक्त पुत्री ब्रह्मलोककी प्राप्ति करवाने हेतु तथा पितरोंका उद्धार करने हेतु आपको श्रीविष्णुका रूप मानकर पंचमहाभूतों तथा देवताओंकोकी साक्ष्यसे सौंप रहा हूं ।’ उस समय वर वधुपितासे कहता है, ‘धर्म एवं प्रजाकी सिद्धिके लिए इस कन्याका स्वीकार करता हूं ।’ इससे दहेज एवं दानमें जो मूलभूत अंतर है, वह स्पष्ट होता है । अत: उन दोनोमें कोई समानता नहीं हो सकती !

२. कहते हैं , विवाहसे पूर्व एकसाथ रहकर
स्वभावको समझ लेनेसे विवाह-विच्छेद अल्प होना !

अनुचित विचार

‘विवाहपूर्व एकसाथ रहकर स्वभावको समझ लेनेसे विवाह-विच्छेदकी मात्रा घटेगी !’ – डॉ. प्रमोद साळगावकर (पणजी, गोवामें स्थित ‘ब्रागांझा इन्स्टट्यूट’ में आयोजित समारोहमें प्रस्तुत किए गए विचार)

खंडन

१. एक व्यक्तिके विशेष स्वभावसे मेल न होनेपर
अन्यके साथ रहना भी एक प्रकारसे विवाह-विच्छेद ही होना

विवाहसे पूर्व कुछ समयके लिए एकसाथ रहकर स्वभावको समझ लेनेसे विवाह-विच्छेदकी मात्रा घटेगी , यह प्रतिवाद करना कहांतक उचित है ? आरंभमें कुछ दिन एकसाथ रहनेके पश्चात अनबन होनेपर अलग रहना , यह भी एक प्रकारका विवाह-विच्छेद ही होगा । अमेरिकामें विवाहसे पूर्व एकसाथ रहते हैं, जब समझमें आता है कि स्वभावमें अत्यधिक अंतर है, तो दूसरेके साथ रहना आरंभ करते हैं । इस प्रकार कितनोंके साथ रहकर स्वभावको परखनेमें ही आयु निकल जाती है । इससे यह कैसे कहा जा सकता है कि , विवाह-विच्छेदकी मात्रा घटनेमें सहायता होती है ?
२. अत्यधिक स्वैराचारके कारण मानसिक अस्वस्थतामें वृद्धि होनेसे जीवनमें सुख, समाधान एवं स्थिरता नहीं रहती । इसलिए अब पश्चिमी लोग परिवारके महत्वको समझने लगे हैं ।.’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

३. विवाहके संबंधमें साम्यवादी धारणा

३ अ. कहा जाता है , विवाहके कारण मुक्त अथवा स्वैर आचरणपर प्रतिबंध लगता है !

अनुचित विचार

‘अनुवंश, कुलाचार, परंपराएं इत्यादिका सम्मिलित रूप धर्म कहलाता है । साम्यवादियोंका मानना है कि ‘ मनुष्यके लिए धर्म हाथ-पैरमें पडी हुई बेडियोंके समान है ।’ विवाहके कारण स्वैर आचरणपर प्रतिबंध आ जानेसे , अर्थात कामवासना तृप्त न होनेसे मार्क्स तथा वर्तमानकालीन आधुनिक विचारकोंने विवाह बंधनको त्याज्य माना है। वे Glass-Water Theory का अनुकरण करते हैं, प्यास लगनेपर पानी पीते हैं । उसके लिए पानीका घडा रखनेकी क्या आवश्यकता है, इस प्रकारकी साम्यवादियोंकी धारणा है तथा उनका यह भी कहना है कि ‘बच्चोंका पालन पोषण सरकार करेगी ’

खंडन अथवा दोष-दर्शन

अ. हिंदुओंकी समाजरचना धर्मशास्त्रके अनुसार
तथा विवाहके माध्यमसे मानवहितको सुरक्षित रखनेवाली

साम्यवादियोंका कहना है कि ‘बच्चोंका पालन-पोषण करनेमें माता-पिताकी अपेक्षा सरकार अधिक सक्षम है ।’ इस प्रकारकी समाजव्यवस्था कब तक टिक सकेगी ? साम्यवादके जन्मके केवल ६०-७० वर्षोंके पश्चात ही उसका अस्तित्व मिट गया । हमारी समाजरचनाका आधार शास्त्र है । हम हिंदुओंके विवाह बंधनका उद्देश्य होता है, सुशील प्रजाको जन्म देना, धर्म एवं संस्कृतिको अक्षय बनाए रखना, मनुष्यके ऐहिक हितकी रक्षा करना तथा आध्यात्मिक संतोषकी प्राप्ति करना । हम जातिधर्म, कुलाचार इत्यादिका पालनकर अनुवंशको अखंडित रखते हैं । हमारे विवाहसे उत्पन्न वंश तब तक अक्षय बना रहना चाहिए, जब तक इस पृथ्वीपर नदियां ,पर्वत, वन बने रहेंगे ।’ (साप्ताहिक सनातन चिंतन, ६.११.२००८)

आ. विवाहके कारण सत्शील समाजकी निर्मिति तथा
स्वैर आचरणके कारण उसका अधोगतिकी ओर जाना

‘मानवसहित सभी जीव भोगयोनीके हैं; परंतु केवल मनुष्य ही अपनी भोगलालसापर नियंत्रण रखकर साधनाके द्वारा आत्मोन्नति कर सकता है । अत: विवाहका महत्त्व सर्वश्रेष्ठ है । आत्मोन्नति करना ही मनुष्यके जीवनका लक्ष्य है एवं मानवमें स्थित भोगलालसा केवल प्रजननके लिए ही है । विवाहके कारण आनंद एवं अपनत्वकी प्राप्ति होती है तथा जीवन सुखमय तथा समाज सदाचारी बनता है । इसके विपरीत स्वैराचारके कारण मनुष्यपर किसी प्रकारका बंधन न रहनेसे वह नशेके अधीन होकर स्वच्छंद व्यवहार करता है । स्वच्छंदताके कारण जीवन निराधार बनकर अंततः मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होता है । स्वैराचारके कारण पश्चिमी लोगोंको जिन दुष्परिणामोंका सामना करना पड रहा है ; उसे स्पष्ट रूपसे देखा जा सकता है ।’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

३ आ. व्यभिचारको ‘कामसंतर्पण’ का नाम देकर लोगोंको भ्रमित करनेवाले साम्यवादी !

अनुचित विचार

साम्यवादियोंका मानना है कि,‘वह व्यभिचार नहीं कामसंतर्पण है । ’ वर्तमान समाज कामतृप्तिके लिए विवाहबाह्य संबंधको स्वीकार करता है ।

खंडन

अ. व्यभिचारके कारण अनैतिकताका समर्थन होना

‘इसका अर्थ यह हुआ कि, आधुनिक समाजको व्यभिचार स्वीकार है ! ‘कामसंतर्पण’ केवल पाखंड है । व्यभिचार कई बार प्रतिशोधके रूपमें होता है । व्यभिचार करनेवाला प्रेमभावनाका कारण बताकर अपनी अनैतिकताका निरंतर समर्थन करना चाहता है । जिसमें स्वके प्रति अहं होता है, उसकी भावनाएं अधिक प्रबल होती हैं । भावना प्रधानताके कारण किसी भी घटनाका समर्थन नहीं हो सकता ।’ (साप्ताहिक सनातन चिंतन, ६.११.२००८)

आ. व्यभिचारके कारण जन्म लेनेवाली
संतानका कुमार्गपर चलनेके कारण समाजका अध:पतन होना

‘कामतृप्तिके लिए विवाहबाह्य संबंधको यद्यपि वर्तमान समाज स्वीकृति देता है; किंतु उसके दुष्परिणामको भी ध्यानमें रखना होगा । विवाह संस्कारके कारण परिवारमें जन्म लेनेवाली संतानको सुसंस्कार, प्रेम एवं सुरक्षाका लाभ मिलता है; किंतु व्यभिचारके कारण जो संतान जन्म लेती है, वह इन सबसे वंचित रहती है तथा व्यसनाधीन बनकर कुमार्गपर अग्रेसर होती है । अत: समाजका भी अध:पतन होता है । इसी कारण विदेशोंमें आज अनाचार बढ गया है । वासनासे नित्य प्रेमकी प्राप्ति नहीं हो सकती है । व्यभिचार, स्वैराचार आदिके कारण एड्स जैसे रोग उत्पन्न होते हैं तथा भविष्यमें उसके दुष्परिणाम भुगतने पडते हैं। ध्यानमें रहे अल्पसमयकी कामतृप्तिके लिए मनुष्य पूरे जीवनका विनाश करता है । इस प्रकारके क्षणिक सुखसे क्या लाभ?’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

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