केलेके पत्तेपर भोजन परोसनेकी पद्धति

सारिणी


१. भूमिपर सीधे ही पत्ता अथवा थाली-कटोरी न रखें

१अ. अन्नकी थाली, अपने बैठनेके स्तरसे ऊंचे स्थानपर रखना

अन्न ‘पूर्णब्रह्म’ है, इसलिए उसे ऊंचा स्थान ही देना चाहिए । थाली अपनेसे अधिक ऊंचाईपर रखना, अन्नमें विद्यमान ईश्वरीय तत्त्वका आदर करना है । इस आदरभावके कारण जीवकी आत्मशक्ति जागृत होती है । आत्मशक्तिके बलपर शरीरांतर्गत पंचप्राण कार्यरत होते हैं । शरीरमें पंचप्राणोंके संचारके कारण अन्नसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें जीवद्वारा त्वरित ग्रहण कर ली जाती हैं । थाली ऊंचाईपर रखनेसे हाथ ऊंचा कर भोजन करना पडता है । इससे शरीरांतर्गत ऊर्ध्वगामी वायुओंका संचार बढ जाता है । परिणामस्वरूप अधोगामी तरंगोंका संचार अल्प होकर ऊर्ध्वगामी वायुओंकी सहायतासे अन्नकी सात्त्विक तरंगें अल्प अवधिमें संपूर्ण शरीरमें प्रसारित की जाती हैं ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २२.२.२००५, सायं. ६.३३)

२. भोजनकी थाली (केलेका पत्ता) रखनेका स्थान

पत्ता अथवा थालीकटोरीको स्वच्छ पोंछकर पीढेके सामने चौकीपर रखें । चौकी न हो, तो दूसरा पीढा लें । पीढा भी उपलब्ध न हो, तो भूमिपर जलका चौकोर बनाकर उसपर पत्ता अथवा थाली-कटोरी रखें । जलके चौकोरका यह क्षेत्र साधारणतः वितस्तीमात्र (अंगूठा एवं कनिष्ठ उंगली ताननेपर होनेवाला अंतर; बारह अंगुलकी एक नाप; बित्ता) अथवा प्रादेशमात्र (अंगूठेसे प्रारंभ कर तर्जनीतक की लंबाईका एक मान) होना चाहिए ।

३. केलेके पत्तेपर भोजन परोसनेकी पद्धति

३अ. भोजनके लिए बैठते समय केलेके पत्तेका डंठल अपनी ओर एवं अग्रभाग आगेकी दिशामें रखना

‘केलेके पत्तेके डंठलमें भूमितरंगें आकृष्ट करनेकी क्षमता अधिक होती है; जबकि अग्रसिरेमें सात्त्विक तरंगें प्रक्षेपित करनेकी क्षमता डंठलकी तुलनामें अधिक होती है । इसलिए भोजनके लिए बैठते समय पत्तेका अग्रसिरा आगेकी दिशामें रखते हैं । पत्तेके अग्रसिरेसे निकलनेवाली सात्त्विक तरंगें फुहारे- समान होती हैं । इन तरंगोंके कारण भोजनके लिए बैठे जीवके आसपासके वातावरणमें रज-तमकी मात्रा न्यून होनेमें सहायता मिलती है तथा अन्नके सर्व ओर इन सात्त्विक तरंगोंका कवच बननेमें भी सहायता मिलती है । इससे वातावरणमें विद्यमान अनिष्ट शक्तियोंद्वारा अन्नके माध्यमसे होनेवाली पीडा न्यून होनेमें सहायता मिलती है ।’ – श्री गुरुतत्त्व (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, १०.८.२००४, सायं. ५.५७)

३आ. भोजन करते समय पत्ता आडा रखनेसे सूर्य अथवा चंद्र नाडी सक्रिय होना एवं सीधा रखनेपर सुषुम्नानाडी सक्रिय होना

‘भोजन करते समय पत्तेका अग्रभाग भोजन करनेवालेके दाहिनी ओर कर पत्ता आडे रखनेसे, अग्रसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगोंके कारण सूर्यनाडी सक्रिय होनेमें सहायता मिलती है । इसके विपरीत, पत्ता खडा रखनेसे शरीरके दोनों भागोंको पत्तेके अग्रभागसे प्रक्षेपित तरंगोंका लाभ मिलता है । इससे सुषुम्नानाडी सक्रिय होनेमें सहायता मिलती है । इस कारण शरीरमें सूक्ष्म-वायुका संतुलन भी उत्तम बना रहता है । परिणामस्वरूप शरीरको निरोगी रखनेमें सहायता मिलती है । शक्ति- उपासनामें सूर्यनाडीकी सक्रियताका अधिक महत्त्व होता है । दक्षिण हिंदुस्थानमें अधिकतर लोग शक्ति- उपासक होते हैं । इसलिए वहां पत्ता आडे रखनेकी प्रथा है । महाराष्ट्रमें पत्ता खडा रखते हैं ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, १२.८.२००४, दोपहर ३.१५)

४. भोजनकी थालीके चारों ओर रंगोली बनानेका महत्त्व

४अ. भोजनयुक्त थालीके चारों ओर रंगोली बनानेसे अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमणोंसे रक्षा होना

‘रंगोली शुभदर्शक है । रंगोलीमें भरे जानेवाले हल्दी कुमकुमादि शुभ घटकोंके माध्यमसे वायुमंडलमें विद्यमान भूमितत्त्वतरंगें एवं शक्तितरंगें आकृष्ट होकर रंगोलीकी आकृतिमें घनीभूत होती हैं । ये तरंगें आवश्यकतानुसार वायुमंडलकी अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमणोंसे भोजनयुक्त थालीकी रक्षा करती हैं । रंगोलीके माध्यमसे भूमितरंगों एवं शक्तितरंगोंका भोजनकी थालीके नीचे आच्छादन बन जानेसे भोजनके घटक पदार्थ भी इन तरंगोंसे पूरित हो जाते हैं । भोजनके माध्यमसे देहमें इन तरंगोंका संचार होता है । इससे पाचनप्रक्रियाको गति प्राप्त होकर देहमें इन तरंगोंका घनीकरण होता है । यही ऊर्जा आवश्यकतानुसार जीवको कार्य करनेमें तथा कार्यमें निरंतरता बनाए रखनेमें सहायक होती है । रंगोलीको एक प्रकारसे थालीके सर्व ओर बना सुरक्षामंडल ही माना जाता है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, फाल्गुन कृष्ण चर्तुदशी ६.३.२००८, दोपहर १२.१८)

४आ. ‘थालीके चारों ओर रंगोली बनानेसे रंगोलीसे प्रक्षेपित हो रही सात्त्विक
तरंगोंका थालीमें परोसे हुए अन्नके सर्व ओर गोलाकार गतिमान कवच बननेमें सहायता मिलना

इससे अन्न ग्रहण करते समय वातावरणकी अनिष्ट शक्तियोंकी ओरसे प्रक्षेपित हुई काली तरंगें अन्नके माध्यमसे शरीरमें प्रसारित नहीं हो पातीं । रंगोलीसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगोंके कारण अन्नपर आया रज-तमात्मक तरंगोंका काला आवरण भी न्यूनाधिक मात्रामें दूर होनेमें सहायता मिलती है । इस प्रकार हमें सात्त्विक अन्न ग्रहण करनेका लाभ होता है । सात्त्विक अन्नसे प्रक्षेपित तरंगोंद्वारा उत्पन्न सूक्ष्म-वायु शरीरकी कोशिकाओंद्वारा शीघ्र ग्रहण होकर अन्न-सेवनसे बनी सात्त्विकता भी जीवके शरीरमें शीघ्र संचारित होनेमें सहायता मिलती है ।’ – श्री गुरुतत्त्व (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २१.११.२००४, रात्रि ९.३७)

संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – भोजनसे संबंधित आचार

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