अन्न एवं रोग में परस्पर संबंध, साथ ही पाचनशक्ति के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण विवेचन

 

१. जीभपर नियंत्रण न होना ही रोग का कारण !

वैद्याचार्य सद्गुरु वसंत बाळाजी आठवलेजी

पशुओं को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं ?, इसकी जन्म से ही बुद्धि होती है । गाय, बकरी आदि प्राणी विषाक्त वनस्पतियों के पत्ते नहीं खाते । मनुष्य को अन्न के प्रति जन्मजात बुद्धि बहुत अल्प होती है; किंतु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है । आधुनिक चिकित्सकीय शास्त्र ने प्रत्येक अन्नपदार्थ में प्रथिन, स्निग्ध पदार्थ, कर्बोदक, खनिज, नमक, पानी आदि की मात्रा कितनी है, यह ढूंढ निकाला है । आयुर्वेद ने प्रत्येक अन्नपदार्थ से शरीर में विद्यमान त्रिदोष वात, पित्त एवं कफ; साथ ही धातु, मल एवं अंगोंपर क्या परिणाम होते हैं, यह स्पष्टता के साथ बताया है । इन शास्त्रों का अध्ययन कर प्रत्येक व्यक्ति के अपनी प्रकृति, आयु, ऋतु, पाचनशक्ति आदि का विचार कर कितनी मात्रा में क्या खाना चाहिए, इसपर विचार कर आहार लिया, तो उससे मनुष्य निरोगी रहेगा; परंतु ‘समझ में आता है; परंतु होता नहीं’, यह मनुष्य की स्थिति है; क्योंकि अपनी जीभपर उसका नियंत्रण नहीं है । पेट में आम्लता (एसिडिटी) बढनेपर भी सामने आई हुई भेल खाने से पेटशूल होगा, यह ज्ञात होते हुए भी व्यक्ति उसपर हाथ चलाना नहीं छोडता । इसी को आयुर्वेद में प्रज्ञापनराध (बुद्धिजन्य अपराध) एवं ‘सभी रोगों का मूल’ कहा गया है ।

 

२. प्राकृतिक अन्न से दूर !

आदिमानव प्रकृति में मिलनेवाले कंदमूल, फल एवं पशुओं की शिकार कर उसका मांस खाता था । प्रकृति में विद्यमान स्वच्छ हवा और ताजा बनाए गए अन्न के कारण वह निरोगी था । अब जनसंख्या बहुत ही बढी है । वन और पेडों की संख्या अल्प हुई है । कारखानों से निकलनेवाला धुआं एवं रासायनिक पदार्थ, वाहनों का नाद एवं मनुष्यों की भीड के कारण वातावरण एवं जल प्रदूषित हुआ है । फल, अनाज एवं सब्जियों में कीड न लगे; इसलिए कीटनाशकों का उपयोग बडी मात्रा में किया जा रहा है । अतः सब्जियां और फल स्वच्छ न धो लिए, तो उससे शरीरपर कीटकनाशकों में विद्यमान विषाक्त द्रव्यों के शरीरपर अनिष्ट परिणाम हो रहे हैं । आजकल पशुओं का वजन बढाने हेतु उन्हें कार्टिओस्टिरॉइडस् जैसे हार्मोन्स की गोलियां दी जाती हैं । ऐसे प्राणियों का मांस खाने से मनुष्य को उन हार्मोन्स के दुष्परिणाम भी भुगतने पडते हैं ।

नमक का शोध होने से पहले अन्न में नमक का उपयोग नहीं होता था । उससे रक्तदाब, हृदयविकार, सूजन आना जैसे विकार दुर्लभ थे । अब अन्नपदार्थों को स्वादिष्ट बनाने हेतु नमक का उपयोग बहुत बढा है, जिससे हृदयविकार के झटकों की मात्रा बहुत बढी है ।

चीनी का अविष्कार होनेपर पदार्थों में चीनी डालकर बनाई गई जलेबी, बासुंदी, श्रीखंड, पेढा, बरफी आदि का बडी मात्रा में उपयोग होने लगा । उससे स्थूलता, रक्तचाप, मधुमेह आदि रोगों की मात्रा भी बढी है । चाय-कॉफी जैसे उत्तेजक पेय, आचार एवं मसालों के पदार्थों का सेवन बढने से एसिडिटी, अल्सर आदि रोग बढे हैं । अन्नपदार्थ न सडे अथवा न उतरे; इसलिए बोतलें में मिलनेवाले टमाटर केचप, शीतपेय और अन्य अन्नपदार्थों में स्थित रासायनिक परिरक्षकों का (प्रिजर्वेटिव्ज) का भी शरीरपर अनिष्ट परिणाम होता है ।

विमान यातायात के कारण अलग-अलग देशों में स्थित दूरी न्यून हुई है, जिससे अन्य देशों के विविध अन्नपदार्थ, मसाले आदि का भी हमारे आहार में अंतर्भाव होने लगा है । आजकल चायनीज डिश, मेक्सिकन डिश इत्यादी विदेशी पदार्थ सर्वत्र मिलने लगे हैं । अलग-अलग नए अन्नपदार्थ अब अधिक स्वादिष्ट एवं चटपटे बनाए जाने से तथा उन्हें आकर्षक पद्धति से परोसे जाने से मनुष्य को अपनी जीभपर नियंत्रण रखना असंभव बनता जा रहा है । यंत्रों का अविष्कार होने के पश्‍चात लोग गन्ना एवं अन्य फलों का रस पीने लगे । आयुर्वेद ने फल खाने चाहिएं, गन्ना खाना चाहिए; परंतु उसका रस नहीं पीना चाहिए, ऐसा बताया है; क्योंकि ऊस की कांडी अथवा फल खाते समय हम अंदर कीडा हुआ भाग फेंक तो देते हैं; परंतु उसके साथ ही यंत्र से रस निकालते समय किडे हुए भाग का रस भी उसमें जाकर मिलता है ।

तात्कालीन स्वाद के अधीन होने से सेब जैसे स्वादिष्ट फलों को भी लोग नमक अथवा मसाला लगाकर खा रहे हैं । फ्रीज में अन्नपदार्थ रखने की सुविधा मिलने से मंडी के दिन सब्जियां खरीदकर उन्हें फ्रीज में रखा जाता है और बनाए गए अन्नपदार्थ भी फ्रीज में रखे जाते हैं । इसके विपरीत आयुर्वेद ने ऐसा बताया है कि एक बार ठंडे पडे अन्नपदार्थों को पुनः गर्म कर नहीं खाने चाहिएं । प्राकृतिक अन्न से जीवनसत्त्व, कैल्शियम, लोह आदि प्राप्त करने की अपेक्षा टॉनिक की गोलियां खाने की प्रथा बन गई है । जीवनसत्त्व, कैल्शियम, लोह आदि खनिज अतिरिक्त मात्रा में लेने से शरीरपर उसके दुष्परिणाम होते हैं ।

कई बार समय एवं स्थिति के कारण बदलनेवाली आदतों के कारण ये दुष्परिणाम भले ही तुरंत ध्यान में नहीं आते हों; परंतु कालांतर से उनका परिणाम दिखने लगता है; इसलिए प्रकृति में मिलनेवाले अन्नपदार्थ ताजा खाने से तथा अपनी जीभपर नियंत्रण रखने से मनुष्य को स्वास्थ्यमय जीवन का आनंद मिल सकेगा ।

 

३. पाचनशक्ति अल्पाधिक होने के क्या कारण हैं ?

भोजन की पंक्ति में आज भी ५० लड्डू खाकर उन्हें पचानेवाले खवय्ये मिलते हैं, तो कभी-कभी केवल एक गिलास दूध पीनेपर भी दस्त होनेवाले युवक भी मिलते हैं । पाचनशक्ति में होनेवाले अंतर से यह स्थिति दिखाई देती है । विविध पाचकरसों की मात्रा एवं उनकी गुणवत्तापर पाचनशक्ति निर्भर होती है । प्रत्येक व्यक्ति की पाचनशक्ति जनुकीय संरचनापर निर्भर होती है ।

३ अ. जनुकीय संरचना

कुछ परिवारों में सभी की पाचनशक्ति अच्छी अथवा अल्प होती है । यह पाचनशक्ति जनुकीय संरचनापर निर्भर होती है । केवल मां के दूध पर पेट पालनेवाले कुछ बच्चे दिन में ८-१० बार मलविसर्जन करते हैं, तो कुछ बच्चे २-३ दिन मलविसर्जन नहीं करते ।

३ आ. प्रकृति

सम एवं पित्त प्रकृतिवाले व्यक्तियों की पाचनशक्ति अच्छी होती है; किंतु वात एवं कफ प्रकृतिवाले लोगों की पाचनशक्ति अल्प होती है ।

३ इ. आयु

बच्चे और युवकों में पाचनशक्ति अच्छी होती है; किंतु वृद्धावस्था में पाचनशक्ति अल्प हो जाती है ।

३ ई. अन्न

अतिरिक्त मात्रा में, अल्प मात्रा में अथवा असंतुलित आहार लेना और अनियमित समयपर आहार लेने के कारण पाचनशक्ति अल्प होती है । पाचन के लिए भारी, खमीर चढे हुए, अस्वच्छ, आंशिकरूप से पके हुए अन्न के कारण भी पाचनशक्ति अल्प होती है ।

३ उ. पोषकमूल्यों का अभाव

आहार में प्रथिन अथवा अ एवं ब जीवनसत्त्व के अभाव से पाचनशक्ति घट जाती है ।

३ ऊ. पाचनेंद्रियों से संबंधित रोग

जठर, आंत्र एवं स्वादुपिंड से संबंधित रोगों के कारण पाचनशक्ति अल्प होती है ।

३ ए. रोग

प्रत्येक रोग पाचनशक्तिपर परिणाम करता ही है । किसी भी रोग की प्राथमिक अवस्था में तथा यकृत एवं आंत्रों के रोग में, साथ ही क्षयरोग जैसे रोगों में पाचनशक्ति अल्प होती है ।

३ ऐ. आदत

कुछ लोगों को दूध की आदत न हो, तो उन्हें दूध लेनेपर दस्त होते हैं; किंतु उनमें अन्य पदार्थों को पचाने की क्षमता अधिक होती है । केरल में जन्मा हुआ व्यक्ति चावल एवं मछली, तो पंजाब में जन्मा हुआ व्यक्ति गेहूं और मांस को बडी सहजता से पचा सकता है ।

३ ओ. मानसिक रोग

मानसिक तनाव, क्रोध, भय, चिंता जैसे मानसिक रोगों में भूख और पाचनशक्ति अल्प होती हैं ।

३ औ. व्यायाम

व्यायाम के कारण भूख और पाचनशक्ति बढती है । स्वस्थ व्यक्ति में भूख अच्छी होती है ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘योग्य आहार के संदर्भ में आधुनिक दृष्टिकोण (असंतुलित आहार के कारण होनेवाले विकारों के लिए आयुर्वेदीय चिकित्सासहित)’; लेखक : डॉक्टर तथा वैद्याचार्य सद्गुरु वसंत बाळाजी आठवलेजी एवं डॉ. कमलेश वसंत आठवले)

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