भगवान श्रीकृष्ण संबंधी आलोचनाएं अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन

१. कहते हैं, राम एवं श्रीकृष्ण परमात्मा नहीं, किंतु एक मानव हैं !

आलोचना

यूरोपियन विद्यापिठकी पदवीप्राप्त आई.सी.एस्. श्रेणीके केंद्रशासनके सांस्कृतिक विभागके मुख्य सचिव तथा रामायणके अभ्यासक कहते हैं, `रामायण एक इतिहास है । इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति एवं व्यक्तिके राग-द्वेष, संघर्ष, गुण-अवगुण आदिका निर्वचन रामायणमें है । राम परमात्मा इत्यादि कुछ नहीं । वह एक मानव है ।’ ऐसी ही आलोचना भगवान श्रीकृष्णके संदर्भमें भी की है ।

खंडन

ये छटे हुए लज्जाहीन कहते हैं कि रामायण, महाभारत एक इतिहास है । भूतकालका अध्ययन, वर्तमानके अनुभव तथा भविष्यके अनुमानोंके आधारपर कर्तव्य-अकर्तव्य निश्चित होता है । रामायण, महाभारत एक इतिहास अर्थात शवविच्छेदन / अंत्यपरीक्षण है ।

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् । – रामरक्षास्तोत्र, श्लोक १

अर्थ : रामायणका एक-एक अक्षर भी मनुष्यके महापातकोंका विनाश करनेमें समर्थ है ।

रघुनाथजीके इस चरित्रका, अर्थात रामायणका एक-एक अक्षर महापातकों का विनाश करनेवाला है । पाश्चात्योंके जूते चाटनेवाला ऐसा कहता है कि यह शवविच्छेदन है ।

इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसम्मितम् ।

अर्थ : यह इतिहास पुण्यप्रद, महान फल प्राप्त करवानेवाला एवं वेदमान्य है । रामायण एवं महाभारतके इन इतिहासोंका प्रत्येक वचन पुण्यप्रद तथा शिक्षाप्रद है । यह इतिहास हमारा विश्रामस्थान है । यह मात्र मनोरंजन नहीं है । महाभारत एवं रामायणमें व्यक्तिकी कथाओंको प्रधानता नहीं है । वे आनुषंगिक हैं, गौण हैं । उप-उत्पाद जैसी हैं; परंतु उनमें स्वयं श्रीराम अथवा श्रीकृष्णकी लीलाओंको प्रधानता है । उसमें परब्रह्मस्वरूप श्रीराम एवं श्रीकृष्णकी लीलाओंका संकीर्तन है । वही सत्य, ऋत, पवित्र, सनातन, परम पुण्य है । श्रीराम अथवा श्रीकृष्णकी (श्री राम ही भगवान श्रीकृष्ण हुए हैं) मंगलमयी लीलाओंका संकीर्तन तथा श्रवण यही स्वयं परम पुरुषार्थ है । यह विश्रामस्थान है ।’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (१)

‘ईश्वरके कर्म भावातीत होनेसे वे शुद्धस्वरूप होते हैं; इसलिए उन्हें ‘लीला’ कहते हैं तथा इन लीलाओंका निरंतर स्मरण करनेसे हमारे दोष लुप्त होकर भाव जागृत होता है एवं चित्त शुद्ध होता है । ऐसी उन लीलाओेंकी महिमा है ।

स्कंदपुराणके उत्तरखंडमें नारद एवं सनत्कुमारके वार्तालापमें रामायणकी महिमा वर्णित है । इससे यह दिखाई देता है, ‘राम परमात्मादि कुछ भी नहीं, वह एक मानव है’, ऐसा कहना अर्थात अपनी अल्पमतिका प्रदर्शन करना । श्रीराम एक पुरुषोत्तम अर्थात ईश्वर ही थे ।’ – प.पू. परशराम माधव पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल, महाराष्ट्र.

 

२. कहते हैं, श्रीकृष्ण पहले समाजवादी पुरुष है !

आलोचना

‘श्रीकृष्ण पहले समाजवादी पुरुष है ।’ – श्री. अरुण पांढरीपांडे (‘विस्मरण झालेले सत्य’) (अर्थात विस्मृत सत्य)

खंडन

‘समाजवादसे अत्यंत आगेके चरणका सर्वसमभाव केवल उन्नत एवं अवतारोंमें ही होता है । भगवान श्रीकृष्ण ही नहीं, अपितु उनके बहुत पहले, अर्थात विश्वकी निर्मितिके भी पूर्व लिखे गए वेदोंमें समाजवाद नहीं, अपितु सभीकी परिसीमास्वरूप अद्वैतवाद बताया गया है । पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्णका कार्य अलौकिक है ।

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ८’ अर्थात ‘साधकोंकी रक्षा तथा दुर्जनोंके विनाश हेतु’ उनके इस गीताके वचनानुसार ही उनकी संपूर्ण चरित्रलीला है । ऐसा होते हुए पांढरीपांडेजीने भगवान श्रीकृष्णको ‘प्रथम समाजवादी पुरुष’, ऐसा संबोधित कर उन्हें समाजवादकी चौखटमें बिठानेका प्रयास करना व्यर्थ है ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी (२)

 

३. मुझे भगवान श्रीकृष्णसे अधिक समझता है, ऐसी भ्रांतिमें रहनेवाले गांधी !

आलोचना

‘अर्जुनके लिए प्रतिकार न कर निःशस्त्र रहते हुए मृत्युका स्वीकार करनाही उचित था !’ – गांधी

खंडन

‘क्या गांधीजीको ऐसा भ्रम है कि पूर्णावतारी भगवान श्रीकृष्णकी अपेक्षा उन्हें अधिक समझता है ? सज्जनोंकी रक्षा तथा दुर्जनोंका संहार यही श्रीकृष्णजन्म का उद्देश्य था । भगवान श्रीकृष्णने शिष्टाई कर अंततक युद्धको टालते हुए समझौता करवानेका प्रयत्न किया; परंतु वह सफल न होनेके कारण ही युद्ध अनिवार्य हुआ । यदि अर्जुन गांधीजीके मतानुसार आचरण करता, तो विकृत प्रवृत्तियां अधिकाधिक बलवान होकर मानववंश नष्टप्राय हो जाता ।

गांधीजीके अहिंसावादके परिणाम आज सर्वत्र दिखाई दे रहे हैं । उसके कुछ स्पष्ट उदाहरण निम्नानुसार हैं ।

१. भारतको विभाजनका सामना करना पडा एवं लाखो लोगोंकी हत्या हुई ।

२. नौखालीमें हुए दंगेके समय भी हिंदुओंकी ही हत्या भारी मात्रामें होते हुए भी गांधीजीने हिंदुओंको ही संयमका पालन करनेको कहा ।

३. इकतर्फा अहिंसावादके कारण ही आज हिंदुओंमें षंढता निर्मित हुई है । उद्दंड मुसलमानोंद्वारा होनेवाले अनगिनत अत्याचारोंके विरोधमें हिंदू कुछ नहीं करते, तो राजनीतिज्ञ गांधीवादके इस सर्वधर्मसमभावका उपयोग कर अपना स्वार्थ साधते हुए दिखाई देते है ।

अब तो हिंदुओंको निष्फल अहिंसावादका त्याग कर स्वरक्षार्थ सिद्ध होना चाहिए, अन्यथा वे कब नष्ट हुएं, इसका पता भी उन्हें नहीं चलेगा ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी (३)

संदर्भसूची
घनगर्जित (टिप्पणी १) (१) अंक – अक्टूबर २००९
साप्ताहिक सनातन चिंतन (टिप्पणी १) (२, ३) १.११.२००७
टिप्पणी १ – प्रकाशक – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी समस्त वाङ्मय प्रकाशन. प्रकाशनस्थल : गुरुदेव आश्रम, मु.पो. वडाळामहादेव, ताल्लुका श्रीरामपुर, जनपद अहमदनगर, महाराष्ट्र ४१३ ७३९.

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