क्षात्रधर्म साधना का अर्थ हिंसक कार्यवाहियां नहीं !

२७ सितंबर को दैनिक लोकसत्ता में श्रीकांत पटवर्धन द्वारा लिखित सनातन की विचारप्रणाली और हिंसा, यह लेख प्रकाशित हुआ । इस लेख में सनातन संस्था के क्षात्रधर्म साधना नामक ग्रंथ के संदर्भों के आधारपर सनातन संस्था को हिंसक विचारधारा की संस्था ठहराने का प्रयत्न किया गया ।  सत्य समाज के सामने आए, इसलिए सनातन के प्रवक्ता श्री. अभय वर्तक  ने पटवर्धन के इन विचारों का खंडन किया है । श्री. वर्तक का यह पत्र दैनिक लोकसत्ता ने भी ३ अक्टूबर को प्रकाशित किया था ।

पटवर्धन जिस ग्रंथ पर आज आपत्ति उठा रहे हैं, वह एक ही नहीं, किंतु सनातन के सर्व ग्रंथ गोवा पुलिस, आतंकवादविरोधी पथक, राष्ट्रीय अन्वेषण तंंत्र (एन्आयए) सहित विविध अन्वेषण तंत्रों ने वर्ष २००९ में ही जांचे हैं । क्या कहीं कार्यवाही करना संभव हैं इस उद्देश्य से सनातन प्रभात के वर्ष १९९९ से सर्व संस्करण भी कांच (magnifying glass) लगाकर  जांचे हैं । उन्हें इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला ।

सनातन संस्था का धर्मप्रसार का कार्य गत २३ वर्षों से पूरे भारतभर में चल रहा है । यह सर्व कार्य जागृत भारतीय समाज देख रहा है और उस में सम्मिलित भी हो रहा है । परंतु इस समाजसेवी कार्य की, सनातन के समाजोपयोगी संस्कार, साधना, आयुर्वेद इत्यादि विषयों के सैकडों ग्रंथों की उपेक्षा कर मात्र एक ही ग्रंथ के आधारपर सनातन को हिंसक कार्यवाहियों का समर्थक ठहराना अन्यायपूर्ण है । क्षात्रधर्म साधना का अर्थ हिंसक कार्यवाहियां नहीं, किंतु आजतक के अवतारों, क्रांतिकारियों के उदाहरण देकर भ्रष्टाचार, बलात्कार, अन्याय देखकर शांत बैठनेवाले समाज को जागृत करने का प्रयत्न है । परंतु इस ग्रंथ के कुछ विशिष्ट वाक्यों का मनचाहा अर्थ लगाकर लेखक ने स्वयं को अपेक्षित ऐसा प्रस्तुतिकरण किया है । यदि इस ग्रंथ के श्‍लोकों का लेखकद्वारा लगाया अर्थ मानकर चलेंगे, तो सनातन के पहले रामायण, महाभारत आदि ग्रंथोंपर ही प्रतिबंध लगाने की मांग पुरोगामी करने लगेंगे !
संक्षेप में लेखन की अपेक्षा दृश्यात्मक हिंसा ही अधिक भयंकर होती है । आज किसी भी हिंदी/अंग्रेजी फिल्मों में इतनी भयानक हिंसा दिखाई जाने पर तथा देखने पर भी यदि पुरोगामियों के मतानुसार समाज के मन पर विपरीत परिणाम नहीं होता, तो सनातन के ग्रंथों के लेखन से वैसा परिणाम होने का भय लगना ही अतर्क्य और हास्यास्पद है !

श्रीराम, श्रीकृष्ण, छत्रपती शिवाजी महाराज आदि ने आदर्श राज्यव्यवस्था स्थापित करने के लिए किए संघर्ष को क्षात्रधर्म कहा जाता है । उनके इन आदर्शों को आज के कालानुसार सामने रखकर राष्ट्र और धर्म के प्रति भ्रष्टाचार, बलात्कार, अन्याय करनेवालों के विरोध में उनका किसप्रकार उपयोग करें, यह क्षात्रधर्म साधना ग्रंथ में बताया है । यदि ऐसे विचारों को प्रस्तुत किए जाने से सनातन संस्था को दोषी ठहराया जाता है, तो इस परंपरा को ही दोषी ठहरानेसमान होगा । आज सैनिक सीमापर राष्ट्ररक्षणार्थ जो कृत्य करते हैं, यदि वे ये कृत्य साधना समझकर करेंगे, तो वह उनकी क्षात्रधर्म साधना होगी । इस ग्रंथ में किसी को भी व्यक्तिगरूप से दोषी ठहराने का अथवा भडकाने का उद्देश्य नहीं है । हिन्दू धर्म के अविभाज्य अंग क्षात्रधर्म के संदर्भ में महाभारत, रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता आदि धर्मग्रंथों में प्रतिपादित सिद्धांत ही इसमें संदर्भ सहित दिए हैं । इसीलिए लेखक न कहकर संकलक कहा है । पिछले सहस्रों वर्षों से ये संदर्भ अनेक धर्माचार्य, कीर्तनकार, प्रवचनकार आदि ने अनेक बार प्रस्तुत किए हैं । यही विचार ग्रंथों में प्रस्तुत कर क्या सनातन ने अपराध किया है ?

सनातन ने आजतक प्रकाशित किए २७३ ग्रंथों में से केवल एक ग्रंथ में से केवल एक पृष्ठ का लेखन प्रस्तुत कर सनातन की विचारधारा हिंसक है, ऐसा निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया गया है । परंतु सनातन द्वारा प्रकाशित किए अन्य २७२ ग्रंथों में जो धार्मिक कृत्य, साधना, देवता, बालसंस्कार, समाजसाहाय्य, आयुर्वेद, राष्ट्ररक्षा आदि से संबंधित लेखन है, उनकी लेखक द्वारा उपेक्षा करना ठीक नहीं था ! संक्षेप में कुल ग्रंथों के लेखन के ०.१% से भी अल्प लेखन से सनातन संस्था की विचारधारा निश्‍चित करना, अत्यंत अनुचित है ।

इस लेख में भ्रष्टाचारी, घूसखोर, गुंडे आदि का समाज को रोग लगा हुआ है, इस आशय के लेखन पर आपत्ति उठाई गई है । प्रत्यक्ष में इस लेखन में अनुचित क्या है ? इस समस्याआें के कारण ही आज संपूर्ण देश त्रस्त है । इसका अर्थ सनातन ने किसी की हत्या की अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) दी है अथवा उसका समर्थन किया है, ऐसा कहना क्या उचित होगा ? इससे संबंधित लेखन से पटवर्धन क्या यह सुझाना चाहते है कि डॉ. दाभोलकर, कॉ. पानसरे अथवा कलबुर्गी भ्रष्टाचारी, घूसखोर अथवा गुंडों की पंक्ति में आते हैं ? ऐसे कुछ श्‍लोकों का अर्थ व्यक्तियों की हत्या से जोडना बेतुकी हांकने जैसा ही होगा ।

इस लेख में अवतारों ने जिस प्रकार विरोध का दमन किया, वैसा हम भी हमें होनेवाले विरोध का दमन करेंगे, इस वाक्य पर भी आपत्ति उठाई है । आज विरोध किसे सहन नहीं करना पडता ? परिवार में होनेवाले विवादों से लेकर क्रांतिकारियों के ऐतिहासिक कार्य तक  प्रत्येक को विरोध सहन करना पडता है और उसका दमन भी करना पडता है । क्या इस व्यवहार का अस्वीकार करना वस्तुनिष्ठ होगा ? दमन करेंगे, इसका अर्थ हिंसा करना, ऐसा निकाला जाना बौद्धिक दिवालियापन स्पष्ट करनेवाला है ।

इस संदर्भ में हाल ही के कुछ उदाहरण देख सकते है । किसानों के नेता शरद जोशी, जोगेंद्र कवाडे, एन्.डी. पाटील, विदर्भवादी जांबुवंतराव धोटे आदि ने भी कुछ माह पूर्व ऐसा अनुरोध सार्वजनिक सभाआें में किया था कि किसानो, नक्सलवादी बनो !, दलितो, हाथ में बंदुकें लो ! तो क्या उनके इन विचारों से उन्हें भी नक्सलवादी, आतंकवादी, हिंसक विचारों के समर्थक ठहराएंगे ? ऐसा अनुरोध तत्कालीन परिस्थिति में विचारों के प्रक्षोभ से किया जाता है । इसमें कहीं भी हिंसा का समर्थन नहीं होता, सनातन के ग्रंथ पढते समय कदाचित पटवर्धन इस बात को भूल गए हैं ।

सनातन की विचारधारा के संबंध में बोलने के लिए आज अनेक पुरोगामी विचारक आगे आ रहे हैं । इनमें से किसी ने भी अहिन्दुआें के लेखन के संदर्भ में कभी प्रश्‍न उत्पन्न नहीं किए । आज प्रत्यक्ष ग्रंथ का आधार बताकर क्रूर कृत्य करनेवाला आय.एस्.आय.एस्. जैसा संगठन राज्य कर रहा है । किंतु ऐसा होते हुए भी काफिरों की हत्या करो, उनका धर्मांतरण करो ऐसे भयंकर विघातक सिद्धांतों से युक्त ग्रंथों के लेखन के संदर्भ में ऐसा विचारपूर्वक लेख लिखने का साहस पुरोगामी विचारक सभी नहीं करते ।

सनातन यदि हिंसा ही करना चाहता, तो सनातन ने इतनी बडी संख्या में ग्रंथलेखन क्यों किया होता ? लाखों लोगों को साधना का मार्ग क्यों दिखाया होता ? इस ग्रंथ की प्रस्तावना में अंत में एक वाक्य है । क्षात्रधर्म साधनाद्वारा दुर्जनों का विनाश करना संभव है; परंतु उनका मन जीतना असंभव है । संभव हो, तो उन्हें प्रेमपूर्वक साधना की ओर मोडकर ही सदा के लिए जीतना संभव होगा । यही सनातन की सीख का मर्म है ।

– श्री. अभय वर्तक, प्रवक्ता, सनातन संस्था

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