पूर्णिमा एवं अमावस्या पर होनेवाले कष्ट एवं उन पर उपाय

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अनिष्ट शक्तियों के परिणाम पूर्णिमा अमावस्या
१. तीव्रता (प्रतिशत) ३० से ५० ७०
२. परिणाम टिकने की अवधि ८ से १० दिन महिना भर अथवा अधिक
३. विशेषताएं
३ अ. वातावरण पर होनेवाला परिणाम अधिक मात्रा में उपासना कर शक्ति पाने की प्रक्रिया आरंभ करने से वातावरण में कष्टदायक स्पंदनों से युक्त होना अनिष्ट शक्तियों से सर्वाधिक शक्ति वायुमंडल में (टिप्पणी २) प्रसारित करना एवं इससे वातावरण में (टिप्पणी १) रज-तमयुक्त स्पंदनों से सर्वाधिक प्रमाण में प्रभारित होना
३ आ. अनिष्ट शक्तियों की क्षमता कष्टदायक स्पंदनों से ग्रहण करने की एवं स्वयं का बल बढाने की कष्टदायक स्पंदन प्रसारण करने की क्षमता अधिक
४. आक्रमण
४ अ. स्वरूप यंत्र, मंत्र, प्रत्यक्ष करनी (जादू-टोना), भानामती इन रूपों में अधिक, अर्थात स्थूल एवं सूक्ष्म होने की संभावना होना कष्टदायक स्पंदनों अथवा शक्ती के स्वरुप मे, अर्थात सूक्ष्म स्तरपर अधिक
४ आ. अनिष्ट शक्तियों का स्तर तिसरे एवं चौथे पाताळ से आक्रमण होने की संभावना होना पांचवें एवं छठे पाताल से आक्रमण होने की संभावना अधिक होना
४ इ. दिशा भूगर्भ से, इसके साथ ही भूमि से लगी हुई पट्टी से आक्रमण अधिक होना ऊपर से नीचे की दिशा में, अर्थात आकाशमंडल को प्रधान मानकर आक्रमण होना
४ ई. शारीरिक अथवा बैद्धिक शारीरिक देह की उष्णता की मात्रा बढना, मुंह सूखा पडना, शरीर पर लाल चट्टे आना, आंखें लाल होना, आंखों में वेदना, सिर में वेदना इत्यादि बौद्धिक अधिक बेसुध (बेहोश) होना, प्राणशक्ति न्यून होन, भ्रमिष्टता आना, अपना अस्तित्व गंवाने की संभावना होना, चक्कर आकर गिरना, एकाएक आक्रमकता आना, मन में नकारात्मक विचारों की मात्रा बढना, आत्महत्या के विचार बढना इत्यादि ।
५. उपाय
५ अ. उपायों के घंटे एवं अन्य उपाय न्यूनतम २ घंटे एकाग्र चित्त से नामजप करना आवश्यक होना, इसके साथ ही आध्यात्मिक उपायों को भी प्रधानता देना महत्त्वपूर्ण होना साधना तीव्र करने के लिए दिन में कम से कम चार घंटे एकाग्र चित्त से नामजप करना आवश्यक होना, सतत अनुसंधान में रहकर अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण न हो इसके लिए सतर्क रहना अत्यावश्यक होना, इसके साथ ही उपायों पर बल देकर, उदा. उदबत्ती लगाना, संतों की श्रव्य चक्रिका (ऑडियो) के नाद के प्रसारण से वायुमंडल शुद्ध रखना महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है ।
५ आ. उपायों के पंचतत्त्वों का स्तर पृथ्वी से तेज इन तत्त्वों के उपाय आवश्यक होना, विभूती लगाना, कपूर की सुगंध लेना, इत्र लगाना, तीर्थ छिडकना, गोमूत्र से वास्तुशुद्धि करना महत्त्वपूर्ण होना अधिकतर आकाशतत्व से युक्त उपायों को प्रधानता देना महत्त्वपूर्ण होना, उदा. रिक्त बक्सों (खोकों) के उपाय, संतों के भजन, मार्गदर्शन सुनना इत्यादि
६. साधना की आवश्यकता (व्यष्टि/समष्टि) व्यष्टि साधना के कारण देह के सर्व ओर संरक्षण कवच टिकने से रक्षा होना संभव होना समष्टि साधना से कृपा का वर्षाव अखंड होने से बडे आक्रमणों का भी सामना करना संभव होना

 

टिप्पणी १. वातावरण (घटकवाचक मर्यादितता दर्शानेवाला शब्द) : यह शब्द देहवाचक, घटकवाचक, अर्थात व्यष्टिवाचक अर्थ में है । वातावरण अर्थात एक-आध अथवा अनेक घटकों के सर्व ओर विद्यमान सीमितवाचक आवरण । यह आवरण केवल उस-उस घटक की ऊर्जा से होनेवाले उसी के ही बाह्य ऊर्जात्मक आदान-प्रदान से संबंधित होता है । वातावरण सामान्यत: उस-उस घटक का परिणाम दर्शानेवाला होता है ।

टिप्पणी २. वायुमंडल (क्षेत्रवाचक व्यापकता दर्शानेवाला शब्द) : यह शब्द व्यापक अर्थ में है । वायुमंडल अर्थात ब्रह्मांडमंडल की व्यापत करनेवाला क्षेत्र । वायुमंडल, यह संपूर्णतः उस उस क्षेत्र को ही एक घटक मानकर उस पर होनेवाले परिणामों से संबंधित होता है । इसमें अनेक घटक उनकी व्यष्टि एवं समष्टि क्षेत्र सहित समाए हुए मिलते हैं ।

– (पू.) श्रीमती अंजली गाडगीळ ‘एक विद्वान’ इस नाम से लिखती हैं । (११.४.२०१४, सायं. ६.५९)

(अनिष्ट शक्तियां मनुष्य को कष्ट देती हैं और इन कष्टों को दूर करने के लिए वैदिक ग्रंथों में कई उपायों का उल्लेख किया गया है। इस लेख में ये शब्द यही बताते हैं और शक्तिशाली अनिष्ट शक्तियों के अस्तित्व और उनके शोध के बारे में लाखों वेबसाइटों पर जानकारी उपलब्ध है। – संकलक)

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