‘रज-तम प्रधान स्थान पर जानेपर कष्ट न हो’, इस हेतु साधक आगे दिए आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करें !

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‘कुछ साधकों को स्मशान अथवा अन्य रज-तम प्रधान स्थानों पर व्यक्तिगत कारणों के लिए अथवा समष्टि सेवा के लिए जाना पडता है । ऐसे स्थान रज-तम प्रधान होने से यहां जाने से साधकों पर काफी मात्रा में कष्टदायक (काला) आवरण आता है इसलिए उन्हें विविध प्रकार के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक स्वरूप के कष्ट होने से वे साधना भी ठीक से नहीं कर पाते । ‘साधकों को ऊपर दिए अनुसार कष्ट न हों’, इसलिए उन्हें आगे दिए आध्यात्मिक स्तर के उपाय करने चाहिए ।

 

१. साधक रज-तम प्रधान स्थान पर जाने से पहले ये उपाय करें !

१ अ. साधक परिधान किए जानेवाले वस्त्र चैतन्य से प्रभारित करना

साधक रज-तम प्रधान स्थान पर जाते समय जो वस्त्र परिधान करनेवाले हों, उन्हें प्रभारित कर परिधान करें । वस्त्र प्रभारित करने के लिए धुले हुए वस्त्र को कुछ समय धूप में रखें । तदुपरांत दैनिक सनातन प्रभात, देवताओं के सात्त्विक चित्र, नामपट्टियां अथवा कपूर का टुकडा डालकर, ये वस्त्र रिक्त खोके में रखें । इसप्रकार चैतन्य से प्रभारित किए वस्त्र परिधान करने से साधकों के स्थूल एवं सूक्ष्म देहों के सर्व ओर सात्त्विकता एवं चैतन्य का सुरक्षाकवच निर्माण होता है ।

१ आ. साधक देवताओं के चित्र अथवा नामपट्टियां
कपडे की थैली में डालकर उन्हें परिधान किए वस्त्रों को
अंदर से अनाहतचक्र एवं मणिपुरचक्र पर ऐसे लगाएं जिससे वे आगे एवं पीछे आए ।

साधक देवताओं के चित्र अथवा नामपट्टियां कपडे की छोटी थैली में डालकर उन्हें वस्त्रों को अंदर लगाकर वे चित्र अथवा नामपट्टियां अनाहतचक्र एवं मणिपुरचक्र पर आगे एवं पीछे आएंगे, इसप्रकार लगाएं । इसकारण देह के सर्व ओर सुरक्षाकवच निर्माण होकर रज-तम प्रधान स्थान पर होनेवाले कष्टदायक शक्ति के आक्रमण से साधकों की रक्षा होने में सहायता होती है ।

१ इ. साधक प्राणवहन पद्धति अनुसार नामजप ढूंढकर करना

रज-तम प्रधान स्थान पर जानेसे पहले प्राणवहन पद्धति अनुसार नामजप ढूंढकर उसे मन ही मन में शुरू कर दें अथवा भ्रमणभाष में ध्वनिमुद्रित कर उसे सुनें ।

कु. मधुरा भोसले

 

२. साधक रज-तम प्रधान स्थान पर जाने के पश्चात किए जानेवाले उपाय

२ अ. साधक संतों की आवाज में भजन अथवा दैवीय नाद सुनें

प.पू. भक्तराज महाराजजी के भजन अथवा दैवीय नाद भ्रमणभाष में धीमी आवाज में लगागर साथ में रखी थैली (बैग) में रखें । भजन अथवा दैवीय नाद की चैतन्यमय नादलहरों के कारण साधकों के आसपास वातावरण की शुद्धि होकर साधक के सर्व ओर सात्त्विक नादलहरों का संरक्षककवच निर्माण होने में सहायता होती है ।

२ आ. साधकों ने प्राणशक्तिवहन पद्धति से ढूंढा हुआ नामजप करना अथवा नया नामजप ढूंढ निकालना

ऐसे स्थानों पर जानेसे पूर्व प्राणशक्तिवहन पद्धति से ढूंढा हुआ नामजप करें । इस नामजप के कारण सूक्ष्म से होनेवाला कष्ट दूर न हो रहा हो, तो पुन: प्राणशक्तिवहन पद्धति से नामजप ढूंढकर उसे सुनें अथवा मन ही मन में करें । इससे साधकों की ओर देवता का तत्त्व एवं चैतन्य आकृष्ट होकर साधक के सर्व ओर दैवीय शक्ति का सुरक्षाकवच निर्माण होता है । इससे साधक को रज-तम प्रधान स्थानों पर होनेवाला आध्यात्मिक कष्ट अल्प मात्रा में होता है ।

२ इ. साधक द्वारा मुखपट्टी (मास्क) धारण करने से पूर्व किए जानेवाले उपाय

साधक धारण की जानेवाली मुखपट्टी स्वच्छ धोकर धूप में रखे । जब वह धूप में सूख जाए, तब उसे अंदर की ओर से अत्तर अथवा कपूर का चूरा लगाकर उसे लगाएं । इससे श्वास के माध्यम से चैतन्यमय सुगंध देह में जाकर श्वसनमार्ग खुला होगा एवं देह के अंदर तक चैतन्य फैलेगा । इसप्रकार मुखपट्टी लगाने से साधकों को आध्यात्मिक लाभ होकर उन्हें होनेवाले शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप के कष्ट न्यून होने में सहायता होगी । अन्य समय में भी साधकों को मुखपट्टी, अर्थात मास्क लगाना पडता है । इसलिए साधक अन्य समय भी मुखपट्टी धारण करने से पूर्व ये उपाय कर सकते हैं ।

 

३. साधक द्वारा रज-तम प्रधान स्थान से जाकर आने के उपरांत किए जानेवाले उपाय

३ अ. साधकों को गोमूत्र, विभूति अथवा कपूर मिश्रित पानी से सिर से स्नान करना

ऐसे स्थानों पर जाकर आनेपर साधक घर अथवा आश्रम में सिर से गोमूत्र, विभूति अथवा कपूर मिश्रित पानी से सिर पर से पानी डालकर स्नान करें । इससे साधकों के सप्त कुंडलिनीचक्र, नवद्वार, स्थूल देह एवं सूक्ष्म देहों पर आए कष्टदायक आवरण आपमय चैतन्यलहरियों के स्पर्श से दूर होते हैं । इसकारण साधकों को स्थूल अथवा सूक्ष्म स्तर पर प्रतीत होनेवाला भारीपन अथवा थकान अथवा निरुत्साह दूर होकर हलकापन लगता है ।

३ आ. साधक स्नान के पश्चात धुले एवं देवताओं की
सात्त्विक नामपट्टियों एवं कपूर के चैतन्य से प्रभारित वस्त्र परिधान करना

धुले वस्त्र की सात्त्विकता उपयोग किए गए वस्त्र की तुलना में अधिक होने से साधकों को स्नान करने के पश्चात धुले हुए एवं देवताओं की सात्त्विक नामपट्टियां एवं कपूर के चैतन्य से प्रभारित किए वस्त्र परिधान करने चाहिए । इससे वस्त्र की सात्त्विक लहरियां देह में प्रविष्ट होने से साधकों की देह के रज-तम लहरियों का प्रभाव न्यून होने लगता है एवं साधक को होनेवाला कष्ट अल्प होने लगता है ।

३ इ. साधकों को धूप के उपाय करना

तदुपरांत साधकों को १५ – २० मिनट जितनी देर सहन हो सके, उतनी धूप में बैठकर नामजपादि उपाय करें । धूप में बैठने से साधकों की स्थूल एवं सूक्ष्म देहों पर सौरऊर्जा की सात्त्विकता, मारक शक्ति एवं चैतन्य का वर्षाव होकर उनके सर्व ओर की सूक्ष्म स्तरीय कष्टदायक शक्ति का आवरण काफी मात्रा में नष्ट हो जाता है एवं देह में सात्त्विक शक्ति कार्यरत होती है । इससे साधक को होनेवाले विविध प्रकार के कष्ट दूर होते हैं ।

 

४. इतने उपाय कर साधकों का कष्ट न्यून न हो रहा हो,
तो उन्हें आगे दिए आध्यात्मिक स्तर पर उपाय करना आवश्यक

४ अ. नमक पानी के उपाय करना

साबुत नमक डाले हुए पानी में दोनों पैर १५ – २० मिनट डुबा कर रखें ।

४ आ. खोके के उपाय करना

एक बडे खाली खोके में दोनों पैर रखकर १५ – २० मिनट बैठें । इससे खोके की रिक्ती में पैरों की कष्टदायक शक्ति खींच ली जाती है अथवा शरीर में भारीपन अथवा वेदना जैसे कष्ट दूर हो जाते हैं ।

४ इ. उदबत्ती से आवरण निकालना

उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त साधक मोरपंख अथवा उदबत्ती स्वयं के शरीर पर घुमाकर अपनी देह एवं कुंडलिनीचक्र पर से कष्टदायक शक्ति का आवरण निकालें ।

४ ई. कपूर, फिटकरी अथवा नारियल से प्रत्यक्ष अथवा मानसरीति से दृष्टि निकालना

साधक अपने ऊपर से कपूर की टिक्की अपने सामने से एवं पीछे की ओर से घुमाकर, फिर उसे नारियल के खोखल में जलाएं अथवा अपने कुटुंबियों को अथवा अन्य साधकों को नारियल अथवा फिटकरी से दृष्टि निकालने के लिए कह सकते हैं । यदि प्रत्यक्ष दृष्टि निकालना संभव नहीं है, तो साधक हनुमानजी से प्रार्थना कर उन्हें मानस दृष्टि निकालने के लिए बता सकते हैं ।

४ उ. प्राणशक्ति पद्धति से ढूंढा हुआ नामजप करना अथवा नया नामजप करना

पहले के नामजप से लाभ न हो रहा हो, तो पुन: प्राणशक्तिवहन पद्धति से नामजप ढूंढकर उसे सुनें अथवा मन ही मन में नामजप करें ।

उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त साधक इत्र लगाकर उसकी सुगंध लेना एवं कपूर का चूरा कर उसे सूंघना, ये उपाय भी करें । तब भी ठीक न लग रहा हो, तो साधक उत्तरदायी साधक अथवा संतों से सूक्ष्म के कष्ट न्यून होने हेतु नामजपादि उपाय पूछ लें ।’

– कु. मधुरा भोसले (सूक्ष्म से मिला ज्ञान), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

आध्यात्मिक कष्ट

इसका अर्थ व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे भी अधिक मात्रा में होना, अर्थात तीव्र कष्ट, नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना, अर्थात मध्यम कष्ट, तो ३० प्रतिशत से अल्प होना, अर्थात मंद आध्यात्मिक कष्ट होना है । आध्यात्मिक कष्ट यह प्रारब्ध, पूर्वजों के कष्ट आदि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । आध्यात्मिक कष्ट का निदान संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझ पानेवाला साधक कर सकता है ।

सूक्ष्म

व्यक्ति का स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अवयव नाक, कान, आंखें, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रियां हैं । ये पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि के परे अर्थात ‘सूक्ष्म’। साधना में प्रगति करनेवाले कुछ व्यक्तियों को ये ‘सूक्ष्म’ संवेदना अनुभव होती हैं । इस ‘सूक्ष्म’के ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।

सूक्ष्म-जगत्

जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रियों (नाक, जीभ, आंखें, त्वचा एवं कान) को समझ में नहीं आता; परंतु जिसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है, उसे ‘सूक्ष्म-जगत’ संबोधित करते हैं ।

सूक्ष्म का दिखाई देना, सुनाई देना इत्यादि (पंच सूक्ष्मज्ञानेंद्रियों को ज्ञानप्राप्ति होना)

कुछ साधकों की अंतर्दृष्टि जागृत होना, अर्थात उन्हें आंखों से न दिखाई देनेवाला दिखाई देता है, तो कुछ लोगों को सूक्ष्म का नाद अथवा शब्द सुनाई देते हैं ।

यहां प्रकाशित की गई अनुभूति ‘जहां भाव वहां भगवान’ इस उक्ति के अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूति है । वह सभी को आएगी ही, ऐसा नहीं है । – संपादक

 

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