भक्ति के सुंदर उदाहरण वाला जनाबाई के जीवन का प्रसंग
जनाबाई जैसे भक्त बनने के लिए उनकी ही तरह हर काम में, हर प्रसंग में ईश्वर को अपने साथ अनुभव करना, उनसे हर प्रसंग का आत्मनिवेदन करते रहना, उनको ही अपना सब मानकर अपनी सब बातें बताना आवश्यक है ।
जनाबाई जैसे भक्त बनने के लिए उनकी ही तरह हर काम में, हर प्रसंग में ईश्वर को अपने साथ अनुभव करना, उनसे हर प्रसंग का आत्मनिवेदन करते रहना, उनको ही अपना सब मानकर अपनी सब बातें बताना आवश्यक है ।
कलियुग में साधारण व्यक्ति की सात्त्विकता निम्न स्तर पर आ गई है । ऐसे में वेद एवं उपनिषद के गूढ भावार्थ को समझना क्लिष्ट हो गया है ।
दान करना कर्मयोगानुसार साधना है । कर्मयोगानुसार दान करने की साधना के लिए गुरु की आवश्यकता नहीं होती ।
‘पात्रे दानम् ।’ यह सुभाषित सर्वविदित है । दान का अर्थ है ‘किसी की आय और उसमें से होनेवाला व्यय घटाकर, शेष धनराशि से सामाजिक अथवा धार्मिक कार्य में योगदान ।’
अर्थात भगवान का स्मरण करते जाएं । उनके नाम का अखंड जप करें । नामस्मरण कर संतुष्ट हों । सुख हो अथवा दु:ख मन उद्विग्न हो अथवा चिंता में, सर्वकाल और सभी प्रसंगों में नामस्मरण करते जाएं ।
ईश्वर को मन से स्वामी स्वीकार कर स्वयं को उनका दास समझना दास्य भक्ति है । ईश्वर की सेवा कर प्रसन्न होना । भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना ‘दास्य भक्ति’ कहलाता है ।
भगवान के साकार रूप के साथ स्वयं का गहन नाता स्थापित करने का प्रयास और उसके लिए किया गया प्रत्येक प्रेममय कृत्य है ‘अर्चन’ ।
सख्य भक्ति में भक्त ईश्वर को अपना सखा और सर्वस्व मानकर उसकी सेवा करता है । इसमें भक्त का भाव रहता है कि भगवान मेरे सखा हैं ओैर मेरे सुख-दु:ख में सहायक हैं । इस भाव से भक्ति करना, सख्यभक्ति कहलाता है । सख्यभक्ति में भक्त व भगवान के बीच कोई भेद नहीं होता ।
हमारे द्वारा किए जा रहे नमस्कार में जब भाव आता है, तब उसका रूपांतरण वंदन में होता है और इस भाव से नमस्कार करते जानेपर धीरे-धीरे उस नमस्कार का रूपांतरण भक्ति में होता है । उसी का नाम है वंदनभक्ति !
माता लक्ष्मी, माता सीता, साथ ही भरत और केवट की भांति भगवान की पादसेवन भक्ति करने हेतु संपूर्ण सृष्टि आतुर है ।