नवविधा भक्ति – कीर्तन भक्ति !
नवविधा भक्ति का श्रवण, कीर्तन यह क्रम सृष्टिक्रम के अनुरूप है । मनुष्य जब जन्म लेता है, तब वह जो सीखना आरंभ करता है, वह श्रवण से सीखता है
नवविधा भक्ति का श्रवण, कीर्तन यह क्रम सृष्टिक्रम के अनुरूप है । मनुष्य जब जन्म लेता है, तब वह जो सीखना आरंभ करता है, वह श्रवण से सीखता है
सच्चे भक्तों के मन में ईश्वर के स्मरण के अतिरिक्त दूसरी कोई भी इच्छा नहीं होती । वे मोक्षप्राप्ति की इच्छा भी नहीं रखते । भक्तों के हृदय में भक्ति की ज्योत, गुरुकृपा से तथा साधकों के और संतों के सत्संग से सदैव प्रज्वलित रहती है । यही नवविधा भक्ति में पहली भक्ति है श्रवण भक्ति ।
इसलिए यदि हम अपने आसपास सभी में गुण देखने की वृत्ति बढा लें, तो हमें ध्यान में आएगा कि भगवान में अनंत गुण हैं और उन्होंने अपने सभी गुण हमारे आसपास की ही सृष्टि में बिखेर दिए हैं ।
भाव जागृति में कर्तापन को त्याग कर, सब ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है, एसा भाव रखना चाहिए । जैसे मैंने कुछ अच्छा किया, तो यह बुद्धि तो ईश्वर ने ही दी है ।
आज से हम जो भी कृति करेंगे वह ईश्वर का स्मरण करते हुए और जैसी ईश्वर को अच्छी लगेगी, वैसी करेंगे । फिर हम उसे ईश्वर को समर्पित करेंगे ।
आज तक जहां राम-नाम का स्मरण होता है, जहां रामकथा होती है, वहा साधकों को मदद करने के लिए हनुमानजी सूक्ष्मरूप से उपस्थित रहते हैं ।
‘भा’ + ‘व’ अर्थात भाव । यहां ‘भा’ का अर्थ है ‘तेज’ एवं ‘व’ अर्थात वृद्धि करनेवाला । अर्थात हममें तेजतत्व की वृद्धि करनेवाला ।
भगवान के पास जाते समय यदि मन में गर्व लेकर जाएंगे अथवा बिना शरणागत हुए जाएंगे, तो निश्चितरूप से भगवान की कृपा नहीं मिलती । हम याचक बनकर गए, शरणागत होकर गए, बिना फल की अपेक्षा रखकर गए, तो भगवान शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।
भगवान का अस्तित्व प्रत्येक कृति करते समय तथा प्रत्येक क्षण अनुभव करना, प्रत्येक कृति करते समय भगवान के अस्तित्व की अनुभूति लेना, अथवा ईश्वर के अस्तित्व का भान होना, यही है भाव !
देवता अथवा गुरु के सगुण रूप की मन से कल्पना कर मन से ही उनकी स्थूल की कृति समान पूजा करना, अर्थात मानसपूजा करना ।