पिंडदान करने का अध्यात्मशास्त्र
‘पिंड लिंगदेह का प्रतिनिधित्व करता है । जब लिंगदेह स्थूल देह से विलग होता है, वह वायुमंडल में मन के संस्कारों के अनेक आवरणसहित बाहर आता है । आसक्तिदर्शक घटकों में अन्न का सहभाग सर्वाधिक होता है ।
‘पिंड लिंगदेह का प्रतिनिधित्व करता है । जब लिंगदेह स्थूल देह से विलग होता है, वह वायुमंडल में मन के संस्कारों के अनेक आवरणसहित बाहर आता है । आसक्तिदर्शक घटकों में अन्न का सहभाग सर्वाधिक होता है ।
ये अनुष्ठान अपने पितरों को (उच्च लोकों में जाने हेतु) गति मिले, इस उद्देश्य से किए जाते हैं । शास्त्र कहता है कि उसके लिए ‘प्रत्येक व्यक्ति अपनी वार्षिक आय का १/१० (एक दशांश) व्यय करे’ । यथाशक्ति भी व्यय किया जा सकता है ।
श्राद्ध में दर्भ (कुश), काला तिल, अक्षत, तुलसी, भृंगराज (भंगरैया) आदि वस्तुओं का उपयोग किया जाता है ।
इहलोक छोड गए हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए जो कुछ किया, वह उन्हें लौटाना असंभव है । पूर्ण श्रद्धा से उनके लिए जो किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।
श्राद्ध के कारण पूर्वजदोष के (पितृदोषके) कष्ट से रक्षा कैसे होती है ? ‘श्राद्धद्वारा उत्पन्न ऊर्जा मृत की लिंगदेह में समाई हुई त्रिगुणात्मक ऊर्जा से साम्य दर्शाती है; इसलिए अल्पावधि में श्राद्ध से उत्पन्न ऊर्जा के बल पर लिंगदेह मत्र्यलोक पार करती है । (मत्र्यलोक भूलोक एवं भुवर्लोक के मध्य स्थित है ।) एक बार … Read more
जिस प्रकार माता-पिता एवं निकटवर्तीय परिजनों की जीवितावस्था में हम उनकी सेवा धर्मपालन समझकर करते हैं, उसी प्रकार उनकी मृत्यु के पश्चात् भी उनके प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं । इन कर्तव्यों की पूर्ति एवं उनके द्वारा पितृऋण चुकाने का अवसर श्राद्धकर्म से मिलता है।
हिंदु धर्ममें उल्लेखित ईश्वरप्राप्तिके मूलभूत सिद्धांतोंमेंसे एक सिद्धांत ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण, इन चार ऋणोंको चुकाना है । इनमेंसे पितृऋण चुकानेके लिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है ।
कलियुगमें अधिकांश लोग साधना नहीं करते, अत: वे मायामें फंसे रहते हैं । इसलिए मृत्युके उपरांत ऐसे लोगोंकी लिंगदेह अतृप्त रहती है । ऐसी अतृप्त लिंगदेह मर्त्यलोक (मृत्युलोक)में फंस जाती है । मृत्युलोकमें फंसे पूर्वजोंको दत्तात्रेयके नामजपसे गति मिलती है
‘दर्भ तेजोत्पादक है, अर्थात तेजकी निर्मितिके लिए कारक एवं पूरक है । अतः दर्भकी सहायतासे श्राद्धविधि करनेसे, उससे प्रक्षेपित तेजोमय तरंगोंके प्रभावसे श्राद्धके प्रत्येक विधिकर्ममें रज-तम कणोंके हस्तक्षेप की मात्रा घटकर विधिकर्मको गति प्राप्त होती है ।
‘प्रत्येक कृतिकी परिणामकारकता, उसका कार्यरत कर्ता (उसके कर्ता), कार्य करनेका योग्य समय एवं कार्यस्थल आदिपर निर्भर करती है ।