उपवास

‘विविध उपवास भारतीय संस्कृति की विशेषताएं हैं । इन उपवासों में साधु-संतों के, ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद होने से उपासकों को दैवीय तेज प्राप्त होता है ।

निरोगी शरीर के लिए परिहार के विरुद्ध आहार लेना टालें !

‘आयुर्वेदीय आहारमंत्र’ नामक मेरी इस पुस्तक में भोजनविधि की विस्तृत जानकारी दी है । भूख लगनेपर हाथ स्वच्छ धोकर उष्ण, ताजे, स्निग्ध पदार्थ एकाग्रचित्त से एवं पेट में थोडी जगह रखकर खाएं, ऐसे कुछ नियम हैं । ढाबे पर बैठकर लिया गया आहार ‘विधिविरुद्ध आहार’ है ।

भगवान को नैवेद्य दिखाने का आधारभूत शास्त्र

नैवेद्य दिखाते समय सात्त्विक अन्न का नैवेद्य भावपूर्ण प्रार्थना करके भगवान को अर्पण करने पर उस नैवेद्य के पदार्थ की सात्त्विकता के कारण भगवान से प्रक्षेपित होनेवाली चैतन्य-लहरें नैवेद्य की ओर आकृष्ट होती हैं । इससे नैवेद्य के लिए अन्न बनाते समय उसमें देशी घी के समान सात्त्विक पदार्थाें का उपयोग किया जाता है ।

विपरीत आहार के प्रकार

कुछ व्‍यक्‍तियों के लिए देश, काल, अग्नि, प्रकृति, दोष, आयु इत्यादि का विचार करने पर कुछ अन्नपदार्थ हानिकारक सिद्ध होते हैं । ऐसे खाद्य पदार्थ विपरीत आहार में समाविष्‍ट होते हैं ।

अन्नसेवन यह एक ‘यज्ञकर्म’ है

हिन्दू धर्मशास्त्र में नामजप सहित सात्त्विक अन्नसेवन को ‘यज्ञकर्म’ कहा है । ‘यज्ञकर्म’ करने से अन्न सहज ही पच जाता है और प्राणशक्ति मिलती है ।

उत्तम स्वास्थ्य हेतु भोजन निश्‍चित समय पर करना आवश्यक !

एक आहार पचने के बाद ही दूसरा आहार करना चाहिए, यह भोजन का सबसे सरल सिद्धांत है । आयुर्वेद के अनुसार निश्चित समय पर भोजन करने से पाचनक्रिया ठीक रहती है । इस लेख में, आयुर्वेद के अनुसार भोजन करने का उचित समय बताया गया है ।

अन्न एवं रोग में परस्पर संबंध, साथ ही पाचनशक्ति के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण विवेचन

आदिमानव प्रकृति में मिलनेवाले कंदमूल, फल एवं पशुओं की शिकार कर उसका मांस खाता था । प्रकृति में विद्यमान स्वच्छ हवा और ताजा बनाए गए अन्न के कारण वह निरोगी था ।

आहार का मन से संबंध

आहार से संबंधित धर्मशास्त्र द्वारा बताए नियमों का पालन न करने से जो हानि होती है, उससे भी अधिक हानि आधुनिक आहारपद्धति को अपनाने से हो रही है ।

आहार एवं रुचि-अरुचि

केवल जीभ की रुचि-अरुचि की पूर्ति करना तथा रसों के स्वाद में फंसना, विदेशी संस्कृति है । यह संस्कृति शील भ्रष्ट करती है । आहार यदि तमोगुणी हो, तो तमोगुणी विचारों की उत्पत्ति से मन एवं बुद्धि का संतुलन बिगडता है तथा जीव नीतिविहीन बनता है ।