स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया क्यों महत्त्वपूर्ण है ?

स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया क्या है ?

स्वभावदोषों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, पारिवारिक, सामाजिक व आध्यात्मिक दुष्परिणामों को दूर कर, सफल व सुखी जीवन जीने हेतु, स्वभावदोषों को दूर कर चित्त पर गुणों का संस्कार निर्माण करने की प्रक्रिया को ‘स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया’ कहते हैं ।

राष्ट्र की दुर्दशा पर उपायस्वरूप सुसंस्कारित समाजमन की आवश्यकता

व्यक्ति व समाज का स्वास्थ्य एक-दूसरे पर निर्भर करता है । वर्तमान समाजव्यवस्था में अनेक दुर्गुणों का अनुभव हमें दैनिक जीवन में पग-पग पर होता है । राज्यकर्ता, जनता, कर्मचारी व धार्मिक नेता, इन चार महत्त्वपूर्ण मूलभूत समाजघटकों में स्वभावदोेष बढने के कारण केवल राजकीय क्षेत्र ही नहीं; अपितु सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्र कम-अधिक मात्रा में मलिन हुए हैं । समस्त राष्ट्रवासियों को हुआ धर्म व नीतिका विस्मरण तथा उनके घोर अनादर के कारण ही राष्ट्र की दुर्दशा हुई है । संपूर्ण समाजव्यवस्था सुस्थित करने के लिए अपने दुर्गुणों का निर्मूलन व गुणों का संवर्धन करना, यह समाज के प्रत्येक घटक का प्रथम कर्तव्य है ।

हमारा मन गुण-दोषों की वास्तविकता को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता, इसलिए मन के अभ्यास में विकारी मन व्यक्ति को पग-पग पर धोखा देता हैै । भान होने पर भी व्यक्ति के लिए अपने स्वभावदोष स्वीकारना कठिन होता है । अनेक बार अहं बाधक बनता है । मन को टटोलने की दिशा अयोग्य होती है तथा इस प्रक्रिया में विविध चरणों पर चूक भी होती हैं । अपेक्षित परिवर्तन न होने से व्यक्ति निराशा में डूब जाता हैै । अंतर्मुखता के प्रवाह में संभावित बाधाओं को दूर कर, इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर पाने हेतु आवश्यक गुण, इस प्रक्रिया के अंतर्गत विविध चरणों को आचरण में लाने हेतु आवश्यक उचित दृष्टिकोण, प्रत्येक चरण अनुरूप कृति करते समय कौनसी बातों को ध्यान में रखना तथा क्या चूक नहीं करनी चाहिए आदि विषयों से संबंधित जानकारी इस लेख में दी है ।

साधारण व्यक्ति हो या परमार्थपथ पर अग्रसर साधक, वह सर्वोच्च व चिरंतन सुख की प्राप्ति हेतु और साथ ही दुःखनिवृत्ति हेतु भी प्रयत्नशील रहता है । इन प्रयत्नों के अंतर्गत सुखप्राप्ति में संभावित बाधाओं व दुखों के कारणों को ढूंढकर उन्हें दूर करना आवश्यक है । आध्यात्मिक परिभाषा में इस प्रक्रिया को ‘अंतर्मुखता साध्य करना’ कहते हैं । सामान्य व्यक्ति की व प्राथमिक अवस्था के साधक की वृत्ति बहिर्मुखी होती है । प्रारंभ में एक मनुष्य की दृष्टि से उसे अपने निश्चित स्वरूपका भान ही नहीं रहता । साथ ही अपने विषय में कुछ भ्रामक धारणाएं होती हैं । इन धारणाओं के आधार पर वह वास्तविकता के विपरीत मन में एक ‘काल्पनिक प्रतिमा’ निर्माण करता है । जाने-अनजाने वह इस काल्पनिक प्रतिमा को संजोए रखने हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहता है । अंतर्मुखता के प्रथम चरण में इस काल्पनिक प्रतिमा को खंडित कर, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना तथा उसके लिए अपने मनका अध्ययन करना आवश्यक है । स्वयं से परिचय जितना वास्तविक होगा, अंतर्मुखता की प्रक्रिया उतनी ही अधिक प्रभावी होगी ।

मानवीय मन के गुण-दोष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसलिए अपने मन के अध्ययन में स्वभाव के गुण-दोष ढूंढना आवश्यक है । हमारा मन गुण-दोषों की वास्तविकता को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होता, इसलिए मन के अभ्यास में विकारी मन व्यक्ति को पग-पग पर धोखा देता हैै । भान होने पर भी व्यक्ति के लिए अपने स्वभावदोष स्वीकारना कठिन होता है । अनेक बार अहं बाधक बनता है, मन को टटोलने की दिशा अयोग्य होती है तथा इस प्रक्रिया में विविध चरणों पर चूक भी होती हैं । अपेक्षित परिवर्तन न होने से व्यक्ति निराशा की गहरी खाई में डूब जाता हैै । स्वयं ही अपने गुण-दोष कैसे पहचानें तथा स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया के माध्यम से अंतर्मुखता साध्य कर सुखप्राप्ति हेतु स्वयं में आवश्यक परिवर्तन कैसे लाएं, यह जानने के लिए कृपया इस लेखमालिका के अगले लेख पढें । जिसमें अंतर्मुखताके प्रवाह में संभावित बाधाओं को दूर कर, इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर पाने हेतु आवश्यक गुण, इस प्रक्रियाके अंतर्गत विविध चरणों को आचरण में लाने हेतु आवश्यक उचित दृष्टिकोण, प्रत्येक चरण अनुरूप कृति करते समय कौन-सी बातों को ध्यान में रखना तथा क्या चूक नहीं करनी चाहिए आदि विषयों की विस्तृत जानकारी दी गई है ।

 

स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया क्यों महत्त्वपूर्ण है ?

१. व्यावहारिक दृष्टिकोण से

अ. शारीरिक स्तर पर : स्वभावदोषों के कारण शारीरिक रोग भी निर्माण होते हैं । उन्हें ‘मनोकायिक विकार’ कहते हैं । उदा. चिंता करने का स्वभाव हो तो शरीर की सर्व संस्थाओं पर उसका दुष्परिणाम होता है व उससे आम्लपित्त, आंत्रव्रण (अल्सर), दमा, हृदयविकार, उच्च रक्तदाब इत्यादि रोग निर्माण होते हैं ।

आ. मानसिक स्तर पर : मानसिक रोग होना, जीवन तनावग्रस्त होना, व्यसनाधीनता, स्वभावदोष दूर न करना, अर्थात् वर्तमान व आगे के जन्मों में उसका बोझ ढोना । इस प्रकार प्रत्येक जन्म में स्वभावदोषों के संस्कार दृढ होते हैं । इस जन्म में ही अपने स्वभावदोष दूर करने के प्रयास नहीं किए गए, तो इस जन्म में जमा हुए ब्याज के साथ इन स्वभावदोषों का बढा हुआ बोेझ अगले जन्म में ढोना पडता है ।

२. बौद्धिक स्तर पर

अ. स्वभावदोषों के कारण मन पर विवेकबुद्धि का प्रभाव निर्माण न होना : जीवन में किसी भी कृति को उचित प्रकार से कैसे करें, यह बुद्धिद्वारा समझते हैं । किसी प्रसंग में कोई कृति होने से पूर्व निम्न प्रक्रिया होती है ।

  • पंचज्ञानेंद्रियोंद्वारा मस्तिष्क में आनेवाली संवेदना, पंचसूक्ष्म-ज्ञानेंद्रियोंद्वारा बाह्यमनतक पहुंचती व बाह्यमन को प्रतीत होती है ।
  • बाह्यमनसे अंतर्मन में जानेपर वह वासना, रुचि-अरुचि, स्वभाव इत्यादि केंद्रोंतक पहुंचती है ।
  • उस विशिष्ट केंद्रके संस्कारानुसार उस संवेदना में परिवर्तन होता है ।
  • स्वभाव केंद्रसे वह संवेदना बुद्धि केंद्र में पहुंचनेपर उस संवेदनाके संदर्भ में कौनसी कृति करनी है, यह अंत में बुद्धिकेंद्र निश्चित करता है ।
  • बुद्धिकेंद्रद्वारा लिया गया निर्णय पंचसूक्ष्म-कर्मेंद्रियोंद्वारा मस्तिष्कतक पहुंचता है ।
  • मस्तिष्कको प्राप्त संवेदनाके अनुसार व्यक्तिसे पंचकर्मेंद्रियोंद्वारा कृति होती है ।

अंतर्मन में वासना, रुचि-अरुचि, स्वभाव, विशेषता व लेन-देन संस्कार केंद्रों से आनेवाली संवेदनाओं की तीव्रता पर बुद्धिद्वारा लिया गया निर्णय निर्भर करता है । उससे स्वभाव अंतर्गत दोष व गुण का मन के अनुसार बुद्धि पर भी प्रभाव पडता है । यदि स्वभावदोष अधिक हों, तो बुद्धि द्वारा कितना भी स्पष्ट हो जाए कि, अमुक कृति या प्रतिक्रिया अयोग्य है, तब भी वह अयोग्य कृति या प्रतिक्रिया बार-बार होती रहती है । इसलिए मन पर स्वभावदोषों का नहीं, अपितु विवेकबुद्धि का प्रभाव बढाने के लिए स्वभावदोष-निर्मूलन अनिवार्य है ।

आ. स्वभावदोष-निर्मूलन से विवेकबुद्धि जागृत होकर चित्त शुद्ध होने की प्रक्रिया : साधना में चित्तशुद्धि को महत्त्व है । ‘मन संकल्प व विकल्प करता है व बुद्धि के पास निर्णय के लिए भेजता है । बुद्धि के पास विवेक न हो, तो वे (विकल्प) उसी प्रकार पुनः चित्त में प्रवेश करते हैं । पहले जैसे चित्त अशुद्ध होता है, वह वैसे ही रहता है । बुद्धि में विवेक जागृत हो जाए, तो विवेक के आधार से चित्त बुरे विचारों को प्रवेश नहीं करने देता व दैवी विचारों को प्राथमिकता देता है । इस प्रकार दैवी विचार बढकर धीरे-धीरे चित्त शुद्ध होता है ।’ – प.पू. परशराम माधव पांडे, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

इ. स्वभावदोष अधिक होने से आकलनशक्ति व विचारप्रक्रिया पर प्रतिकूल परिणाम होना : स्वभावदोष अधिक हों, तो उनका प्रभाव व्यक्ति की आकलनशक्ति पर पडता है । मन की विचारप्रक्रिया पर स्वभावदोषों का प्रतिकूल परिणाम होता है । जीवन की घटनाओं के संबंध में विचारधारा जितनी स्वभावदोषों के अधीन होती है, उतना ही व्यक्ति अनुचित निष्कर्ष की ओर बढता है । इससे स्पष्ट होता है कि स्वभावदोष-निर्मूलन केवल अनुचित आचरण पर अंकुश लगाने के लिए नहीं है, वरन् आकलन व उचित विचारधारा के लिए भी महत्त्वपूर्ण है ।

३. पारिवारिक स्तरपर

परिवार के सदस्यों के स्वभावदोषों के कारण उनके साथ सुसंवाद करने में बाधा आती है । परिवार का कोई व्यक्ति गुस्सैल हो, तो उस एक व्यक्ति के कारण घर का वातावरण तनावग्रस्त बनता है व पारिवारिक स्वास्थ्य बिगडता है ।

४. सामाजिक स्तरपर

व्यक्ति के स्वभावदोषों के कारण उसके संपर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को कष्ट होता है । इस प्रकार उस व्यक्ति का स्वभावदोष समाज का स्वास्थ्य बिगाड देता है ।

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