दूसरों के गुण कैसे सीखें ?

ईश्‍वर की अनुभूति आने से हमें जो आनंद मिलता है, उसे हम अपने कुछ दोषों के कारण अधिक समय तक टिका कर नहीं रख पाते । हमेशा आनंद में रहने के लिए आवश्यक है कि हम अपने दोषों पर जल्दी से जल्दी मात करें । तो आज हम जानकर लेंगे कि यदि हम अपने आसपास के लोगों में गुण देखना और उनके गुणों से सीखकर स्वयं में परिवर्तन करने का प्रयास करते हैं, तो हम अपने दोष कम कर सकते हैं ।

इसी संदर्भ में हम एक कहानी सुनते हैं –

एक व्यक्ति अपनी गलतियों और कम गुणी होने से बहुत परेशान रहा करता था । एक दिन वह किसी साधु से मिलने पंहुचा । उसने साधु से कहा, ‘‘मैं संभवत: बहुत ही पापी इंसान हूं । इसीसे मैं हमेशा परेशान रहता हूं, मुझसे हमेशा गलतियां होती रहती हैं । कृपया मुझे सही मार्ग पर चलने का रास्ता बतलाएं जिससे सब सही होने लगे ।’’

साधु महाराज बोले, ‘‘इसके लिए सबसे पहले तुम अपने से भी पापी मनुष्य अथवा तुच्छ वस्तु जो किसी काम न आनेवाली हो, उसे मेरे पास लेकर आओ ।’’ उस व्यक्ति ने साधु की बात सुनकर, अपने से भी पापी और तुच्छ मनुष्य, प्राणि अथवा वस्तु को खोजना आरंभ कर दिया ।

सबसे पहले उस व्यक्ति को एक कुत्ता मिला । उसने कुत्ते को साथ लेकर जाना चाहा । परंतु उसमें वफादारी का गुण था । यह ध्यान में आते ही वह आगे बढ गया । फिर उसे जंगल में कांटेदार झाडियां मिलीं । कांटेदार झाडियां हाथों में चुभ जाती हैं, परंतु वही कांटेदार झाडियां खेत में बाड लगाने और फसलों की पशुओं से रक्षा करने के काम आती हैं । यह सोचकर वह फिर आगे बढ गया ।

इसप्रकार रास्ते में मिली हर वस्तु में उसे कुछ न कुछ अच्छाई नजर आ ही गई । वह लौटकर साधु के पास गया और बोला, ‘‘मुझे अपने से तुच्छ और बेकार कोई भी व्यक्ति, प्राणि अथवा वस्तु नहीं मिली ।’’ तब साधु ने कहा, ‘‘हम सभी में कहीं न कहीं एक अच्छाई और कोई विशेष गुण छिपा होता है । दूसरों के गुणों से सीखनेवाले और अपनी गलतियों से सीखनेवाले को कभी भी किसी परेशानी का सामना नहीं करना पडता है ।’’

हमें दूसरों के दोष अधिक दिखाई देते हैं, परंतु अब इस कहानी से हमें ध्यान में आया है कि ईश्‍वर की बनाया हर व्यक्ति, प्राणि और निर्जीव वस्तु में कोई न कोई गुण अवश्य होता है । उसीप्रकार यदि हम भी अपने आसपास के लोगों में उनके गुणों का अभ्यास करेंगे तो हम अपने दोषों पर सहजता से मात कर पाएंगे । अब हम देखते हैं कि इन गुणों का अभ्यास कैसे करना है –

१. हमारे पडोस में एक दादाजी रहते हैं । वे सभी से अत्यंत प्रेम से बोलते हैं । मैं उनकी ओर देखूं अथवा नहीं, पर वे हमेशा मुझे बुलाकर प्रेम से मेरा हालचाल पूछते हैं । केवल मुझसे ही नहीं, अपितु वे प्रत्येक से प्रेमपूर्ण व्यवहार ही करते हैं । इसकारण आसपास के लोगों को उनका आधार लगता है ।

२. हमारे पडोस में एक भाभी रहती हैं । वे जब भी बाजार जाती हैं तो मुझसे अवश्य पूछती हैं, ‘‘आपको बाजार से कुछ चाहिए ?’’ यदि और भी कोई पडोस मेंं दिखाई देता है तो उनसे भी पूछती हैं कि आपके लिए कुछ लाना है क्या ? परंतु मैं बाजार जाती हूं, तो कभी किसी से नहीं पूछती, केवल अपना ही लेकर आ जाती हूं । उन भाभी में दूसरों की सहायता करने का गुण बहुत है । उन्हें सदैव यह विचार रहता है कि कैसे दूसरों की मदद कर सकती हूं ।

३. हमारे पडोस में ही एक बुआ रहती हैं, वह कोई भी नई चीज बनाती हैं तो अपने पडोसियो में अवश्य बांटती हैं । कोई भी त्योहार होता है, तो सबके घर जाकर मिलती हैं । आस-पडोस में सबसे मिल-जुल कर रहती हैं । उनमें इस प्रेमभाव के कारण आसपास के लोग उनसे अपने मन की बात खुलकर करते हैं ।

४. हमारे परिवार में एक बुआ हैं । वे पूरे परिवार को हमेशा एक रखने के लिए बहुत प्रयास करती हैं । कोई प्रसंग हो जाए, तो दूसरों को समझकर लेने का उनका प्रयास रहता है । घर में सबको साथ लेकर चलना, किसी की निंदा न करना, कुटुंब में कोई निराश है तो उसे कैसे उस स्थिति से बाहर लेकर आना, इसके लिए वे प्रयत्नशील रहती हैं । सभी को समझकर लेना और एक-साथ उन्हें लेकर चलना, यह गुण ध्यान में आता है । जबकि मुझे यदि कोई प्रसंग घटित हो, तो सामनेवाले की चूक अधिक लगती है । उस समय सामनेवाले के दोष अधिक दिखाई देते हैं ।

५. पडोस में एक अध्यापक रहते हैं, जो हर समय दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं । हमारी गली में किसी को भी कोई सहायता चाहिए हो, तो वह पहले उन अध्यापक के ही पास जाते हैं । इसलिए कि वे अपने पास आनेवाले व्यक्ति की हर प्रकार से सहायता करने का प्रयत्न करते हैं । दिन हो अथवा रात, वे दूसरों की सहायता के लिए कभी मना नहीं करते ।

६. हमारे सोसाइटी के प्रेजिडेंट हैं । वह सोसाइटी की प्रत्येक सुविधा का पूरा ध्यान रखते हैं । वे अपने घर का काम छोडकर, पहले सोसाइटी की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं । वे अपने दायित्व को पूरी लगन से निभाते हैं ।

७. घर में पिताजी का प्रत्येक बात में बचत करने का गुण बहुत अच्छा है । घर में कहीं पर अनावश्यक बत्ती जलती देखकर, वे तुरंत बंद कर बिजली की बचत करते हैं । वे पानी को भी बहुत संभालकर उपयोग करते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए बताते हैं । वह अपने पास भी आवश्यकता से अधिक कुछ नहीं रखते । उनके कपडे भी उतने ही रहते हैं, जितने आवश्यक हैं ।

८. हमारे कार्यलय में एक सहयोगी हैं, जो समय के बहुत पाबंद हैं । वह कभी कार्यालय देर से नहीं आते और न ही अपना कोई कार्य लंबित रखते हैं । सभी कार्य समय से पूरे करने का उनका प्रयास रहता है और अपने इन गुणों के कारण वह तनाव में बहुत कम दिखाई देते हैं ।

अत: हम अपने ही आसपास के इन उदाहरणों से बोध लेंगे कि भगवान के अनंत गुणों में किसी एक गुण का थोडा-सा अंश भी हममें है, तो बडे प्रमाण में ईश्‍वरीय शक्ति कार्यरत रहती है । जब हम अपने आसपास के लोगों में गुण देखने लगते हैं तो हमें भी आनंद मिलता है ।

इसलिए यदि हम अपने आसपास सभी में गुण देखने की वृत्ति बढा लें, तो हमें ध्यान में आएगा कि भगवान में अनंत गुण हैं और उन्होंने अपने सभी गुण हमारे आसपास की ही सृष्टि में बिखेर दिए हैं । यदि हम सभी में उनके गुणों को देखना और उनके गुणों को आत्मसात करने की प्रक्रिया सीख लेंगे, तो हम सभी में ईश्‍वर के दर्शन कर पाएंगे, क्योंकि सभी के गुणों के रूप में ही तो ईश्‍वर चराचर में व्याप्त है ।

दोषों का दूर करने का सबसे प्रभावी तरीका है कि हम अपने ही आसपास के लोगों के गुणों से सीखकर, अपने में भी उन गुणों का विकास करें । इससे हमारे अंदर भी ईश्‍वर का चैतन्य, ईश्‍वर की शक्ति बढने लगेगी और उस शक्ति के सामने कोई भी नकारात्मक शक्ति अथवा कोई भी दोष नहीं टिक सकता । इससे हमारे अंदर की सकारात्मकता बढने लगती है । सकारात्मकता के कारण हमारी सात्त्विकता बढती है । जिससे हम ईश्‍वर का चैतन्य अधिक ग्रहण कर पाते हैं । ईश्‍वर के प्रति हमारा भाव बढने लगता है और हम अपने साथ-साथ दूसरों का भी आनंद दे पाते हैं ।

हमें अपने समाज और परिवार के प्रति भाव निर्माण करने के लिए उनके अंदर कौन से गुण हैं, उन्हीं गुणों की ओर हमें देखना है । हमें यदि उनके दोष दिखने लगे, तो तुरंत ईश्‍वर के श्रीचरणों में शरण जाकर प्रार्थना करेंगे – ‘हे भगवान मुझे दोषों को नहीं देखना है, केवल गुण देखना है । आप ही मुझे परिवार के सदस्यों में, मेरे पडोसियों में और मेरे सहयोगियों में गुण देखने के लिए सहायता कीजिए । इतने वर्षों से उनमें केवल दोष देखने से मेरे चित्त पर वही संस्कार दृढ हो गया है । मुझे अपने चित्त के अयोग्य संस्कार मिटाने हैं । ईश्‍वर के चरणों से मुझे एकरूप होना है । इस ध्येय का निरंतर एहसास रखकर इस ‘दूसरों के दोष देखना’ इस दोष पर मात करना ही है । ईश्‍वर की शरण जाकर उनकी सहायता लेकर, उनके चैतन्य से प्रयत्न करेंगे । हम और क्या प्रयास कर सकते हैं ? हमसे भी कुछ गलतियां होती हैं । हम इसका भी अभ्यास कर सकते हैं । मेरे अन्य लोगों के साथ कौन-से दोष प्रकट हो जाते हैं । जागृत हो जाते हैं । इसका अभ्यास कर सकते हैं ।

अपने आसपास के लोगों के गुणों का अभ्यास करके उनकी एक सूची बनाएंगे । उनसे (माध्यम से ) हम क्या सीख सकते हैं, उसकी भी एक सूची बना सकते हैं । उनके इन गुणों से जो कुछ मुझे सीखने मिला है, उनके माध्यम से मुझे स्वयं में बदलाव करना है और उनका अमुक-अमुक गुण मुझे स्वयं में आत्मसात करना है । वे जैसे प्रयत्न करते हैं, वैसे ही मुझे भी प्रयत्न करना है । ‘मैं साधना करती हूं, मुझे साधना के बारे में सब पता है’, यह अहंभाव दूर करके मुझे उनके गुण देखने हैं और उनके गुण देखते समय ऐसा भाव रखेंगे कि भगवान ही मेरी सहायता कर रहे हैं ।

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