अक्षय्य तृतीयाके दिनका महत्त्व

चैत्र के उपरांत आता है वैशाख । वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं । इसे उत्तर भारत में ‘आखा तीज’ भी कहा जाता है । इसे व्रत के साथ त्यौहार के रूप में भी मनाया जाता है । अनेक कारणों से अक्षय तृतीया का महत्त्व है । इनमें से कुछ कारण हम समझते हैं ।

१. अक्षय फल प्रदान करनेवाला दिन

पुराणकालीन ‘मदनरत्न’ नामक संस्कृत ग्रंथ में बताए अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्त्व बताया है । वे कहते हैं, ..

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं ।

तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया ॥

उद्दिश्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः ।

तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ॥ – मदनरत्न

अर्थात, इस तिथि को दिए हुए दान तथा किए गए हवन का क्षय नहीं होता । इसलिए मुनियों ने इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा है । देवों तथा पितरों के लिए इस तिथि पर जो कर्म किया जाता है, वह अक्षय; अर्थात अविनाशी होता है ।’

 

२. सत्ययुग की समाप्ति और त्रेतायुग का प्रारंभ दिन

हिन्दू धर्म में संधिकाल का महत्त्व बताया गया है, कि संधिकाल में की गई साधना का फल अनेक गुणा मिलता है । प्रत्येक दिन के प्रातःकाल, संध्याकाल तथा पूर्णिमा एवं अमावास्या तिथि के, सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण और कुंभ इत्यादि संधिकाल में साधना करने का महत्त्व बताया गया है । उसी प्रकार हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार एक युग का अंत एवं दूसरे युग का प्रारंभ दिन संधिकाल हुआ इस कारण वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।

अक्षय तृतीया के दिन सत्ययुग समाप्त होकर त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ, ऐसा माना जाता है । इस कारण भी यह संधिकाल ही हुआ । संधिकाल अर्थात मुहूर्त कुछ ही क्षणों का होता है; परंतु अक्षय तृतीया के दिन उसका परिणाम २४ घंटे तक रहता है । इसलिए यह पूरा दिन ही अच्छे कार्यों के लिए शुभ माना जाता है ।

यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ का दिन भी है ।

सत्ययुग की अपेक्षा त्रेतायुग में, त्रेतायुग की अपेक्षा द्वापरयुग और द्वापरयुग की अपेक्षा कलियुग में समय के साथ सात्त्विकता अल्प होती जाती है, अर्थात रज-तम का प्रभाव बढता है । मनुष्य की साधना करने की क्षमता क्षीण होती है एवं उनसे धर्म का पालन नहीं हो पाता । इससे धर्म का आधार दुर्बल होता है । ऐसी स्थिति में धर्मसंस्थापना हेतु ईश्‍वर अवतार लेते हैं एवं मनुष्य को आचरण में लाने योग्य साधनामार्ग प्रस्थापित करते हैं । इससे सात्त्विकता बढती है एवं दूसरे युग का अच्छा काल (सत्ययुग का) आरंभ होता है । इस स्थित्यंतर के काल को शून्यकाल कहते हैं ।

 

३. अवतारों के प्रकटीकरण का दिन

अक्षय तृतीया के दिन ही हयग्रीव अवतार, परशुराम अवतार एवं नरनारायण अवतार का प्रकटीकरण हुआ है ।

 

४. साढेतीन मुहूर्तों में से एक

अक्षय तृतीया की तिथि को साढेतीन मूहूर्तों में से एक मुहूर्त माना जाता है । साढेतीन मुहूर्त इस प्रकार हैं, – चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थांत नववर्षारंभ दिन, विजयादशमी एवं अक्षय तृतीया, इस प्रकार तीन मुहूर्त और बलिप्रतिपदा आधा मुहूर्त माना जाता है ।

इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ एवं मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषण की खरीदारी अथवा घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीदारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं । नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना अथवा उद्घाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है । इस दिन गंगा स्नान तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।

 

५. पृथ्वी की सात्त्विकता बढना

अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्मा एवं श्रीविष्णु इन दो देवताओं का सम्मिलित तत्त्व पृथ्वी पर आता है । इससे पृथ्वी की सात्त्विकता १० प्रतिशत बढ जाती है ।

 

६. अक्षय तृतीया जैन बंधुओं की दृष्टि से भी महान धार्मिक पर्व है

इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की तपस्या पूर्ण करने के पश्‍चात इक्षु (गन्ने) रस से पारायण किया था । श्री आदिनाथ ने लगभग ४०० दिवस की तपस्या के पश्‍चात पारायण किया था । यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी, अत: जैन धर्म में इसे ‘वर्षीतप’ से संबोधित किया जाता है । आज भी जैन बंधु वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं । यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरंभ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है । तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चतुर्दशी को उपवास करना आवश्यक होता है । इस प्रकार का वर्षीतप लगभग १३ मास और दस दिन का हो जाता है । उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’

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