गुरुकृपायोगानुसार साधना के प्रकार

जीवनमें आनेवाले दुःखोंका धैर्यपूर्वक सामना करनेकी शक्ति एवं सर्वोच्च स्तरका निरंतर बना रहनेवाला आनंद केवल साधनासे ही प्राप्त होता है । साधना अर्थात् ईश्वरप्राप्ति हेतु किए जानेवाले प्रयास । ‘साधनानाम् अनेकता’ अर्थात् साधना अनेक प्रकारकी होती है । निश्चितरूपसे कौनसी साधना करनी चाहिए, इस संदर्भमें अनेक लोगोंके मनमें भ्रम उत्पन्न होता है । उसपर भी प्रत्येक पंथ एवं संप्रदाय कहता है कि, हमारी ही साधना सर्वश्रेष्ठ है । इससे उनका भ्रम और भी बढ जाता है । ऐसी स्थितिमें निश्चितरूपसे साधना कौनसे मार्गसे करनी चाहिए ?

कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्गसे साधना करनेपर भी बिना गुरुकृपाके व्यक्तिको ईश्वरप्राप्ति होना असंभव है । इसीलिए कहा जाता है, ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’, अर्थात् ‘शिष्यका परममंगल अर्थात् मोक्षप्राप्ति, उसे केवल गुरुकृपासे ही हो सकती है ।’ गुरुकृपाके माध्यमसे ईश्वरप्राप्तिकी दिशामें मार्गक्रमण होनेको ही ‘गुरुकृपायोग’ कहते हैं । ‘गुरुकृपायोग’की विशेषता यह है कि, यह सभी साधनामार्गों को समाहित करनेवाला ईश्वरप्राप्तिका सरल मार्ग है ।

यह स्वाभाविक धारणा है कि, गुरुकृपा होनेके लिए गुरुप्राप्ति होना आवश्यक है; परंतु यहां ध्यान देने योग्य महत्त्वपूर्ण भाग यह है कि, गुरुकृपाके बिना गुरुप्राप्ति नहीं होती । गुरुकृपा तथा गुरुप्राप्ति हेतु की जानेवाली साधना ही ‘गुरुकृपायोगानुसार साधना’ है ।

इस लेख में गुरुकृपायोगानुसार साधना की व्यष्टि साधना और समष्टि साधना के विषय में जान लेंगे । गुरुकृपायोगानुसार साधना के दो प्रकार हैं – व्यष्टि एवं समष्टि साधना । व्यष्टि साधना अर्थात् व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति हेतु किए जानेवाले प्रयत्न । समष्टि साधना अर्थात् समाज की आध्यात्मिक  उन्नति हेतु किए जानेवाले प्रयत्न । कालकी महिमाके अनुसार कलियुगमें समष्टि साधनाका महत्त्व ७० प्रतिशत है, जबकि व्यष्टि (व्यक्तिगत) साधनाका महत्त्व केवल ३० प्रतिशत है । ये दोनों साधना परस्पर-पूरक हैं । व्यष्टि साधना करवालोंको शीघ्र आध्यात्मिक उन्नतिके लिए समष्टि साधना करना आवश्यक होता है । साथ ही व्यष्टि साधनाके बलपर समष्टि साधना होती है, अतः समष्टि साधना करनेवालोंके लिए व्यष्टि साधना करना आवश्यक होता है ।

१. व्यष्टि साधना (व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति हेतु आवश्यक प्रयत्न)

व्यष्टि साधनाके आठ अंग

१. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना । ५. सत्संग
२. अहं-निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना । ६. सत्सेवा
३. नामजप ७. त्याग
४. भावजागृतिके लिए प्रयास करना ८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम)

व्यष्टि साधनाके (अष्टांग साधनाके) चरणोंका मानदण्ड साधककी गुणवत्ता पर निर्भर होना

अ १. मानदण्ड १ :

साधकमें अधिक स्वभावदोष और अहं होना : ऐसे साधकको अष्टांग साधनाके आगे दिए हुए चरणोंके अनुसार प्रयत्न करने चाहिए –

१. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना ।,

२. अहं-निर्मूलन हेतु प्रयत्न करना ।

३. नामजप,

४. भावजागृतिके लिए प्रयास करना,

५. सत्संग,

६. सत्सेवा,

७. सत्‌ हेतु त्याग एवं

८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम)

अ २. मानदण्ड २ :

साधकमें भक्तिभाव होना : जिस साधककी वृत्ति भक्तिप्रधान होती है, उस साधकको अष्टांग साधनाके आगे दिए हुए चरणोंके अनुसार प्रयत्न करने चाहिए –

१. नामजप,

२. अगले चरणका भक्तिभाव जागृत करनेके लिए किए जानेवाले प्रयत्न,

३. सत्संग,

४. सत्सेवा,

५. स्वभावदोष-निर्मूलन एवं गुण-संवर्धन हेतु प्रयत्न करना,

६. अहं-निर्मूलन,

७. सत् के लिए त्याग तथा

८. प्रीति (अन्योंके प्रति निरपेक्ष प्रेम) ।

अ. कुलाचार, त्यौहार-व्रत, विविध धार्मिक कृत्य इत्यादि का आचरण

प्रस्तुत सूत्रों का समावेश धर्मपालन में होता है । नित्यरूप से चले आ रहे कुलाचारों का पालन, कुलदेवता की पूजा-अर्चना, कुलदेवता का स्तोत्रपाठ एवं दर्शन हेतु अधिकाधिक बार जाना आदि कुलदेवता की उपासना करना । नमस्कार, आरती, जन्मदिन, उपनयन इत्यादि धार्मिक कृत्य करें । सवंत्सरारंभ, गणेश चतुर्थी, दशहरा इत्यादि त्यौहार, उत्सव और व्रत शास्त्रानुसार मनाएं । इन धार्मिक कृत्यों से ईश्वर के प्रति भक्तिभाव निर्मित होने में सहायता होती है । ये धार्मिक कृत्य ईश्वरप्राप्ति करवानेवाले यशोमंदिर के सरल सोपान हैं । इन धार्मिक कृत्यों की उचित पद्धति एवं आधारभूत शास्त्र की जानकारी सनातन संस्था के सत्संगों में दी जाती है ।

आ. स्वभावदोष-निर्मूलन के लिए प्रयास करना

लगभग हम सभी में क्रोध, चिडचिडाहट, आलस्य, भूलना इत्यादि स्वभावदोष न्यूनाधिक मात्रा में होते हैं । स्वभावदोषों के कारण हमारी अपनी तथा दूसरों की साधना की किस प्रकार हानि होती है, यह समझने के लिए एक उदाहरण देखेंगे । मान लीजिए कोई व्यक्ति स्वभाव से बहुत क्रोधी है और छोटी-छोटी बातों पर भी दूसरों पर क्रोधित हो जाता है । इससे होता यह है कि, उसकी मनः स्थिति बिगड जाने के कारण सेवा में उसका मन एकाग्र नहीं हो पाता, उससे चूकें होती हैं तथा उसकी कार्यक्षमता न्यून हो जाती है । साथ ही, क्रोध के कारण साधना से प्राप्त होनेवाला समाधान नहीं टिक पाता । ऐसा व्यक्ति जब औरोेंं से क्रोध में बात करता है, तब उन्हें बुरा लगता है अथवा वे दुःखी होते हैं । परिणामस्वरूप अन्यों की मनःस्थिति भी बिगडती है । आगे चलकर ऐसे व्यक्ति से बात करने में अन्योंको तनाव प्रतीत होता है । अन्य साधक उससे सुसंवाद नहीं कर पाते । इसका प्रभाव समष्टि की कुल कार्यक्षमता पर पडता है ।

स्वभावदोषों के कारण एक और हानि होती है । स्वभावदोषों का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर, उसमें दीर्घकालतक वास करना सरल हो जाता है । इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही स्वभावदोष दूर करने हेतु प्रामाणिक प्रयत्न करने आवश्यक हैं । स्वभावदोष-निर्मूलन हेतु किए जानेवाले कुछ प्रयास यहां दिए हैं ।

१. दैनिक जीवनमें हमसे जो अनुचित कृत्य होते हैं अथवा मनमें जो अनुचित विचार आते हैं, उन्हें समय-समयपर सारणीमें लिखना, स्वयंमें विद्यमान स्वभावदोष ढूंढकर उन्हें दूर करनेके लिए स्वयं ही अपने मनको स्वयंसूचना देना, इससे स्वभावदोष-निर्मूलन होनेमें सहायता होती है ।
२. स्वभावदोष दूर करनेके लिए हम अपने सहकारी साधक, परिजन, मित्रमंडली इत्यादिकी सहायता ले सकते हैं । हम उनसे हमारे स्वभावदोष बतानेके लिए एवं स्वभावदोष उभरनेपर हमें सचेत करनेके लिए निवेदन कर सकते हैं ।
३. सप्ताहमें एक अथवा दो दिन, हम सब साधक मिलकर सामूहिक चर्चा कर सकते हैं । ऐसी चर्चासे लाभ यह है कि हमें स्वभावदोष-निर्मूलनके लिए अन्य साधकोंद्वारा किए गए प्रयत्नोंकी जानकारी प्राप्त होती है ।

यद्यपि साधना में हम चरण-दर-चरण प्रगति कर रहे हों; फिर भी स्वभावदोष पूर्णतः दूर होनेतक, उनके निर्मूलन के लिए निरंतर प्रयास करते ही रहने पडते हैं ।

इ. अहं-निर्मूलन हेतु कैसे प्रयत्न करें ?

१. ईश्‍वरसे प्रार्थना करें ।

हे गुरुदेव / भगवान, मेरे अहंमें किस कारण वृद्धि होती है इसका आप मुझे भान कराएं ।
हे गुरुदेव / भगवान, मुझे ऐसे व्यक्तियोंके संपर्कमें लाना तथा मेरे जीवनमें ऐसे प्रसंग लाना जिससे मेरा अहं अल्प होनेमें सहायता होगी ।

२. परमार्थके समान ही व्यवहारकी भी प्रत्येक घटना ईश्‍वरके कारण ही हो रही है, ऐसा भाव रखें । यथा मैंने शिक्षा ग्रहण की इसकी अपेक्षा ईश्‍वरने मुझे सिखाया, मैंने विवाह किया इसकी अपेक्षा ईश्‍वरने मेरा विवाह करवाया, ऐसा भाव रखें ।

३. सेवा अथवा कोई भी कृत्य करते समय ऐसा भाव रखें कि मैं सेवक हूं

४. शारीरिक सेवा, जैसे बर्तन मांजना, स्वच्छता करना आदि करनेसे अहं शीघ्रतासे घटता है ।

५. छोटी-छोटी बातोंमें भी अन्योंका विचार करें । यथा भोजनके लिए बैठते समय केवल अपने लिए पानी लेनेकी अपेक्षा अन्योंके लिए भी पानी लें ।

ई. नामजप

पूजा, आरती, भजन, पोथीपाठ इत्यादि उपासना के प्रकार के कारण देवता की कृपा होकर देवता के तत्त्व का लाभ होता है; परंतु इस उपासना की अपनी सीमा होती है, इसलिए हमें लाभ सीमित ही होता है । देवता के तत्त्व का लाभ निरंतर प्राप्त करने हेतु देवता की उपासना भी निरंतर करनी चाहिए । देवता की उपासना निरंतर करते रहने की एक ही उपासनापद्धति है – नामजप । नामजप अर्थात्् ईश्वर के नाम का निरंतर स्मरण करना । कलियुग के लिए नामजप ही सरल एवं सर्वोत्तम उपासना है । नामजप गुरुकृपायोगानुसार साधना की नींव है ।

गुरुप्राप्ति होने पर एवं गुरु से ‘गुरुमंत्र’ प्राप्त हुआ हो, तो वही जपें अन्यथा ईश्वर के अनेक नामोंमें से कुलदेवता के नाम का जप करें ।

उ. सत्संग

सत्संग अर्थात सत् का संग, सात्विक वातावरण । सत्संग साधकों का अथवा संतों का होता है ।

महत्त्व : एक बार वसिष्ठ एवं विश्वामित्र ऋषि में विवाद हुआ कि, सत्संग श्रेष्ठ है अथवा तपस्या ? वसिष्ठ ऋषिने कहा, ‘‘सत्संग’’; किंतु विश्वामित्र ऋषि बोले, ‘‘तपश्चर्या’’। इस विवाद के निष्कर्षतक पहुंचने के लिए वे देवताओं के पास गए । देवताओंने कहा, ‘‘केवल शेषनाग तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकेंगे ।’’ तब वे दोनों शेषनाग के पास गए । उनके प्रश्न करने पर शेषनागने कहा, ‘‘तुम मेरे सिर से पृथ्वी के भारको थोडा हलका करो । फिर मैं सोचकर उत्तर दूंगा ।’’ इस पर विश्वामित्रने संकल्प किया, ‘मैं अपनी एक सहस्र वर्ष की तपश्चर्या का फल अर्पण करता हूं । शेषनाग के सिर से पृथ्वी थोडा ऊपर उठ जाए ।’; परंतु पृथ्वी टस से मस नहीं हुई । तत्पश्चात् वसिष्ठ ऋषिने संकल्प किया, ‘मैं अर्ध घटिका के (बारह मिनटोंके) सत्संग का फल अर्पित करता हूं । पृथ्वी अपना भार हलका कर दे ।’ पृथ्वी तुरंत ऊपर उठ गई ।

लाभ : सत्संग में आनेवाले सर्व साधकों की कुल सात्विकता अधिक होने के कारण वहां आनेवाले प्रत्येकको ही उसका लाभ होता है, अर्थात प्रत्येक में विद्यमान रज-तम भाव शनैः-शनैः न्यून होने लगता है । नामजप से मिलनेवाला आनंद सत्संग में जाने पर नामजप किए बिना ही अपनेआप मिलने लगता है, ऐसी अनभूति ५० प्रतिशत स्तर पर होती है ।

ऊ. सत्सेवा

मंदिरों की स्वच्छता करना, संतसेवा आदि सत्सेवा हैं । सत्सेवा के संदर्भ में निम्नांकित सूत्र ध्यान में रखें । सेवा सत् की होनी चाहिए । जबतक साधक की आध्यात्मिक उन्नति ६० प्रतिशत स्तरतक नहीं हो जाती, तबतक वह मन से सेवा नहीं कर सकता और उसकी सेवा केवल बुद्धि द्वारा ही होती है । यदि कोई साधक दूसरों के मन की संतुष्टिको प्रधानता देता है, तो धीरे-धीरे उसकी अपनी आवश्यकताएं न्यून हो जाती हैं और वह निवृत्तिपरायण हो जाता है । मिथ्या विश्वको ही सत्य मानकर असत् की सेवा, उदाहरण के रूप में रोगियों की सेवा की जाती है । असत् की सेवा से लेन-देन भी उत्पन्न होता है । साथ ही उसमें ऐसा अहं भी रहता है कि ‘मैं सेवा करता हूं’; इसलिए साधना की दृष्टि से ऐसी सेवा का विशेष उपयोग नहीं होता । इसके विपरीत सत्सेवा के कारण अहं-निर्मूलन होने में सहायता होती है । अहं का विस्मरण होने हेतु गुरुसेवा की जाती है । सत्सेवा करते-करते साधक का स्तर ५५ प्रतिशत होने पर कोई उन्नत उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं ।

ए. सत् के लिए त्याग

आध्यात्मिक उन्नति के लिए तन, मन एवं धन, सभी का त्याग करना पडता है । भौतिक शास्त्र की दृष्टि से धन का त्याग करना सबसे सरल है, क्योंकि स्थूल रूप से हम अपना सारा धन तो दूसरोंको दे सकते हैं; परंतु अपना तन एवं मन नहीं दे सकते । तब भी धन के त्याग से पहले हम अपने तन एवं मन का त्याग अवश्य कर सकते हैं, अर्थात हम तन से शारीरिक सेवा एवं मन से नामजप कर सकते हैं । आगे साधक धन का भी थोडा-बहुत त्याग कर पाता है । सर्कस में ऊंचे झूले पर झूलती लडकी जब तक अपने हाथ की झूले की लकडीको नहीं छोडती, तब तक दूसरे ऊंचे झूले पर लकडी से उलटा लटका व्यक्ति उसे नहीं पकड सकता । उसी प्रकार सर्वस्व का त्याग किए बिना ईश्वर साधकको आधार नहीं देते ।

त्याग का अर्थ वस्तुओं का त्याग नहीं, अपितु ‘उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति से मुक्त होना’ त्याग है । शिष्य के पास जो कुछ भी है, गुरु उसका त्याग करने के लिए कहते हैं । अंत में जब आसक्ति छूट जाती है, तब गुरु शिष्यको भरपूर देते हैं । छत्रपति शिवाजी महाराज में आसक्ति नहीं थी; इसीलिए समर्थ रामदासस्वामीजीने शिवाजी महाराज द्वारा अर्पण किया हुआ राज्य उन्हें लौटा दिया ।

दान (अर्पण) सदैव संतोंको अथवा सत्कार्य हेतु ही क्यों दें ?

दान सदैव ‘पात्रे दानम्’, अर्थात ‘सत्पात्रे दानम् (उचित व्यक्तिको दान)’ देना चाहिए । इस संसार में संतों से अधिक सुपात्र कोई नहीं है, इसलिए जो कुछ दान देना हो, उन्हींको अर्पण करें । यह उपासनाकांड के नामधारक के लिए ही संभव है । कर्ममार्ग का (उपासनाकांड की तुलना में कनिष्ठ स्तरका) अनुसरण करनेवाले भिखारियोंको अन्न एवं पाठशाला-अस्पतालोंको भावनावश दान देते हैं, जिससे केवल पुण्य प्राप्त होता है । मुमुक्षुको (मोक्ष की अभिलाषा रखनेवालेको) पाप-पुण्य दोनों की इच्छा नहीं रहती; क्योंकि पुण्य से स्वर्गप्राप्ति होती है, मोक्षप्राप्ति नहीं ।

खरे संत एवं गुरु निर्गुण ईश्वर के सगुण (देहधारी) रूप होते हैं । अतः संत अथवा गुरुको अर्पण करना ईश्वरको अर्पण करने के समान है । ईश्वर का ईश्वरको ही अर्पण करने से लेन-देन निर्मित नहीं होता, अपितु वह पूर्ण हो जाता है । संक्षेपमें, संतों को अर्पण करने से संचित घट जाता है, प्रारब्धभोग भोगने की क्षमता बढती है, लेन-देन निर्मित नहीं होता और न ही पुण्य-प्राप्ति होती है; इसलिए जो भी देना हो, केवल संतोंको अथवा सत्कार्य के लिए ही अर्पण करें ।

ऐ. भावजागृति के लिए प्रयास करना

प.पू. भक्तराज महाराजजीने कहा है, ‘नाथ, आपके प्रति जिसका जैसा भाव होता है, वैसे आप उसे अपने चरणों में स्थान देते हैं ।’ इससे ध्यान में आता है कि, साधक के लिए भाव का महत्त्व कितना अनन्य है । हमारे अंतःकरण में भगवान के विषय में लगाव उत्पन्न होनेको ‘भगवान के प्रति भाव’ कहते हैं । जितनी शीघ्रता से भाव निर्मित होकर वह हम में जितना अधिक जागृत रहेगा, उतनी शीघ्रता से हम ईश्वर के निकट जा पाएंगे । भाव बढाने के लिए मन एवं बुद्धि के स्तर पर निरंतर कृत्य करते रहनेसे, भाव निश्चित रूप से बढता है । भाव में वृद्धि करने के लिए कुछ सरल प्रयास आगे दिए हैं ।

अ. प्रार्थना : जब हम प्रकर्षता से देवता अथवा गुरु के प्रति अनन्यभाव से शरण जाकर इच्छित विषयकेलिए याचना करते हैं, तो हमारी प्रार्थना देवता तक पहुंचती है और देवता ‘तथास्तु’ कहते हैं ।

आ. आरती : इन घटकों पर भावजागृति निर्भर है – इस भाव से आरती गाना कि, देवता प्रत्यक्ष हमारे समक्ष हैं और हम संपूर्ण शरणागत होकर उन्हें आत्र्तता से पुकार रहे हैं, आरती के शब्दों का उच्चार अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित होना, आरती का तालबद्ध उच्चार करना, आरती के साथ धीमे से तालियां तथा झांझ इत्यादि वाद्य बजाना ।

इ. दैनिक जीवन में प्रत्येक कृत्य गुरुसेवा अथवा ईश्वरसेवा के रूप में करना : पूजा-अर्चना, आरती इत्यादि जैसी कृत्यों से हम भावजागृति कर सकते हैं; परंतु इन्हें हम निरंतर नहीं कर सकते । भाव निरंतर बनाए रखना हो, तो दैनिक जीवन का प्रत्येक कृत्य गुरुसेवा अथवा ईश्वरसेवा के रूप में करना आवश्यक है, उदा. घर में भोजन बनाना हो, तो ‘दाल एवं चावल लिए, कुकर चढाया और एक काम समाप्त’, ऐसा न कर इस भाव से भोजन बनाएं कि ‘आज हमारे यहां देवता आनेवाले हैं । हमें देवताको नैवेद्य दिखाना (भोग चढाना) है । उनके लिए हम भोजन बना रहे हैं’ ।

ई. साक्षिभाव : ८० प्रतिशत स्तर पर सर्वत्र एवं स्वयं की उन्नति की ओर भी सबकुछ गुरु की इच्छा से हो रहा है, इस भाव से देख पाते हैं ।

 

२. समष्टि साधना (संपूर्ण समाज की
आध्यात्मिक उन्नति हेतु करने योग्य प्रयत्न)

साधना की दृष्टि से आपातकाल अर्थात, साधना में बाधाओं से युक्त साधना के लिए प्रतिकूल काल । वर्तमान में बढ रहा रज-तम का प्रदूषण और धर्महानि, राष्ट्र का अराजकता की ओर मार्गक्रमण इत्यादि के कारण वर्तमान काल आपातकाल बन गया है । आपातकाल में केवल व्यष्टि साधना कर ईश्वर प्राप्ति कर लेना अत्यधिक कठिन होता है । अतः व्यष्टि साधना के साथ ही समष्टि साधना भी करना अत्यावश्यक है । समष्टि साधना के अंग आगे दिए अनुसार हैं ।

अ. अध्यात्मप्रसार : सर्वोत्तम सत्सेवा

१. महत्त्व

१. गुरुकार्य हेतु अपने सामर्थ्यानुसार जो भी संभव हो वह सर्व करना, यह सर्वाधिक सरल एवं महत्त्वपूर्ण मार्ग है । यह मुद्दा आगे दिए उदाहरण से स्पष्ट होगा : मान लीजिए एक कार्यक्रम की तैयारी हेतु कोई स्वच्छता के कार्य में लगा हुआ है, कोई भोजन बना रहा है, कोई बर्तन धो रहा है, तो कोई सजावट कर रहा है । हम स्वच्छता के कार्य में लगे हुए हैं । ऐसे में कोई व्यक्ति आकर भोजन बनानेवालों का हाथ बंटाने लगे, तो हमें उसके प्रति कोई लगाव नहीं होता; परंतु वह जब स्वच्छता के कार्य में हाथ बंटाता है, तो वह हमें अपना लगता है । यही गुरु के संदर्भ में होता है । गुरु और संतों का एकमेव कार्य है समाज में धर्म और साधना के प्रति रुचि निर्मित कर, सभीको साधना करने हेतु प्रवृत्त करना तथा अध्यात्मप्रसार करना । वही कार्य जब हम अपनी क्षमतानुसार करने लगेंगे, तो गुरुको लगेगा कि, ‘यह मेरा है’ । उन्हें ऐसा प्रतीत होना ही गुरुकृपा का आरंभ है ।

२. एक बार एक गुरुने अपने दो शिष्योंको थोडे गेहूं देकर कहा, ‘‘मेरे लौटने तक यह गेहूं संभालकर रखना ।’’ एक वर्ष पश्चात लौटने पर गुरुने पहले शिष्य के पास जाकर पूछा, ‘‘गेहूं भली-भांति रखा है न ?’’ उस पर शिष्यने ‘हां’ कहकर डिब्बे में रखा गेहूं लाकर दिखाया और बोला, ‘‘आपका दिया हुआ गेहूं वैसे ही रखा है ।’’ तत्पश्चात गुरु दूसरे शिष्य के पास गए एवं उससे गेहूं के विषय में पूछा । तब वह शिष्य गुरुको पास के खेत में ले गया । गुरुने देखा कि, सभी ओर गेहूंकी बालियों से लहलहाती हुई फसल है । यह दृश्य देखते ही गुरुको अत्यधिक प्रसन्नता हुई । उसी प्रकार गुरु द्वारा प्राप्त नाम और ज्ञानको हमें दूसरों में बांटकर बढाना चाहिए ।

३. तुलनात्मक महत्त्व : आगे दिए कोष्ठक में बताया है कि शिष्य के किस कृत्य से कितनी मात्रा में गुुरुकृपा हो सकती है । (टिप्पणी १ – प्रभावकारी प्रसार करनेवाले में शिष्य के सर्व गुण होने चाहिए । केवल राजनीतिक अथवा सामाजिक प्रचारक के समान काम करने से नहीं चलेगा । )

२. अध्यात्मप्रसार कैसे करें ?

संभव है कि कुछ लोगों के मन में ऐसा प्रश्न उठे कि, ‘जब मुझे ही धर्म एवं साधना के विषय में पूरी जानकारी नहीं है, तब मैं अध्यात्म का प्रसार कैसे कर पाऊंगा ?; परंतु यह धारणा अनुचित है । जब श्रीकृष्णने गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी उंगली पर उठाया, तब गोप-गोपियोंने अपनी लाठियां लगाकर पर्वतको ऊपर उठाने में अपनी-अपनी क्षमतानुसार सहायता की । गुरु अर्थात ईश्वर धर्मग्लानि दूर करेंगे ही, परंतु हमें भी अपना योगदान देना है । प्रसार हेतु जिसमें स्वयं अध्यात्म का अभ्यास कर दूसरोंको सिखाने की क्षमता है, वह वैसा करे और जो आर्थिक सहायता कर सकता है, वह वैसा करे । जिसके लिए दोनों संभव नहीं, वह प्रसार हेतु जानकारीपत्रक बांटना, पोस्टर और बैनर लगाना, व्यक्तिगत संपर्क कर अन्योंको जानकारी देना, सत्संग के स्थान की स्वच्छता करना, सत्संग हेतु दरी बिछाना, आसंदियां (कुर्सियां) लगाना, इस कार्य हेतु धन एकत्रित करना इत्यादि सेवा कर सकता है ।

आ. राष्ट्ररक्षण एवं धर्मजागृति

वर्तमान में आतंकवादी और नक्सलवादियोंने देश में अराजकता निर्मित की है । दरिद्रता, जातीयता, सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, आरक्षण जैसी अनेक समस्याओंने देशको सर्व ओर से घेर रखा है । कुल मिलाकर राष्ट्र की अवनति हो रही है । देश पर धर्मनिरपेक्ष राजनेता शासन कर रहे हैं एवं हिंदुओं में धर्मपालन का बडा अभाव दिखाई देता है । हिंदुद्वेषियों और धर्मद्रोहियों द्वारा हिंदु धर्म, देवता, संत, राष्ट्रपुरुष तथा धर्मग्रंथों का सार्वजनिक अनादर एवं धर्महानि हो रही है । हिंदुओं के धर्मांतरण की मात्रा में दिन प्रतिदन वृद्धि हो रही है । धर्म राष्ट्र का प्राण है । यदि धर्म नष्ट होगा, तो राष्ट्र और परिणामस्वरूप हम सब नष्ट हो जाएंगे । इसके लिए राष्ट्ररक्षण एवं धर्मजागृति के संदर्भ में समाजको जागृत करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है ।

इ. हिन्दू-संगठन

जब हिंदु धर्म का विरोध करने का समय आता है, तब सब धर्मद्रोही एकत्र होते हैं । इस तुलना में हिंदु धर्म के और राष्ट्र के नाम पर हिंदुओं के संगठित होने की मात्रा अत्यल्प है । यदि हिंदु संगठित हो जाते हैं, तो हिंदु धर्म तथा राष्ट्र का भी रक्षण होगा । इसलिए हिंदु-संगठन हेतु प्रयत्न करना भी समष्टि साधना का महत्त्वपूर्ण भाग बन गया है ।

ई. अन्यों के प्रति प्रीति

साधना करते-करते आध्यात्मिक स्तर ७० प्रतिशत तक पहुंचने पर दूसरों के प्रति प्रीति अनुभव होने लगती है ।

प्रीति अर्थात् निरपेक्ष प्रेम । व्यावहारिक प्रेम में अपेक्षा रहती है । साधना द्वारा सात्त्विकता बढने पर अपने आसपास की चराचर सृष्टिको संतुष्ट करने की वृत्ति निर्मित होती है । प्रत्येक वस्तु में परमेश्वर का रूप दिखाई देने लगता है । ‘वसुधैव कुटुंबकम् ।’, अर्थात विश्व एक प्रेममय परिवार का स्वरूप ले लेता है । इस प्रकार प्रेम में विशालता आ जाती है तथा दूसरों के प्रति प्रीति निर्मित होती है । यह शीघ्र साध्य करने हेतु आरंभ में प्रयत्नपूर्वक प्रेम करना पडता है । उसके लिए सत्संग में रहना महत्त्वपूर्ण है । सर्वप्रथम, सत्संग में आनेवालों के प्रति प्रीति निर्मित होती है । उसके पश्चात अन्य संप्रदायों के साधकों के प्रति, आगे साधना न करनेवालों के प्रति तथा अंत में समस्त प्राणीमात्र के प्रति प्रीति निर्मित होती है ।

उ. कालानुसार भगवान श्रीकृष्णजी का नामजप आवश्यक !

वर्तमान में श्रीकृष्ण का तत्त्व सबसे अधिक प्रमाण में कार्यरत है । इस हेतु समष्टि साधना को यदि २ वर्ष से अधिक हो चुके हैं, ऐसों को २ वर्ष तक प्रतिदिन ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’ यह नाम जप अवश्य करें ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘गुरुकृपायोगानुसार साधना’

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