क्या श्राद्ध कर्मकांड का आडंबर है ?

‘वर्तमान वैज्ञानिक युग की युवा पीढी के मन में ऐसी अनुचित धारणा उभरती है, ‘श्राद्ध’ अर्थात ‘अशास्त्रीय एवं अवास्तविक कर्मकांड का आडंबर’। धर्मशिक्षा का अभाव, अध्यात्म के विषय में अनास्था, पाश्‍चात्य संस्कृति का प्रभाव, धर्मद्रोही संगठनोंद्वारा हिंदू धर्म की प्रथा-परंपराओं पर सतत द्वेषपूर्ण प्रहार इत्यादि का यह परिणाम है । श्राद्ध के विषय में निम्नानुसार विचार भी समाज में दृष्टिगोचर होते हैं । पूजा-पाठ एवं श्राद्ध पक्ष पर विश्‍वास न करनेवाले अथवा समाजकार्य को ही सर्वश्रेष्ठ बतानेवाले कहते हैं, ‘पितरों के लिए श्राद्ध न कर, गरीबों को अन्नदान करेंगे अथवा किसी पाठशाला की सहायता करेंगे’ ! ऐसा अनेक लोग करते भी हैं ! ऐसा करना यह कहने समान है कि, ‘किसी रोगी पर शस्त्रक्रिया न करते हुए हम गरीबों को अन्नदान करेंगे अथवा पाठशालाओं की सहायता करेंगे।’

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भारतीय संस्कृति का कथन है कि, जिस प्रकार माता-पिता एवं निकटवर्तीय परिजनों की जीवितावस्था में हम उनकी सेवा धर्मपालन समझकर करते हैं, उसी प्रकार उनकी मृत्यु के पश्‍चात् भी उनके प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं । इन कर्तव्यों की पूर्ति एवं उनके द्वारा पितृऋण चुकाने का अवसर श्राद्धकर्म से मिलता है। बाल्यकाल में फूल समान हमें संभालनेवाले हमारे माता-पिता की मृत्युपरांत की यात्रा सुखमय और कष्टविरहित हो, उन्हें सद्गति मिले, इस हेतु श्राद्धविधि आवश्यक है । श्राद्ध न करने पर पितरों की अतृप्त इच्छाओं के कारण, ऐसे वासनायुक्त पितर अनिष्ट शक्तियों के पाश में फंसकर उनके दास बन जाते हैं । अनिष्ट शक्तियोंद्वारा पितरों का अनुचित लाभ उठाए जाने की एवं परिजनों को कष्ट दिए जाने की आशंका अधिक रहती है । श्राद्धविधि के कारण पितरों के कष्टोंसेमुक्त होकर हमारा जीवन भी सुसह्य एवं सुखमय बनता है और विशिष्ट फलप्राप्ति भी होती है ।

१. ‘श्राद्ध’ शब्द के संदर्भ में जानकारी

‘श्रद्धा’ शब्दसे ‘श्राद्ध’ शब्द की निर्मिति हुई है । इहलोक छोड गए हमारे पूर्वजोंने हमारे लिए जो कुछ किया, वह उन्हें लौटाना असंभव है । पूर्ण श्रद्धासे उनके लिए जो किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।

२. श्राद्ध का उद्देश्य

सर्व जीवों की लिंगदेह साधना नहीं करतीं । अतः श्राद्धादि विधि कर, उन्हें बाह्य ऊर्जा के बल पर आगे बढाना पडता है; इसलिए श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण होता है । श्राद्ध कर जीवों की लिंगदेहों के सर्व ओर के वासनात्मक कोषों के आवरण को न्यून (कम) कर, उनमें हलकापन निर्माण कर, मंंत्रशक्ति की ऊर्जा के बल पर उन्हें गति देना श्राद्ध का प्रमुख उद्देश्य है ।

अ. अपने कुल में जिन मृत व्यक्तियों को उनकी अतृप्त वासनाओं के कारण सद्गति प्राप्त न हुई हो अर्थात वे उच्च लोक में न जाकर निम्न लोक में अटकी हों, तो उनकी इच्छा-आकांक्षाओं को श्राद्धविधियोंद्वारा पूर्ण कर, उन्हें आगे की गति प्राप्त करवाना।

आ. कुछ पितरों को उनके कुकर्मों के कारण पितृलोक की प्राप्ति न होकर, भूतयोनि की प्राप्ति होती है । ऐसे पितरों को श्राद्धद्वारा उस योनिसे मुक्त करना ।

३. श्राद्ध का महत्त्व एवं आवश्यकता

१. धर्मशास्त्र में कहा गया है, ‘देव, ऋषि एवं समाज, इन तीन ऋणों के साथ, पितृऋण चुकाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । पितरों का आदर करना, उनके नाम से दानधर्म करना एवं उनके लिए संतोषजनक कृत्यों को करना, उनके वंशजों के कर्तव्य हैं । श्राद्ध, धर्मपालन का ही एक भाग है ।’

. श्राद्धादि कुलधर्म के पालन से ही वंशशुद्धि होना, अन्यथा वंश का विध्वंस अटल ! : ‘गर्भधारण के पश्‍चात् उस अर्भक का (शिशुका) जन्म सुखसे होना चाहिए । गर्भ में जीव का प्रवेश, उसका संवर्धन, गर्भवती माता की प्रसन्नता एवं सहज सुलभ प्रसूति, क्या केवल औषधि से होती है ? उसके लिए ईश्‍वरीय कृपा चाहिए; विश्‍व की निर्मिति करनेवाली शक्ति की कृपा चाहिए । पितर वंशरक्षक होते हैं; अतः शाश्‍वत कुलधर्म, श्राद्धादि धर्म का कडा पालन करना पडता है । कुलधर्म न किए जानेपर, मातृदोष एवं पितृदोष में वृद्धि होनेपर, उस परिवार का विध्वंस होता है । श्राद्धादि कुलधर्म के पालन से वंशशुद्धि निश्‍चित है । इसलिए शाश्‍वत कुलधर्म, श्राद्धादि धर्म का पालन करना चाहिए ।’

३. श्राद्ध के दिन किया जानेवाला पाठश्राद्ध के दिन किया जानेवाला पाठ :

श्राद्ध में ३ बातों का ध्यान रखना चाहिए, शुद्धता, अक्रोध एवं अत्वरा अर्थात शीघ्रता न करना । श्राद्ध के दिन भगवद्गीता का ७ वां अध्याय अथवा ज्ञानेश्‍वरी पढनी चाहिए । पूर्वजों को मुक्त करने में तीर्थ, दान, तप एवं यज्ञ भी असमर्थ हैं । केवल गीता का ७ वां अध्याय मनुष्य को जरा-मृत्यु से मुक्त करता है ।
श्राद्ध में आस्था से लाभ  मंत्र ही श्राद्धकर्म में अर्पित पदार्थों को वहां पहुंचाते हैं, जहां आवाहित जीव उपस्थित रहता है । श्राद्ध के मंत्र में पूर्वजों के नाम, गोत्र आदि का उल्लेख होने से वे समर्पित पदार्थ को उनतक पहुंचाते हैं, चाहे वे संसार में कहीं भी और किसी भी योनि में हों । श्राद्ध के अन्नादि पदार्थों से वे तृप्त होते हैं ।

४. जो अपने पूर्वजों और माता-पिता को तृप्त नहीं करते, उनके बच्चे भी उन्हें तृप्त नहीं करते :

परिवार में विकलांग अथवा माता-पिता को दुख पहुंचानेवाले बच्चों के जन्म का कारण भी पितरों की अतृप्ति है । जिन्होंने अपने पूर्वजों को तृप्त नहीं किया और उनकी पूजा नहीं की, अपने माता-पिता को तृप्त नहीं किया, उनके बच्चे भी उन्हें तृप्त नहीं करते ।  श्राद्ध का एक विशेष लाभ यह है कि मृत्यु के पश्‍चात भी जीव का अस्तित्व होता है, इसका बोध रहता है ।

५. पितृकार्य का विशेष महत्त्व

कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्‍चिन्न सीदति ।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ॥
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते ।
देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् ॥ – स्मृतिचन्द्रिका

अर्थ : श्राद्ध सदैव उचित समय पर करना चाहिए । ऐसा करने से वंश में कोई दुखी नहीं रहता । पूर्वजों के पूजन से मनुष्य को दीर्घायु, संतान, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, ऐश्‍वर्य, पशुधन, सुख एवं धन-धान्य की प्राप्ति होती है । देवताकार्य की तुलना में पितृकार्य का महत्त्व अधिक है । इसलिए, देवताआें की पूजा से पहले पूर्वजों की पूजा करनी चाहिए । पूर्वजों को प्रसन्न करना, अधिक कल्याणकारी होता है । इसलिए सभी अनुष्ठानों में पूर्वजों की पूजा की जाती है ।
– ज्योतिषी ब.वि. तथा चिंतामणि देशपांडे (गुरुजी) – (धनुर्धारी, सितंबर २०१०)

६. देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् ।
– तैत्तिरीयोपनिषद् १, अनुवाक ११, वाक्य २

अर्थ : देवता एवं पितरों के लिए कार्य करते समय प्रमाद (आलस्य) न करें ।

७. श्राद्ध न करनेवालों के लिए गीता का निम्नांकित श्लोक चिंतन-मनन करने योग्य है ।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, श्लोक ४२

अर्थ : पिंडश्राद्ध, तर्पणादि क्रिया न करनेवालों के पितर नरक में जाते हैं और हमारी प्रगति रुक जाती है ।

८. ‘सुमंतुऋषि कहते हैं, `श्राद्धात् परतरं नान्यत् श्रेयस्करमुदाहृतम् ।’ अर्थात श्राद्ध से अधिक कल्याणकारी दूसरा कर्म नहीं । इसीलिए, विवेकी मनुष्य को श्राद्ध के विषय में आलस्य नहीं करना चाहिए ।

९. ‘किसी मृत व्यक्ति की श्राद्ध की इच्छा पूरी न होने पर, उसे दु:ख होता है और वह पिशाच (एक प्रकार की अनिष्ट शक्ति) बनकर, अपने परिजनों पर क्रोध कर सकता है । कई बार मृत व्यक्ति सगे-संबंधियों में प्रवेश कर बोलता भी है । इसका एक उदाहरण आगे दे रहे हैं ।
एक बार एक व्यक्ति की देह में एक शक्ति प्रवेश कर गई । तब, वह व्यक्ति कूदने लगा । अहमदनगर के संत परम पूज्य क्षीरसागर महाराज ने उससे पूछा, ‘आप कौन हैं ?’ उसने उत्तर दिया, ‘मैं इस व्यक्ति का पिता हूं ।’ महाराज ने पूछा, ‘आप यहां क्यों आए हैं ?’ उसने कहा, ‘यह मुझे खाना नहीं खिलाता, मेरा श्राद्ध नहीं करता । मैं भूखा हूं ।’

१०. किसी व्यक्ति को लग सकता है कि ‘श्राद्ध करना व्यर्थ है; इसलिए मेरी मृत्यु के उपरांत मेरे लिए श्राद्ध न किया जाए ।’ परंतु, मृत्यु के उपरांत वह अनुभव करे कि श्राद्ध न होने से ‘मैं मृत्युलोक में भटक रहा हूं’, तो वह अपने मन की बात व्यक्त नहीं कर सकता । इच्छा पूरी न होने से वह दुःखी हो सकता है । अतः, प्रत्येक के लिए श्राद्ध करना उचित है ।

११. किसी व्यक्ति का श्राद्ध करने से उसके साथ हमारा लेन-देन पूरा होता है । उदाहरणार्थ, हमपर किसी का ऋण हो और उसे चुकाने से पहले ही उस व्यक्ति का देहांत हो जाए, तो ऋण चुकाने के लिए उसका श्राद्ध करें ।

१२. पहले की भांति आजकल किसी का श्राद्ध नहीं किया जाता तथा साधना न करने के कारण भी, अधिकतर लोगों के पूर्वजों के लिंगदेह अतृप्त रहते हैं; इसलिए वे अपने वंशजों को कष्ट देते हैं । हमें पितर कष्ट दे रहे हैं अथवा इसकी आशंका है, इस विषय में उन्नत संत ही बता सकते हैं । ऐसे संत न मिलें, तब मान सकते हैं कि आगे दिए हुए कष्ट पूर्वजों के कारण होते हैं – घर में निरंतर लडाई-झगडा होना, एक-दूसरे से अनबन, चाकरी (नौकरी) न मिलना, घर में पैसा न टिकना, परिवार के किसी को गंभीर रोग होना, सब ठीक रहने पर भी विवाह न होना, पति-पत्नी में अनबन, गर्भधारण न होना, गर्भपात होना, संतान मतिमंद अथवा विकलांग उत्पन्न होना एवं कुटुंब के किसी सदस्य को दुर्व्यसन लगना ।

श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं । साथ ही, मर्त्यलोक में भटकनेवाले पितरों को गति मिलती है और उनके कारण होनेवाले हमारे कष्टों का अंत होता है ।

१३. श्राद्ध करने से पितरों को गति मिलती है, इसलिए यह प्रतिवर्ष करना आवश्यक

व्यक्ति की मृत्युतिथि पर श्राद्ध करने पर, श्राद्ध-भोजन का सूक्ष्म अंश उसकी सूक्ष्म-देह के लिए वर्षभर चलता है । जबतक आशा-इच्छा रहती है, तब तक वह मृत व्यक्ति अपनी मृत्युतिथि पर अपने वंशजों से भोजन मिलने की आशा करता है । श्राद्ध करने से वह तृप्त (संतुष्ट) होता है तथा उसे आगे (उच्च लोकों में) जानेके लिए ऊर्जा भी मिलती है । पूर्वजों की एक भी वासना तीव्र रहने पर, श्राद्ध से मिली ऊर्जा उसे शांत करने में व्यय हो जाती है, जिससे उन्हें आगे जाने के लिए ऊर्जा नहीं मिलती । इसलिए, प्रतिवर्ष श्राद्ध करने पर, धीरे-धीरे उनकी वासना शांत होती है और आगे जाने के लिए ऊर्जा भी मिलती है । वैसे भी, शास्त्र के अनुसार इस विश्व में रहने तक, पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए प्रतिवर्ष श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।

१४. पितरों का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत है, यह ज्ञात होने पर भी उनके लिए श्राद्ध करना आवश्यक
अ. कलियुग के वायुमंडल में रज-तम की मात्रा अधिक रहती है । इसलिए, बहुत थोडे लोग ही साधना करते हैं । अधिकतर लोगों की इच्छाएं पूरी नहीं होतीं । ऐसे लोगों के पास मृत्यु के पश्चात इतनी ऊर्जा नहीं रहती कि वे मृत्युलोक पार कर सकें । इसलिए, वे मृत्युलोक में ही भटकते रहते हैं । ऐसे पूर्वजों को, श्राद्ध करने से गति नहीं मिलती, केवल उनकी वासना शांत होती है । तीर्थक्षेत्र में श्राद्ध करने से उन्हीं पितरों को आगे जाने के लिए ऊर्जा मिलती है, जिनका आगे जाने का समय आ चुका होता है । शेष पूर्वजों के लिए प्रतिवर्ष श्राद्ध करना आवश्यक है ।

आ. जिन पितरों का आध्यात्मिक स्तर ऊंचा है, उनके लिए श्राद्ध करना आवश्यक न होने पर भी इसलिए करना चाहिए कि दूसरे लोगों को श्राद्ध न करने का कारण न मिले और धर्मशास्त्र का सम्मान हो ।

इ. संतों को स्थूलरूप से देवपूजा करने की आवश्यकता नहीं होती; फिर भी कुछ संत समाज के सामने आदर्श रखने के लिए देवपूजा करते हैं ।
ऊपर बताई गई बातों को ध्यान में रखकर, सब लोग धर्मपालन हेतु श्राद्ध करें ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘श्राद्ध ’ भाग १ और २

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