गुरुपूर्णिमाके दिन गुरुतत्त्व १ सहस्त्र गुना कार्यरत रहता है

 

सारणी

१. गुरुपूर्णिमाके दिन गुरुतत्त्व १ सहस्त्र गुना कार्यरत होनेसे साधक एवं शिष्य अधिकाधिक लाभ ग्रहण कर पाते हैं ।

२. गुरुके प्रति त्यागका महत्त्व

३. गुरुपूर्णिमाका अधिकाधिक लाभ ग्रहण करनेके लिए आवश्यक प्रयास


 

१. गुरुपूर्णिमाके दिन गुरुतत्त्व १ सहस्त्र गुना कार्यरत होनेसे साधक एवं शिष्य अधिकाधिक लाभ ग्रहण कर पाते हैं ।

 

`एक वर्ष हमने सिंधुदुर्ग जनपद (महाराष्ट्र) के जामसंडे गांवमें गुरुपूर्णिमा महोत्सवका आयोजन किया था । उसके लिए कहीं भी सामाजिक सभागृह नहीं मिला । इसलिए हमने एक पाठशालाका सभागृह नियोजित किया । परंतु उस दिन छुट्टी न होनेके कारण पाठशालाका सभागृह हमें दोपहर ४.३० बजे मिला । गुरुपूर्णिमाका कार्यक्रम सायंकाल ७ से ९ बजेतक था । हमारे हाथमें केवल २.३० घंटे थे एवं हमें बैठक व्यवस्था, व्यासपीठकी सजावट, बैनर लगाना इत्यादि सर्व सेवाएं पूर्ण करनी थीं । हम सभी साधकोंने गुरुसे प्रार्थना कर सेवा आरंभ की । गुरुकी कृपासे केवल १.३० घंटेमें सभी सेवाएं पूर्ण हुर्इं । किसी अन्य समय यदि हम वही सर्व सेवाएं करते, तो उसके लिए पूरा दिन बीत जाता । उस समय हमें गुरुकृपाकी प्रचीति हुई तथा गुरुतत्त्व १ सहस्र गुना कार्यरत होनेका भान हुआ ।’ – श्री. रंजन देसाई, महाराष्ट्र

श्री. देसाईजीकी अनुभूति पढकर हमें गुरुपूर्णिमाके दिन एवं गुरुकृपाके महत्त्वका बोध होता है । उस दिन ग्रहण किए गए लाभको स्थायी रखनेके लिए केवल एक दिनही नहीं, बल्कि सदैव प्रयत्नरत रहना अत्यावश्यक है । गुरु ईश्वरके सगुण रूप होते हैं । उन्हें तन, मन, बुद्धि तथा धन समर्पित करनेसे उनकी कृपा अखंड रूपसे कार्यरत रहती है । वास्तवतमें गुरुको हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं होती; परंतु गुरुके लिए त्याग करनेसे हमें आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं ।

 

२. गुरुके प्रति त्यागका महत्त्व

किसी विषयवस्तुका त्याग करनेसे उसके प्रति व्यक्तिकी आसक्ति घट जाती है । तनके त्यागसे देहभान भी क्षीण होता है एवं देह ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर पाती है । मनके त्यागसे मनोलय होता है तथा विश्वमनसे एकरूपता साध्य होती है । बुद्धिके त्यागसे व्यक्तिकी बुद्धि विश्वबुद्धिसे एकरूप होती है तथा वह ईश्वरीय विचार ग्रहण कर पाता है । त्यागके माध्यमसे गुरु व्यक्तिके लेन-देनको घटाते हैं । तन, मन एवं बुद्धि की तुलनामें धनका त्याग करना साधक तथा शिष्यके लिए सहजसुलभ होता है ।

त्यागके संबंधमें कहा जाए, तो गुरुको कितना धन अर्पण किया है इसकी अपेक्षा अपने पास कितना धन शेष रखा है, यही महत्त्वपूर्ण होता है । जैसे कोई व्यक्ति एक लाख रुपयोंमेंसे दस हजार रुपए अर्पण करे एवं दूसरा व्यक्ति पचास रुपयोंमेंसे सारे पचास रुपए गुरुको अर्पण करे, तो इसमें पूरे पचास रुपए अर्पण करनेका महत्त्व अधिक है । अंतमें गुरुके चरणोंमें शिष्यको अपना सर्वस्व अर्पण करना होता है । ऐसा करनेकी सिद्धता होनी चाहिए । सत्सेवा करनेसे तनका त्याग होता है, नामजप करनेसे मनका त्याग होता है, तथा बुद्धिका उपयोग कर गुरुकार्य भावपूर्ण एवं परिपूर्ण करनेसे बुद्धिका त्याग होता है । आप भी किसी संत, गुरु अथवा आध्यात्मिक संस्था द्वारा आयोजित गुरुपूर्णिमा महोत्सवमें सहभागी होकर तन, मन, बुद्धि एवं धनका यथासंभव त्याग कीजिए तथा गुरुतत्त्वका पूरा लाभ ग्रहण कीजिए ।

 

३. गुरुपूर्णिमाका अधिकाधिक लाभ ग्रहण करनेके लिए आवश्यक प्रयास

१. गुरुमंत्रका अथवा कुलदेवताका अधिकाधिक नामजप करना

२. गुरुपूर्णिमा महोत्सवमें सम्मिलित होकर अधिकाधिक सत्सेवा करना

३. सेवाके अंतर्गत प्रत्येक कृत्य भावपूर्ण एवं परिपूर्ण होनेके लिए प्रार्थना तथा कृतज्ञता व्यक्त करना

४. गुरुकृपा पानेके लिए आवश्यक गुण तीव्र मुमुक्षुत्व अर्थात गुरुप्राप्तिके लिए तीव्र उत्कंठा, आज्ञापालन, श्रद्धा एवं लगन बढानेका दृढ संकल्प करना

५. गुरुकार्यके लिए धन अर्पण करना

६. गुरुको अपना सर्वस्व अर्पण कर देना ही खरी गुरुदक्षिणा है, यह ध्यानमें रखना तथा वैसे कृत्य करनेके लिए प्रयास करना

७. गुरुपूर्णिमा महोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिए अन्य व्यक्तियोंको प्रेरित करना

 

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’

Leave a Comment