आषाढी एकादशी

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आषाढी एकादशी नाम उच्चारने से प्रथम आंखों के सामने आती है, वह पंढरपुरकी यात्रा ! पूरे वर्ष के २४ एकादशियों में इस एकादशी का एक विशेष महत्त्व है । इस दिन के व्रत में सर्व देवाताओं का तेज एकत्रित हुआ है । आषाढी एकादशी के इस व्रत के पीछे क्या इतिहास तथा उसका महत्त्व है, उस की जानकारी इस लेख द्वारा ज्ञात करेंगे ।

श्री विठ्ठल

१. प्रकार

आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘देवशयनी (देवों के निद्रा की)’ तथा वद्य पक्ष की एकादशी को ‘कामिका एकादशी’, कहा जाता है ।

 

२. इतिहास

‘पहले देव तथा दानवों में युद्ध हुआ । कुंभ दैत्यों का पुत्र मृदुमान्य ने तपद्वारा शंकर से अमरपद प्राप्त किया । अतः वह ब्रह्मदेव, विष्णु, शिव इन सभी देवों को अंजिक्य हुआ । उसके भय से देव त्रिकुट पर्बत पर धात्री (आवळी) वृक्षातल की एक गुंफा में छिपें । उन्हें इस आषाढी एकादशी का अनशन करना पडा । पर्जन्य की धारा में स्नान हुआ । अचानक उन सभी के श्वासों से एकशक्ति उत्पन्न हुई । उस शक्ति ने गुंफा के द्वार पर खडे मृदुमान्य दैत्य की हत्या की । ये जो शक्तिदेवी थी, वही एकादशी देवता ।

 

३. महत्त्व

३ अ. आषाढी एकादशी व्रत में सभी देवताओं का तेज एकत्रित रहता है ।

३ आ. कामिका एकादशी मनोकामना पूरी करनेवाली एकादशी है । यह पुत्रदायी एकादशी है ।

 

४. व्रत करने की पद्धति

एक दिन पूर्व दशमी के दिन एकभुक्त रहना । एकादशी को प्रातः स्नान करना । तुलसीपत्र अर्पण कर विष्णुपूजन करना । यह पूरा दिन अनशन करना । रात्रि हरिभजन करते हुए जागर करना । आषाढ शुद्ध द्वादशी को वामन की पूजा कर पारणे करना । इन दोंनो दिन ‘श्रीधर’ इस नाम से श्रीविष्णु की पूजा कर दिनरात घी का दीप जलाने का विधी करते हैं ।

 

५. पंढरपुर की यात्री

यह व्रत आषाढ शुद्ध एकादशी से आरंभ करते हैं । वारकरी संप्रदाय वैष्णव संप्रदाय में से एक प्रमुख संप्रदाय है । इस संप्रदाय में वार्षिक, छठा मासी के अनुसार दीक्षा ली जाती है । उसके अनुसार यात्रा की जाती है । यह माना जाता है कि, यह यात्रा पैदल करने से शारीरिक तप प्राप्त होता है ।

पंढरपुर की यात्रा का प्रारंभ संत ज्ञानेश्वर ने ‘ज्ञानेश्वरी’ इस ग्रंथ की निर्मिति कर समाज में भागवत धर्म की स्थापना की तथा समाज में भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार करने हेतु नामदिंडीकी, अर्थात् पंढरी की यात्रा की प्रथा आरंभ की ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘सण, धार्मिक उत्सव तथा व्रतं’

५ अ. पंढरपुर की यात्रा का आध्यात्मिक महत्त्व !

विठुराया का नामजप करते हुए की जानेवाली इस यात्रा को नामदिंडी का स्वरूप प्राप्त होता है । पंढरपुर की यात्रा में सम्मिलित व्यक्ति का तन, मन तथा धन सभी ईश्वर के चरणों में अर्पण होता है । भगवंत से भेंट करने की इच्छा से यात्रा की जाती है, अतः उस समय उसका मन निर्मल रहता है तथा स्थूलदेह भी चंदन के अनुसार झिजता है । अतः पंढरपुर यात्रा में सम्मिलित वारकरी को यात्रा के रूप में तीर्थक्षेत्र मे जाने का ही लाभ प्राप्त होता है ।

– कु. मधुरा भोसले, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा । (४.७.२०१६)

कलियुग में भगवान श्रीविष्णु के सगुण रूप का अस्तित्व अर्थात पंढरीनाथ की पत्थर की काली मूर्ति ! वह केवल सादी मूर्ति ही नहीं, अपितु श्रीविष्णु की सगुण देह है । पृथ्वी पर सगुण की भक्ति करनेवाले सभी जीव इस मूर्ति की ओर अपनेआप आकर्षित होते हैं । किसी का भी निमंत्रण न होते हुए भी लाखों श्रद्धालु पंढरी आते हैं और भगवद्भक्ति का असीम आनंद लूटते हैं । थके-हारे जीव जब पंढरी में प्रवेश करते हैं, तब कुछ समय के लिए वे उन्मनी अवस्था में चले जाते हैं । पंढरी की वारी का यही आध्यात्मिक रहस्य है ।

– श्री. श्रीकांत भट, अकोला.

५ आ. पांच बार काशी और तीन बार द्वारका जाने से जितना पुण्य मिलता है, उतना ही पुण्य एक पंढरपुर की एक वारी से मिलता है !

५ इ. वारकरियों की लगन के कारण विठ्ठल को पंढरपुर में आना ही पडता है !

संत ज्ञानेश्वर ने वारी का प्रारंभ किया । तब से चली आ रही वारी के कारण पंढरपुर की श्री विठ्ठल की मूर्ति जागृतावस्था में आ गई है । वारकरी ।। राम कृष्ण हरी।।, ।। राम कृष्ण हरी।। ऐसे अखंड नामसंकीर्तन करते हुए पंढरी जाते हैं । कलियुग में ईश्वर की कृपा संपादन करनेवाले एक व्यक्ति की अपेक्षा सभी मिलकर जब कृपा संपादन का प्रयत्न करते हैं, तब वह समष्टि साधना होती है । वारी में व्यष्टि सहित समष्टि साधना भी होती है और सभी जीवों के उद्धार के लिए विठ्ठल को पंढरपुर में भूतल पर आना पडता है । इस तीर्थ की महिमा ही ऐसी है । यहां के भक्तों की लगन के कारण भगवान विठ्ठल दौडे-दौडे पंढरपुर में आते हैं । पंढरपुर की वारी, वारकरियों के जीवन में अखंड भक्ति का स्रोत बन जाती है । प्रत्येक के अंतर्मन में भावभक्ति के बीज का रोपण करनेवाली यह वारी पृथ्वी के अंत तक ऐसे ही चलती रहेगी ।

५ ई. भगवान भाव के भूखे हैं, इसकी प्रचीति पंढरपुर में आती है !

भक्तों के संकटकाल में अविलंब दौडे आनेवाले, अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिए विठ्ठल पंढरपुर में खडे हैं । भगवान भाव के भूखे हैं, इसकी प्रचीति लेनी हो, तो पंढरपुर जाएं ।

वारकरियों, पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर की धार्मिक विधि, नियमित की पूजा, मंत्रपठन, मंदिर की परंपराओं पर प्रतिबंध लगानेवाली मंदिर समिति पर ही अब वार करने और विठ्ठल मंदिर का संरक्षण करने की प्रतिज्ञा इस आषाढी एकादशी को करते हुए विठ्ठल की कृपा संपादन करें !

– श्री. श्रीकांत भट, अकोला.

५ उ. पंढरपुर की यात्रा अर्थात् हिन्दु परिवार तथा समाज के बीच में प्रेमभाव वृद्धिंगत करनेवाला व्रत !

वारकरी संप्रदाय की जडण-घडण के संदर्भ में संत कहते हैं कि, ‘पंढरपुर का विठोबा महाराष्ट्र का दैवत है । वारकरी प्रत्येक आषाढी एकादशी को पंढरपुर यात्रा का नियोजन करते हैं । गत आठशे वर्षों से भी अधिक कालावधी से यह यात्रा चल रही है ।’

संत ज्ञानेश्वर ने इस वारकरी संप्रदाय को तत्त्वज्ञान की बैठक दी है ।’ पंढरपुर की यात्रा के कारण हिन्दुपरिवार तथा समाज में प्रेमभाव निर्माण होने में सहकार्य प्राप्त होता है । यह व्रतों का सामाजिक दृष्टि से महत्त्व है । प्राध्यापक न. र. फाटक कहते हैं कि, ‘महाराष्ट्र के देव-धर्म संप्रदायों के रूप में जो संगठनाएं ज्ञानेश्वर के समय से अस्तित्व में थी, उसका शैथिल्य, कर्ता पुरुषों के अभाव में संगठन को प्राप्त हुआ दैन्य ये सभी एकनाथ की सीख के कारण नष्ट हुआ है । लोगों में देव तथा धर्म के अभिमान का उत्साह संचारित हुआ । इसे ही आगे पचास वर्षपश्चात् स्वराज्य स्थापना के प्रयासों का फल प्राप्त होकर उसका लाभ महाराष्ट्र की जनता को हुआ । ’

पहले जब संत एकत्रित आते थे, तो वे एकदूसरे के चरणों पर सिर रखकर आदर व्यक्त करते थे । (पैरों पर सिर रखकर अनेक लाभ प्राप्त होते हैं । उदा. दोनों का चैतन्य एक होकर दोनों का भी तेज बढने में सहायता प्राप्त होती है ।अहंभाव, गर्व न्यून होता है । ‘सर्वत्र ईश्वर है’, यह भावना वृद्धिंगत होती है ।) सभी अपना-अपना अनुभव बताते हुए, नई रचनाओं का (अभंग, भजनं, ओवी) प्रस्तुतीकरण करते थे । प्रसार की नई कल्पनाएं बताई जाती थी । अन्योंको मार्गदर्शन करते थे । प्रत्येक व्यक्ति इस मेले में उपस्थित है, इस बात का पता अन्य लोगों को भी हो; इसलिए पताका साथ में रखते थे । वहीं प्रथा आजभी चल रही है । सारांश में कार्तिकी एकादशी से आषाढी एकादशी तक व्यष्टि तथा समष्टि साधना का ब्यौरा देने का तथा आगे का मार्गदर्शन प्राप्त करने का यह दिन होने के कारण इस एकादशी को अत्यंत महत्त्व प्राप्त हुआ है ।’

 

६. एकादशी का व्रत कैसे करें ?

परात्पर गुरु पांडे महाराजजी का अनमोल विचारधन

परात्पर गुरु पांडे महाराज

‘एक पर एक ११ अर्थात एकादशी । इसका अर्थ एकत्व छोडें नहीं । इस दिन लंघन करना अथवा उपवास करना, इसका उद्देश्य है ध्यान यहां-वहां न जाते हुए भगवान के पास रहे । आज यह अर्थ गौण हो गया है और उपवास प्रधान हो गया है ! इस दिन का तत्त्व साधना करने के लिए अनुकूल होता है । एकादशी प्रतिदिन ही करनी चाहिए । विशेष बात यह है कि योग्य तरीके से एकादशी करने पर उसका प्रभाव १५ दिनों तक टिकता है; इसीलिए एक माह में २ एकादशी होती हैं ।’

– (परात्पर गुरु) परशराम पांडे (महाराज), सनातन आश्रम, देवद, पनवेल

 

७. संतों द्वारा की गई पंढरी की यात्रा

अनेक संतों ने पंढरी की यात्रा कर पंढरपुर को जाकर पांडुरंग का दर्शन प्राप्त किया तथा जीवन सार्थक किया ।

७ अ. संत सखुबाई

संत सखुबाई की यह इच्छा थी कि, कराड से पंढरपुर तक जानेवाली यात्रा में सम्मिलित होना चाहिए तथा पांडुरंग का दर्शन करना चाहिए; किंतु उनकी सासने उन्हें यात्रा करने की अनुमती नहीं दी तथा उसे घर के खंबे को लपेटकर रखा। संत सखुबाई के मन में पंढरीनाथ के दर्शन की इतनी तीव्र लगन थी कि, साक्षात् पांडुरंग को ही उन्हें मुक्त करने के लिए स्वयं आना पडा । पांडुरंग ने मूल सखु को मायामोह के बंधन से मुक्त कर सीधा पंढरपुर में पहुंचाया तथा उसका रूप लेकर स्वयं को खंबे को लपेट लिया ।

७ आ. संत कान्होपात्रा

संत कान्होपात्रा में भक्ति की लगन जागृत करने का श्रेय पंढरी की यात्रा को देना पडेगा ।

७ इ. संत जनाबाई

संत जनाबाई अपने माता-पिता के साथ गंगाखेड से यात्रा कर पंढरपुर आई तथा वहां ही नामदेव के घर रूक गई ।

७ ई. संत सावता माली

जैसे कि, वे विठ्ठल के बगीचे में ही मैं सेवा कर रहा हूं, इतनी संत सावता माली की भावावस्था थी । अतः पांडुरंग द्वारा नियुक्त किए गए बगीचे की सेवा छोडकर वे पंढरपुर को पांडुरंग के दर्शन के लिए कभी भी नहीं गए ।

७ उ. संत गोरा कुंभार तथा संत चोखामेळा

इनके जीवनचरित्र में भी पांडुरंग की भक्ति का महत्त्व प्रकर्ष रूप से स्पष्ट होता है ।

७ ऊ. संत कूर्मदास की उत्कट भक्ति के कारण साक्षात् विठ्ठल को
ही उनसे भेंट करने हेतु पंढरपुर से लहुल इस उनके गांव में आना पडा

संत कूर्मदास पैठण के निवासी थे । उन्हें जन्म से ही हाथ तथा पैर दोनों नहीं थे । उन्होंने आषाढी तथा कार्तिकी एकादशी का महत्त्व ज्ञात कर पंढरपुर जाने का निश्चय किया । वे पेट की सहायता से खीसकते हुए प्रतिदिन एक कोस अंतरपार करते थे । उनकी यह स्थिती देखकर करुणा से कोई उन्हें रोटी खिलाता था, तो कोई उन्हें ऊठाकर आगे ले जाता था । पांडुरंग की भेंट की लगन से वे पंढरपुर की दिशा की ओर जाने का प्रयास कर रहे थे । इस प्रकार ४ मास हुए ।आषाढी एकादशी के एक दिन पूर्व वे पंढरपुर से ७ कोस अंतर पर होनेवाले लहुल नामक गांव में पहुंचे । कल आषाढी एकादशी है तथा अब मुझे पांडुरंगका दर्शन प्राप्त नहीं होगा, इस बात का दुःख उनके मन में था । भगवंता, मैं दीन-हीन, अपंग हूं । मैं तेरे दर्शन करने के लिए नहीं पहुंच सकता; किंतु तुमतो मुझे मिलने के लिए आ सकते हो । तुम्हें कौनसी कठिनाई है ?, ऐसा विचारकर संत कूर्मदास ने एक यात्रेकरू के माध्यम से एक चिठ्ठी द्वारा विठ्ठल को आंमत्रण भेजा । दूसरे दिन एकादशी को वह यात्रेकरू पंढरपुर पहुंचा । उसने श्रीविठ्ठल का दर्शन कर संत कूर्मदास द्वारा प्राप्त चिठ्ठी पांडुरंग के चरणों पर अर्पण की । भक्तवत्सल पांडुरंग को एक पल भी रहा नहीं गया । त्वरित वह संत कूर्मदास से भेंट करने हेतु संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव तथा संत सावतामाळी को साथ लेकर लहुल गांव पहुंचा । साक्षात् भगवंत का दर्शन प्राप्त होने के कारण संत कूर्मदास के जन्म का सार्थक हुआ तथा उन्होंने पांडुरंग के चरणों पर लोटांगण किया । संत कूर्मदास जहां तक लहुल इस गांव में थे, उस समय तक विठ्ठल ने भी उनके साथ वहां ही निवास किया । संत कूर्मदास को जहां दर्शन प्राप्त हुआ, वहां आज भी श्रीविठ्ठल का सुंदर मंदिर है ।

(संदर्भ :मासिक भक्तमाल, कल्याण)

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